पुण्य प्रसून वाजपेयी
जनसत्ता 12 अक्तूबर, 2014: दिन में पहरा। रात में ताले। हाथों में पहचान-पत्र। मौत का खौफ। झेलम का प्रेम। डल झील की रूहानी हवा। डाउन-टाउन की निगाहों का शक। जेनाकदम और सफा कदम पुल की दास्तान। सेना की छाया। कब्रगाह की धूप। घाटी में ‘हैदर’ पहले भी था और आज भी है। पहले भी जिंदगी के साथ खड़ा होने का सुकून कश्मीरी पाले हुए था और आज भी जिंदगी की गरम हवा की आगोश में सब कुछ लुटाने को कश्मीरी तैयार हैं। यह आजादी का नारा नहीं, बल्कि कश्मीर का ऐसा सच है, जो नब्बे के दशक में खुले आसमान के नीचे गूंजा करता था। अब दिलों में जख्म भर रिसता रहता है।
दरअसल, फिल्म ‘हैदर’ झटके में उस अहसास को जगा देती है, जहां हालात कितने बदले हैं या फिर घाटी को देखने का नजरिया कितना बदला है या घाटी से संवाद भी सिनेमाई परदे के जरिए ही हो पा रहा है। क्योंकि कश्मीर को जीतने का ख्वाब धारा 370 के जरिए लाया जा चुका है। कश्मीरी पंडितों के लिए घाटी में जमीन की तालाश दिल्ली का सुकून बन चुकी है। इस्लामाबाद कश्मीर के जरिए अपनी सियासत संभालने का ख्वाब पालना चाहता है। पहली बार दुनिया के सियासी रंगमंच पर जनमत संग्रह का सवाल उठा कर पाकिस्तान अपने सियासी जख्मों पर मरहम लगाना चाहता है। और इन सबके बीच फिल्म ‘हैदर’ उस संवाद को जीवित करने की कोशिश करती है, जिसे दिल्ली की सियासी हवा में हर कोई भूल चुका था।
तो क्या ‘हैदर’ अबूझ पहेली बन कर ऐसे वक्त सामने आई है, जब झेलम के दर्द में डूबे कश्मीर से एक नए कश्मीर के निकलने का सपना हर कोई देख रहा था। हो सकता है, क्योंकि फ़ैज़ का ‘लाजिम है कि हम देखेंगे…’ का सपना गुनगुनाने का अब क्या अर्थ है। क्या मतलब है उस गजल को बार-बार गुनगुनाने का जिसके बोल हैं, चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले…। असल में ‘हैदर’ उस जख्म को हरा कर देती, जिसे झेलम का पानी भी डुबो नहीं पाया। पानी उतर रहा है, तो कब्रगाहों के पत्थर सतह पर आने लगे हैं। बर्फबारी में जो वादियां हसीन दिखाई देने लगती हैं, उनका रंग कितना लाल है, इस जख्म को भी ‘हैदर’ कश्मीरी कैनवास पर विशाल भारद्वाज की कूची से, ‘मैं हं कौन’ नाम के साथ उभार देती है। लेकिन कश्मीर का दर्द उसके अपने ‘हैदर’ में कैसे समाया हुआ है, इसे पहली बार रजत पटल पर दिखाने का साहस किया गया है।
हर जख्म के पीछे धोखा, फरेब होता है और कश्मीर इससे आजाद नहीं है। कौन किसका गुनाह सामने ला रहा है या गुनाह की परिभाषा ही हर किसी के लिए कितनी अलग-अलग होनी चाहिए, कश्मीर इससे बिल्कुल अलग नहीं है। सेना हो या सत्ता, आतंक हो या मानवता का चेहरा, सभी को अगर एक ही कश्मीर में रहना हो, तो फिर समाज कैसे बंटता है। रिश्तों में कैसे दरार आती है। सही कौन और गलत कौन। ये सारे सवाल ही जवाब बन कर उन जख्मों को दबा देते हैं, जिन्हें कुरेदने वाला ‘हैदर’ हो जाता है।
कश्मीर का सच रजत पटल के हैदर की तकलीफों से कई कोस आगे का है। दो हजार से ज्यादा कश्मीरी हैदर देश के अलग-अलग हिस्सों में हैं और तमाम बनती-बिगड़ती राहों के बीच भी हर हैदर के सामने मुश्किल यही है कि वह घाटी लौटे कैसे। जामिया हो या अलीगढ़। पुणे का सिंबोसिस हो या फिल्म इंस्टीट्यूट। हाइटेक बंगलुरु हो या गुड़गांव, कश्मीरी हैदर हर जगह हैं। बिखरे हुए हैं। उन्हें कोई लौटने को नहीं कहता और वे खुद घाटी लौट कर बारूद की गंध में जिंदगी जीने से कतराते हैं। लेकिन जो दिल में है वह सब ‘हैदर’ के सिनेमाई परदे का अनकहा सच है।
हिजबुल मुजाहिद्दीन में शामिल होकर बंदूक थामी जाए या सेना के लिए मुखबरी करके ईमानदार कश्मीर का रास्ता बनाया जाए। सत्ता पाकर न्याय करने का सपना दिखाया जाए या चुनाव जीत कर आई सत्ता को ठेंगा दिखा कर सड़क पर संघर्ष करते हुए खून बहाया जाए। घाटी का सच यही है कि कौन सही है, कौन गलत, इसके लिए सैकड़ों ‘हैदर’ चाहिए। क्योंकि नब्बे के दशक का हैदर अब डॉक्टर हिलाल मीर (फिल्म में भूमिका निभाने वाले नरेंद्र झा) की भूमिका में आ चुका है और हजारों हैदर घाटी लौटने से कतराते हैं। अर्शी की मासूमियत गायब हो चली है। श्रद्धा कपूर ने अर्शी की भूमिका को जिस अंदाज में जिया, उसने हर कश्मीरी को झकझोर जरूर दिया कि संघर्ष और जीने की जद्दोजहद में अर्शीया लुप्त हुई प्रजाति बन चुकी है। गजाला (हैदर की मां यानी तब्बू) अब फिदायीन बनने की हालत में नहीं है। रूहदार (आतंकवादी बने इरफान खान) को दिल्ली, सीमा पार पहुंचा चुकी है। या फिर वाकई घाटी में रूह बन कर खौफजदा कश्मीरियों के दर्द से हर क्षण रूबरू हो रहा है रूहदार। और खुर्रम यानी केके मेनन, जिसकी नजरें ही फरेब पैदा करती हैं, घाटी का नायाब सच है।
‘हैदर’ इसलिए देखी जानी चाहिए कि आतंक और खौफ के बीच दर्द का गीत गुनगुनाया जा सके- ‘गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले/ चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले…।
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