लक्ष्मीधर मालवीय
जनसत्ता 9 नवंबर, 2014: अकेली हिंदी को लेकर बहस हो कि हिंदी बनाम अंगरेजी पर, सारी बहस धूल की रस्सी बटने के समान वृथा है, क्योंकि हिंदी भाषा है कि मातृभाषा या कि इन दोनों से पृथक् कुछ और, इसी में छूछे पड़े कोल्हू में बैल चक्कर काट रहा है! पढ़ने-सुनने में जो आता है, ‘हिंदी विश्व की…’, ‘अमीर खुसरो की हिंदी’, ‘वेदों में भी हिंदी…’, वह तो यही प्रमाणित करता है कि अनर्गल प्रलाप का सर्वोपयुक्त विषय है, हिंदी! ऊपर के से वक्तव्यों के टक्कर की सूक्तियां संसार की दूसरी किसी भाषा के लिए देखने में नहीं आतीं!
मातृभाषा केवल एक होती है- वह भाषा जो माता के मुंह से सबसे पहले सुनी गई हो। हिंदी मातृभाषा तो दूर, सामान्य अर्थ में भाषा भी नहीं है! फ्रेंच, जापानी, रूसी, हिब्रू, तमिल आदि मातृभाषा होने के साथ भाषाएं भी हैं, क्योंकि रूसी शिशु जन्म से रूसी भाषा ही के शब्द सुनता है। हां, उसके पिता जर्मन हों और माता रूसी तो भी अधिकतर रूसी बोली सुनते रहने से वह रूसीभाषी होगा। एक जापानी दंपति पचास बरस से इलाहाबाद रह रहे हैं, उनकी एक या दो संतानें वहीं पैदा हुई हैं। बच्चे इलाहाबादी अवधी स्थानीय बच्चों की सी दक्षता से बोलते हैं, फिर भी मातृभाषा उनकी जापानी है, क्योंकि जन्म से अपने माता-पिता को जापानी ही बोलते उन्होंने सुना है। उसी इलाहाबाद में एक चीनी डेंटिस्ट की दुकान थी- कई पीढ़ियों से उस नगर के निवासी- आपस में चीनी ही बोलते उन्हें सुनने की मुझे याद है!
गुजराती, चीनी आदि तमाम भाषाओं की तुलना में ‘हिंदी’ भाषा नहीं, बल्कि बहुभाषी ‘तर्जुमाकार’ है- रुपए-पैसे जैसा खरीद-बिक्री करने वाला, कपड़े के थान की तरह काट कर कुरता, पाजामा या टोपी बनाने वाला साधन नहीं है हिंदी, बल्कि चिमटे, डंडे जैसा औजार है हिंदी! तवे पर सिंक रही रोटी चिमटे से पलटते हैं; डंडे के सिरे पर बोझ टांग सकते हैं, कुत्ते को मार भगा सकते हैं। एक औजार से एक ही किस्म का काम कराया जा सकता है, जिसके लिए उसे बनाया गया है- डंडे से रोटी नहीं पलटी जा सकती! ‘हिंदी’ सिर्फ तर्जुमा करती है, आशु दुभाषिया है! सैकड़ों बरसों से राजधानी बने रहे नगर दिल्ली के पड़ोसी मेरठ अलीगढ़ के छोटे से इलाके की बोली को इसी उद्देश्य से काट-तराश कर खड़ी बोली के रूप में गढ़ा गया था। इसका प्रगट प्रमाण यह है कि एक बंगाली बांग्ला बोल कर अपना मंतव्य पठान तक नहीं पहुंचा पाता, मगर वह भले ही टूटी-फूटी ‘हिंदी’ बोले तो भी उसकी कही बात का आधे से अधिक हिस्सा पश्तो बोलने वाला पठान समझ जाएगा।
इसी प्रकार तमिल बोल कर एक कश्मीरी को बात नहीं समझाई जा सकती, ‘हिंदी’ दोनों के बीच संवाद करा देती है। अगर एक मथुरा वासी, एक मैंगलूर का, एक अरुणाचल का ये तीन इकट्ठा बैठ कर बातें करना चाहें तो उनके वार्तालाप बखूबी करा देगी ‘हिंदी’! उनकी मंडली में एक नेपाली के आ मिलने से भी बात वही रहेगी!
‘हिंदी’ प्रदेश के भीतर भी, मसलन भारतेंदु के नाटक बनारस की काशिका का ‘हिंदी’ में तर्जुमा हैं। ठीक यही बात लागू होती है राधाकृष्णन की अंगरेजी पर, जो तमिल भाषा का उल्था है- गांधीजी की अंगरेजी पर, जो काठियावाड़ी का तर्जुमा है।
‘हिंदी’ ही नहीं, ‘हिंदी’ समेत सारे भारत को जानलेवा रोगों, दरिद्रता, व्यापक निरक्षरता आदि महाविनाश के गहरे खाई खंदक में गिरने से बचाना जितना तो अत्यावश्यक, उतना ही आसान भी है!
हम गलत राह चले आए हैं, इससे अंधी गली के बंद छोर पर खड़े हैं। लौट चलना चाहिए! और उस दोराहे पर आकर खड़े होना चाहिए, जहां ‘हिंदी’ को राज्य-राष्ट्र भाषा बनाया गया। ‘हिंदी’ से सरकार का स्पर्श भी न रह जाना चाहिए। क्योंकि शासन ‘हिंदी’ को जहरीले गोजर की तरह हजारों नुकीले पैरों में कसे हुए है। ‘हिंदी’ के विकास के लिए संस्था को आर्थिक सहायता, थोक भाव से हिंदी प्रकाशकों की पुस्तकों की खरीद, शब्दकोश के मुद्रण, संशोधन के लिए आर्थिक अनुदान, (‘‘शिक्षा मंत्रालय ने अपने पत्र में एक लाख रुपया पांच वर्षों में देने की स्वीकृति दी’’- हिंदी शब्दसागर।) केंद्रीय और क्षेत्रीय हिंदी संस्थान, विदेशों में भारतीय दूतावासों के भीतर हिंदी के प्रसार की जांच के लिए सांसदों के उड़न दस्ते, विश्व हिंदी सम्मेलन, सरकारी-गैर-सरकारी विभागों में हिंदी अफसर- ‘हिंदी’ के सिर की टोपी के ऊपर से लेकर जूतों के नीचे तक सब शासन के चरणों तले हैं! इस कब्जे को नीव समेत खोद फेंकना पहली जरूरत है। इसलिए तो और भी आवश्यक कि शासन का कब्जा बना रहने से शासन को कोई लाभ होना तो दूर, उलटे करोड़ों का धन व्यर्थ बहाना पड़ रहा है, और हिंदी को लाभ कुछ नहीं, हानि भारी हो रही है!
चीन में चीनी जनता के बीच चीनी भाषा का प्रसार बढ़ाने के लिए चीन सरकार ने एक तिनका तक न डुलाया। चीनी भाषा में आवश्यक परिवर्तन किया चीनी भाषाविदों ने। इंग्लैंड, फ्रांस और जापान में यह काम समाचार पत्र-पत्रिकाएं, कोशों का संकलन, संपादन और प्रकाशन करने वाली प्राइवेट कंपनियां करती हैं- वेबस्टर कंपनी, इवानामि कंपनी, आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस। ‘हिंदी’ को शासकीय दीमक का कीड़ा लगने के पहले इलाहाबाद जैसे तब एक लाख की जनसंख्या वाले नगर के अनेक में एक प्रकाशक रामनारायन लाल के यहां से हिंदी-अंगरेजी कोश, 1066 पन्ने, तीन रुपए का, सन 1901 में निकला था- संस्कृत, पर्शियन और हिंदी के कोश भी। बनारस के भारत जीवन प्रेस से सैकड़ों संपादित ग्रंथ, नवल किशोर प्रेस लखनऊ से प्रकाशित चार हजार पुस्तकें। यह सब सन 1900 के आगे-पीछे। इनमें से हर एक प्राइवेट कंपनी के यहां भाषा विशेषज्ञों की स्थायी समितियां रही हैं- आज भी हैं। हिंदी-उर्दू की पाठ्यपुस्तकें ईस्ट इंडिया कंपनी ने नहीं, जॉन गिलक्रिस्ट ने अग्रिम चंदा (पहले चालीस रुपए, फिर लागत बढ़ जाने से साठ रुपए) लेकर तैयार की थीं। कंपनी ने अपने फोर्ट विलियम कॉलेज के लिए दो सौ प्रतियां खरीदने का वादा किया था। हिंदे स्टोरी टेलर- भाग 1 सन 1806 की, कॉलेज आॅफ फोर्ट विलियम की मुहर लगी एक पुरानी प्रति मेरे पास जापान में है।
अंधी गली में ले जाने वाली गलत राह पर सन 1956 में पैर बढ़ाया था, जब ‘हिंदी’ को राजभाषा बनाया गया। सारे देश में उसका प्रचार था- राष्ट्रभाषा तो वह आप ही बनी थी। इस दोराहे के मुहाने पर बाहर निकल कर इधर कंटीले तारों की ऊंची बाड़ लगा देनी चाहिए, ताकि आगामी पीढ़ियां ‘हिंदी’ को राजभाषा की कुराह पर न धकेल सकें।
‘बेशक हमने/ उस रास्ते के मुहाने पर/ र्इंटें चुनवा दीं/ कि फिर इस तरह की दुर्घटना न हो जाय’ (विजय देव नारायण साही)
दयानंद सरस्वती, मोहनदास गांधी, नरेंद्र मोदी, तीनों गुजरातीभाषी, इनकी हिंदी सबको आसानी से समझ में आती है। सुनीतिकुमार चटर्जी, विधानचंद्र राय और ममता बनर्जी, बांग्लाभाषी, की हिंदी भी सबको सुबोधगम्य है। यही बात मराठी, ओड़िया, मलयालम आदि बोलने वालों की हिंदी पर भी समान रूप से लागू होती है। लेकिन हिंदी के प्रोफेसर डॉक्टर लक्ष्मीधर मालवीय की लिखित और मौखिक ‘हिंदी’ ही ऐसी क्यों होती है कि उसे समझने के लिए उसका सरल हिंदी में अनुवाद कराना पड़ता है!
गऊ पट््टी में बसे हुए किसी भी मनुष्य को ‘हिंदी’ के तीन वाक्य तिरवाचा पढ़ कर सुनाने के बाद उससे पूछा जाए कि उसकी समझ में इस प्रवचन का मुख्य विषय क्या है? वही सवाल मैं फिर-फिर दुहरा रहा हूं- कहां से निकली है मालवीय सर की ‘हिंदी’, जिसे उनके बच्चे समझ सकते हैं, न माता-पिता! अकेले नहीं हैं डॉक्टर साहब, हिंदी में जो जितना ही उच्च शिक्षा प्राप्त है, उसी के अनुपात में उसकी हिंदी भी ‘उच्च’ है। किस काम आती है यह उच्च से उच्चोत्तर हिंदी!
यह विश्वविद्यालय की ‘हिंदी विभागी’ अभागी हिंदी है! इसकी यह सही शिनाख्त इस बात से तय होती है कि इसके पहले सन 1850 के आसपास से लेकर सन 1920 के इधर-उधर तक सरल, सुबोध हिंदी में प्रकाशित पुस्तकें, कोश, अखबार का हिमालय की चोटी से ऊंचा अंबार मौजूद था तो! इस सब पर अपने यहां, अपनी प्रोफेसरी हिंदी में गढ़ी हुई पाठ्यपुस्तकों के छोटे-छोटे ढूह हर हिंदी विभाग ने लगाए हैं! ये ही मतिमंद आचार्य अपने ‘डॉली द क्लोन’ मतिमंदों की अगली पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां छोड़ते गए हैं। राष्ट्रभाषा हिंदी के जन्मदाता ये ही क्लोन हैं। इसलिए जनहित देशहित के लिए क्लोनों की नसबंदी करना प्रथम आवश्यकता है!
‘हिंदी विभाग’ वाली गली से लौट कर वापस सन 1920-24 के दोराहे पर आएं तो इस राह के मुहाने पर नर कपाल और दो टेढ़ी हड्डियों से अंकित मौत का गोल निशान कीलों से ठोंक दें!
कोलकाता से लेकर दिल्ली, चंडीगढ़ तक गऊ पट््टी के सभी विश्वविद्यालय के सभी ‘हिंदी’ विभागों का कार्य अस्थायी रूप से स्थगित कर- नहीं, आचार्यों को उनके अपने-अपने घर न बैठाएं, क्योंकि उनसे काम कराना है। फिर, अणु शक्ति और प्लास्टिक का अनाविष्कार जैसे असंभव है, वैसे ही विश्वविद्यालय में हिंदी विभागों की ‘अनस्थापना’! हां, उनकी जांच-परख कराना अतिआवश्यक है, क्योंकि प्राइमरी स्तर से लेकर हाइस्कूल तक में करोड़ों बच्चे-बच्चियों को गणित, रसायन शास्त्र आदि तमाम विषय पढ़ाने के लिए लाखों मास्टर इंग्लैंड, अमेरिका से इंपोर्ट न किए जाएंगे- हमारे अपने युवक अध्यापक होंगे- इसलिए इनकी हिंदी तो चुस्त-दुरुस्त होनी ही चाहिए!
माना तो यह जाता है कि अपनी इज्जत अपने हाथ होती है। इस पूरे क्षेत्र के सभी हिंदी विभागाध्यक्षों को अकेले-अकेले, नहीं तो आपस में मिल कर यह देखना चाहिए था कि उनके विभागों में पिछले वर्ष हिंदी का क्या नया, अग्रगामी कार्य हुआ है- अगले वर्ष के लिए क्या योजना अमल के लिए तैयार है। इसी प्रकार पिछले पांच और अगले पांच बरसों का तखमीना। उनके द्वारा ऐसा किए जाने की जानकारी मुझे तो नहीं है। कारण, इतनी परवा, अपनी ही मान-प्रतिष्ठा की, यदि मन में रही होती तो अब ऐसी जांच कराने की नौबत ही क्यों आती!
ये सभी शासन से आर्थिक सहायता प्राप्त संस्थाएं हैं, इससे जन-धन के व्यय की जांच करना शासन का कर्तव्य होता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ओर से तीन से पांच सदस्यों की समिति का नियोजन कर उस पर जांच का दायित्व सौंपा जाना चाहिए। जांच प्रक्रिया आसान और प्राय: निर्मूल्य है।
एक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की जांच करने के लिए किसी भिन्न विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर के साथ एक प्रोफेसर हिंदी क्षेत्र से बाहर वहां की भाषा विभाग का लगाएं। जैसे कि लखनऊ यूनिवर्सिटी के हिंदी प्रोफेसर के साथ पुणे विश्वविद्यालय में मराठी विभाग के प्रोफेसर। इन दो को मिल कर जांच करना है कि चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग का बीए और एमए का चालू पाठ्यक्रम क्या है, उसकी व्यावहारिक उपयोगिता कितनी है और पुणे में मराठी के समकक्ष पाठ्यक्रम से वह किस सीमा तक तुलनीय है। हिंदी विशेषज्ञ के साथ इतर भाषी विद्वान को जोड़ने का उद्देश्य तुलनात्मकता बनाए रखना है, कुछ और नहीं। इसी रीति से गऊ पट्टी के सभी हिंदी विभागों की जांच होनी चाहिए। इसके लिए यात्रा भत्ता और आर्थिक सहायता देने की बात ही नहीं, क्योंकि यह सारा कार्य वे घर बैठे इंटरनेट के जरिए या डाक से सूचना सामग्री हासिल करते हुए पूरा कर सकते हैं।
पांच साल की मोहलत हमने ली है, अब तक के पापों का प्रायश्चित करने के लिए। जमीनी हकीकत के अग्निपथ पर प्रौग्रेस करते, ‘गलौच’ की व्युत्पत्ति कश्मीरी गलीचे से निकालते हुए आचार्य पर्याप्त अक्लमंद हो चुके। उनके प्रथमोपचार के लिए ज्ञानांजनशलाका छमाही रिफ्रेशर कोर्स तैयार करना पहली आवश्यकता है! इसे कटूक्ति न समझा जाए- प्रेमचंद की बालोपयोगी पुस्तक ‘जंगल की कहानियां’ मैं जापान में हिंदी प्रथम वर्ष के छात्रों को पढ़ाया करता था- और उसकी कृपा से अपनी हिंदी का भी संस्कार करता था! कहां ‘नहीं’ न होगा। बंदूक ‘छूटती’ है तो तोप क्या करती है!
विश्वविद्यालय तो बहुत दूर, हाइस्कूल में भी हिंदी के अध्यापक को उर्दू-फारसी वर्णमाला का कामचलाऊ नहीं, पूरा ज्ञान होना अनिवार्य है। उर्दू-फारसी की पेशकश हिंदू-मुसलिम एकता बढ़ाने का स्वांग नहीं, एकदम उपयोगिता के स्तर पर है। हिंदी में आज दिन उपलब्ध कोश, निरपवाद रूप से, घूरे के ढेर हैं! उनमें वर्णमाला का क्रम ही भ्रष्ट है- और की क्या कहा जाए! उर्दू वर्णमाला का अभ्यास हो जाने से फ़ेलन और प्लाट्स के प्रामाणिक कोश ही नहीं, फ़रहंगे आसफ़िया, मुहज्ज़बुल लुग़ात तथा पाकिस्तान से निकले हुए इल्मी उर्दू लुग़त जैसे सुगम कोशों से लाभ उठाया जा सकेगा। हिंदी के आदि कवि मुक्तिबोध से पूर्ववर्ती सारे का सारा पुराना साहित्य छोला भटूरे के चाट पोंछ कर खाए गए दोने-सा साफ हो चुका है! उसके नाम तक सदा के लिए मिट चुके हैं। हमारी औकात ‘एकं लज्जां परित्यज्य, त्रैलोक्यं विजयी भवेत।’ लोकलाज छोड़ दे तीन लोक जीत ले से भिन्न नहीं! करना चाहने वाले के लिए काम अब भी मिल सकता है। ‘सूरसागर’ नया न सही, पुराना धुराना किताबों की दुकानों में तलाश कर देखिए, मिलता है कि नहीं। लेकिन फारसी लिपि में ‘सूरसागर’ की पांच प्रतियां उपलब्ध हैं- एक प्रति में चार हजार पद हैं। दिल्ली और जामिया की यूनिवर्सिटियों के सम्मिलित प्रयास से इस ग्रंथ का अति प्रामाणिक संस्करण क्या नहीं निकाला जा सकता! ‘तुहफ़हे अल् हिंद’ में तीन हजार शब्दों का तीन सौ साल पुराना कोश का संपादन कर ‘हिंदी’ पर पड़े चिथड़ों के अंगवस्त्रं को उतार कर इज्जत ढांकने वाली मामूली लाज चादर ओढ़ाई जा सकती है!
जो हिंदी विभाग कुछ नहीं कर रहे- और न करने की क्षमता रखते हैं, उन्हें ऐसे ही चलते देना चाहें तो चलने दें। आखिर लावारिस बच्चों के अनाथालय हैं कि नहीं। ‘कुपितो न वदेत् किंवा’ मन का गुबार निकालने को चाहे यह कह लें, मगर इससे काम बनेगा नहीं- गरज हमारी है। नहीं तो गऊ पट्टी के करोड़ों नंगे बूचों को तन ढांकने को वस्त्र, मुंह में अन्न और सिर पर टपरे की छांह बंगलुरु का आइटी देगा! और अगले कितने सौ साल तक!
इस क्षेत्र के विश्वविद्यालयी हिंदी विभागों का पुनर्गठन, निर्धारित कार्य और उस कार्य की पूर्ति के आधार पर किया जाना है- उनके बने रहने की यही एक शर्त है। जो ऐसा नहीं कर सकते, हिंदी के उन यतीमखानों को बंद करें!
हिंदी जिस गऊ पट््टी की देन है उस भूभाग की एक भारी विशेषता पर लोगों का ध्यान नहीं जाता, अब गंभीरता से विचारना चाहिए।
हमारा भारतवर्ष सारे संसार में अकेला ऐसा देश है, जो एक परिवार की ऐसी पांच पीढ़ियां भुगत चुका है, जिसके किसी भी सदस्य से भारतीयता का कोई भी अंग छू तक न गया था!
सन 1925, कांग्रेस का कानपुर अधिवेशन। पंडित मोतीलाल नेहरू द्वारा रखे गए प्रस्ताव का विरोध करने के विचार से पंडित मदन मोहन मालवीय खड़े ही हुए थे कि मोतीलालजी ने फब्ती कसी, ‘निश्चिंत होकर बैठो और अब पंडितजी से महाभारत और भागवत की कथा सुनो।’ पंडित मालवीय ने हंस कर तुरंत उत्तर दिया, ‘भाई मोतीलालजी ने यदि इन ग्रंथों को श्रद्धा और ध्यान से पढ़ा होता तो ऐसा कभी न कहते।’ मोतीलालजी खिसियानी हंसी हंस कर रह गए। बैठे रहिए, अगली पीढ़ी आती है।
‘काशी के सुप्रसिद्ध साहित्यिकों ने काशी में पंडितजी को बुला कर सम्मानित किया था। उस अवसर पर पंडितजी ने कहा था, ‘‘हिंदी में दरबारी ढंग की कविता प्रचलित है।’ मैंने कहा, ‘पंडितजी, यह मामूली अफसोस की बात नहीं कि आप-जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति इस प्रांत के होते हुए भी इस प्रांत की मुख्य भाषा हिंदी से प्राय: अनभिज्ञ हैं। किसी दूसरे प्रांत का राजनीतिक व्यक्ति ऐसा नहीं। बनारस के साहित्यिकों की मंडली में दरबारी कवियों का उल्लेख आपने किया था, प्रसादजी, प्रेमचंदजी और रामचंद्रजी शुक्ल। आप ही समझिए कि आपका दरबारी कवियों का उल्लेख कितना हास्यास्पद हो सकता है।’’ ‘नेहरूजी से दो बातें’- निराला, 1939।
वही पंडितजी अब प्रधानमंत्री, काशी हिंदू विश्वविद्यालय पधारे हैं। वाइस चांसलर पंडित गोविंद मालवीय ने उनके मनोरंजन के लिए पंडित ओंकारनाथ ठाकुर के गायन का कार्यक्रम रखा है। ‘मैया मैं नहिं माखन खायो’। ओंकारनाथजी ने उस दिन अपनी गायन कला का अभूतपूर्व प्रदर्शन किया। गोविंदजी ने बगल की कुरसी पर बैठे हुए जवाहरलालजी के कान में कहा, ‘‘जवाहर भाई, यह बहुत कठिन राग है। अच्छे-अच्छे कलावंत भी इसे नहीं गा सकते।’’ उत्तर मिला, ‘‘मेरे खयाल से तो इसे गाने से कहीं ज़ियादा मुश्किल है, इसे समझना।’’
एकाध सीढ़ियां लुढ़क लीजिए, ‘‘चाहे हम जीतें या लूज़ें- यानी हारें-’’ (इंडिया टुडे 15 दिसंबर, 1989, पेज 8)
‘‘अबसे किसी मां का कोई बच्चा रात को भूखा नहीं जाएगा! अब मैं पार्लामेंट की ओर वापस जाना चाहता हूं- महिलाओं पर अत्याचार- सॉरी, अत्याचार नहीं बलात्कार।’’
इसे एक परिवार के सदस्यों पर आक्षेप न समझें- माधुरी नाभि में एक करोड़ रुपए (क्या आया याद- ‘चिरणेनाभिं प्रथमोदविन्दव:’!) समर्पित करने वाले उत्सव के आयोजकों में से कितने ऐसे हैं, जो उसी इटावा मैनपुरी के कवि देवदत्त, सेनापति आदि के नाम गिना सकते हैं! अयोध्या फैजाबाद तुलसीदास का भी स्थान था- चुनावी ज्वर में एक बार भी क्या तुलसी की कोई दोहा-चौपाई, किसी ओर से भी, सुनाई दी थी!
ये दो परिवार ही क्या, हमारे देश में एक सौ से ऊपर ऐसे ही वंशानुगत परिवारी ‘नेताजी’ लोग हैं- और इनमें से बड़ी संख्या गऊ पट््टी नामक मरुस्थल में लहलहाते इन एरंडद्रुमों की है!
सचमुच संसार के किसी भी दूसरे देश में इसका जोड़ न मिलेगा, कदापि न मिलेगा! इसका हरजाना भरना पड़ेगा- वह भी नाक के बल!
कुछ पुरानी लोकोक्तियां ऐसी हैं, जिनको उलटा लटकाया जाना चाहिए! संस्कृत की प्रसिद्ध लोकोक्ति ऐसी ही है एक, ‘नास्ति पादपे देशे एरण्डोपिद्रुमायते!’ अर्थात जिस देश में और कोई दूसरी वनस्पति नहीं होती, वहां रेंड़ के पेड़ को वृक्ष कहते हैं! क्यों? बेचारे रेंड़ को व्यंग्य का निशाना बनाने से पहले यह तो सोचना चाहिए था कि उस स्थान के बाशिंदों ने वहां की धरती को उपजाऊ बना कर वहां दूसरे फूलने वाले वृक्ष क्यों न रोपे!
याद आता है मुझे, विश्व प्रसिद्ध खगोलशास्त्री डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर ने मेरे यह कहने पर कि ‘‘उत्तर प्रदेश ने देश को पांच प्रधानमंत्री दिए हैं’’- विद्रूप कुंचित स्वर में पूछा था, ‘‘और क्या दिया?’’ उनके व्यंग्य का मर्म मैं समझता हूं! पुणे में उनका खगोल भौतिकी का केंद्र सप्ताह में एक दिन स्कूली किशोरों को अपने यहां बुला कर उन्हें खेल खेल में गणित और खगोल शास्त्र के सरल पाठ पढ़ाता है! हां, और क्या दिया! आइन्सटाइन के जोड़ का भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस जीवन के अंतिम वर्षों में जुटा रहता है, भौतिकी के कठिन विषय को बंगाली बच्चों के लिए सरल बांग्ला में लिखने में!
जनसंख्या का गणित कहता है, अगले अनंत काल तक या जब तक भारतवर्ष नाम का देश अस्तित्व में रहेगा, नेतृत्व इसी तरह गऊ पट््टी की उपज होगा! बारह बरस बाद तो घूरे के दिन भी पलटते हैं- यह तो बारह पंजे साठ साल से भी आगे निकल गया! हमारे देश का भाग्य घूरे की किस्मत से भी गया गुजरा कैसे हो गया!
ऊपर की सारी बातों से निष्कर्ष निकालने को हर कोई स्वच्छंद है। रहा मैं, जब यहां तक आया हूं तो इसे भी प्रगट क्यों न कर दूं।
शासन हिंदी को अपने नागपाश से छोड़ना तो दूर, उसे ढीला तक न करेगा। क्योंकि एक तो इससे, कम से कम वर्तमान प्रशासन की दृष्टि में, ‘हिंदी’ भावुकता के स्तर पर, ‘हिंदू’ ‘हिंदुस्तान’ के तरन्नुम में आ गई- ‘हिंदी’ से, हर्रा लगे न फिटकरी, उसके अहं की तुष्टि होती है- देखो, हम हिंदी को आगे ले आ रहे हैं। उसके लिए भाषा या संप्रेषण का साधन न होकर हिंदी तीर्थयात्रा के समान गद्गद भावुकता है। दूसरे, शासन तंत्र में विराजमान वे लोग जो हिंदी को अपनी दमघोटू गिरफ्त में जकड़े हुए उसे (केंद्रीय संस्थान, विश्व हिंदी सम्मेलन की) गाफ़िल रखने वाली अफीम चाटते आ रहे हैं, वे इस रामबाण औषधि के प्रयोग से उसे छुटकारा न देंगे। इसे कहते हैं दो ढेले से एक शिकार!
बॉलीवुड ‘हिंदी’ के अपने धुआंधार प्रचार के धुएं के पीछे खालिस सोना तरियाता जाएगा! हिंदी विश्वकोश अब से एक सौ साल बाद भी अस्तित्व में न आएगा- क्योंकि हिंदी विश्वकोश को खोल कर देखने की जरूरत भला किसे होगी! जेम या कालिंस के जेबी कोश के आकार का हिंदी शब्दकोश भी न तैयार होगा, क्योंकि भाषा रूसी हो कि गुजराती, शब्दकोश गुल्लक में जमा चंद सिक्कों को झुनझुने की भांति बजा कर नहीं, प्रामाणिक पाठ वाली पुस्तकों से बनाया जाता है। न सही मोनियर विलियंस का संस्कृत कोश, सेठ का ‘पाइअ सद्द महण्णवो’ या लालस के ‘राजस्थानी शब्द कोश’ में उल्लिखित संदर्भ ग्रंथों की लंबी सूची पर एक नजर डाल लें! जापानी वर्णमाला में ‘अ’ अक्षर के बाद ‘आ’ है और इसी क्रम से शब्द भी जापानी शब्दकोशों में। इधर और अभी तक तो हिंदी के कोशों में यही निश्चित नहीं हो पाया है कि नागरी में ‘अ’ से अगला वर्ण ‘अं’ क्यों और किस तर्क से रखा जाता है!
हमारे दक्षिणात्य देशभाइयों ने उत्तर के हमवतनों की संकट की घड़ी में सदा आगे बढ़ कर उनकी रक्षा की है! पतंजलि ने पाणिनि की, आदि शंकर ने वीभत्स रूप धारण किए हुए बौद्ध धर्म के विरुद्ध चार दुर्गों के समान पीठों की स्थापना द्वारा- बल्लभाचार्य, रामानुज ने मथुरा और वाराणसी तक दौड़-धूप कर! इन दक्षिणात्यों की चौकीदारी चौकस बनी रहने तक इस ‘हिंदी’ को हम सब पर थोपा न जा सकेगा। इत्यलम्।
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