अपूर्वानंद
जनसत्ता 12 अक्तूबर, 2014: ‘एकतरफा, स्त्री विरोधी और अतिसरलीकृत सपाट दिमागी… रूपात्मक और सौंदर्यात्मक दृष्टि से भी ‘हैदर’ एक लचर और बोरिंग मसाला फिल्म है, जो बहुत लंबी खिंचती है।’
कायदे से दर्शन के युवा अध्येता ऋत्विक अग्रवाल की इस समीक्षा के बाद ‘हैदर’ के बारे में और कुछ नहीं कहना चाहिए। लेकिन ‘हैदर’ देख कर चुप रहना भी तो नैतिक नहीं।
दिल्ली के पीवीआर रिवोली सिनेमा हॉल में हैदर देखना यंत्रणादायक अनुभव था। हॉल में काफी कम दर्शक थे। ज्यादातर युवा थे। फिल्म शुरू हुई और कुछ देर आगे बढ़ी कि फुसफुसाहटें तेज होने लगीं। फिर वह दृश्य आया, जिसमें हैदर का चाचा उसकी मां के साथ ठिठोली कर रहा है। और किसी हास्यपूर्ण प्रसंग की प्रतीक्षा में बैठी जनता ने हंसना शुरू कर दिया। विशाल भारद्वाज ने सोचा होगा कि वे एक बहुत तनावपूर्ण दृश्य रच रहे हैं, जिसमें हैदर में हैमलेट की आत्मा प्रवेश करती है। जनता ने इसमें ‘कॉमिक रिलीफ’ खोज लिया। ध्यान रखिए, फिल्म में अभी कुछ देर पहले इस औरत के पति को फौज उठा ले गई है और उसका घर उड़ा दिया गया है! फिर तो जगह-जगह हंसी का फव्वारा फूट पड़ता था। चाहे सलमान खान के दीवाने दो सरकारी मुखबिरों का दृश्य हो या हैदर को प्यार करने वाली अर्शी का कश्मीरी उच्चारण! लोग जैसे हंसने के लिए तैयार बैठे थे और कोई मौका हाथ से जाने न देना चाहते थे। मैंने सोचा कि फिल्म आगे चल कर दर्शकों को शर्मिंदा कर देगी और खामोश भी। लेकिन वह न होना था, न हुआ। आखिरी हिस्से में जहां बर्फ पर कब्र खोदते हुए बूढ़े नाटकीय ढंग से गा रहे हैं, फिर हंसी छूट पड़ी। बिल्कुल अंत में जब इखवानियों और इन बूढ़ों के बीच गोलीबारी हो रही है, एक बूढ़ा उसी गीत को गाता है और हॉल में हंसी तैरने लगती है।
मुझे ‘पीपली लाइव’ देखना याद आ गया। वह मैंने बत्रा सिनेमा हॉल में देखी थी। वहां भी बात-बेबात हंसने को तैयार बैठे दर्शक थे।
हिंदी फिल्में किस तरह का दर्शक तैयार कर रही हैं, यह अलग अध्ययन का विषय है। यह बहुत साफ है कि पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में फिल्म देखने के अभ्यास को बदलने की जो चुनौती फिल्मकारों के एक हिस्से ने कबूल की थी, अब वह उनके लिए कोई जिम्मेवारी नहीं रह गई है। देखने के उसी प्रचलित तरीके में, बिना उसे विचलित किए, वे अपनी बात कहने की फांक खोज रही हैं।
विशाल भारद्वाज लेकिन सिर्फ दर्शकों से शिकायत नहीं कर सकते। उनकी फिल्म, अगर फिल्म बनाने के श्रम को ध्यान में रख कर रियायत बरती जाए तो कह सकते हैं, एक चालू मुंबइया फिल्मी मुहावरे में गंभीरता का बाना पहन कर एक लचर कहानी कहने की दयनीय कोशिश है। बात इस पर सिर्फ इसलिए करनी पड़ रही है कि इसने शेक्सपियर और कश्मीर, जैसे दो भारी-भरकम शब्दों पर सवारी गांठी है।
हैदर कलात्मक ईमानदारी से खाली फिल्म है। मसलन, कश्मीरी उच्चारण से हास्य पैदा करने का प्रयास सस्ती और ठेठ मुंबइया हिकमत है। पूछा जा सकता है कि यह उच्चारण सारे पात्रों का क्यों नहीं है और क्यों कुछ का ही है? और अर्शी की पढ़ाई ने क्यों उसकी जुबान साफ नहीं की? इसलिए कि वह एक दृश्य में ‘लवड’ के बाद ‘फकड’ बोल कर मल्टीप्लेक्स के दर्शकों को ‘फक्ड’ की याद दिला कर गुदगुदा सके? फिल्म के संवाद एक नकली, पनीली, कवियाई हुई हिंदी में गढ़े गए हैं। फिल्म जगह-जगह ‘लिरिकल’ होने की कोशिश करती है। और नाटकीय होने की भी। लेकिन जब मुंबई की आज की फिल्म-भाषा की संवेदना का सर्वोच्च प्रसून जोशी में व्यक्त हो तो उसके लिए दुआ ही की जा सकती है। एक सख्त राजनीतिक भाषा से अपरिचय के कारण संवादों से रूमानीपन टपकता रहता है और माहौल को लसलसा बना देता है।
‘हैदर’ के फिल्मकार को जहां बिल्कुल माफ नहीं किया जा सकता, वह है उनके स्त्री पात्रों का चरित्रांकन। कश्मीर में जिस औरत के पति को उसकी आंख के आगे हिंदुस्तानी फौज उठा ले जाए और उसका घर मिसाइल से तबाह कर दिया जाए, वह उसके फौरन बाद अपने देवर के घर उसका गाना सुनती दिखे, इससे फिल्मकार की निगाह अपना राज तो दे देती है। याद रहे, यह औरत स्कूल में पढ़ाती है और उसका जवान बेटा बाहर पढ़ रहा है। विशाल भारद्वाज यह भी भूल गए कि हिंदी सिनेमा पहली बार ‘आधी बेवा’ शब्द का उच्चारण इस फिल्म में कर रहा था। उसे बहुत जिम्मेदारी के साथ बोलने की जरूरत थी। विशाल भारद्वाज यहां पूरी तरह चूक गए। डॉक्टर मीर की बीवी अपने गुम शौहर की तलाश में नहीं भटकती, अपने तबाह घर का हिसाब नहीं मांगती, अपने पति के मुखबिर भाई के झांसे में आ जाती है!
इस फिल्म में सिर्फ दो स्त्री पात्र हैं। हैदर की स्कूल अध्यापिका मां और उसकी पत्रकार प्रेमिका। दोनों ही परले दर्जे की भोली दिखाई जाती हैं। जैसे कश्मीर में राजनीतिकरण सिर्फ मर्दों का होता है! हैदर की मां से एक पीढ़ी आगे की पत्रकार अर्शी, जो एक पुलिस वाले की बेटी है, इतनी मूर्ख है कि अपने बाप को अपने प्रेमी का राज दे बैठती है! हैदर की मां के भोलेपन का शिकार उसका शौहर होता है और अर्शी के भोलेपन के चलते हैदर मौत के मुंह में पहुंच जाता है!
किसी भी अच्छी हिंदी फिल्म की तरह इन दोनों औरतों को फिल्म के अंत में अपनी जान देकर प्रायश्चित करना होता है। इससे तो हजार गुना अच्छी मौत ‘माचिस’ फिल्म की नायिका की थी, तब्बू ही इत्तेफाक से जिसकी भूमिका निभा रही थीं।
अभिनय की बात छोड़ दें। यह मेरी समझ के बाहर है कि अभिनय के सारे पहचाने लटके-झटकों के बावजूद क्यों हमारे ‘समझदार’ दर्शक तब्बू, इरफान और केके मेनन पर लट््टू हैं। यह पक्ष तो और भी निराशाजनक है।
‘हैदर’ के पास मौका बड़ा था। वह हिंदी सिने-दर्शक को सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून, इखवान, आधी बेवा, दहशतगर्दी, आजादी से गुंथी भाषा में दीक्षित करने का था, जिनके बिना कश्मीर की कहानी कही नहीं जा सकती। मगर राजनीतिक समझ या साहस की कमी के चलते फिल्म सिर्फ शुरू से अंत तक एक ही शब्द बोलती रह जाती है: इंतकाम। यह एक मर्द बेटे की अपने बाप को धोखा देने वाली खूबसूरत मां और उसके प्रेमी से इंतकाम की कहानी बन गई।
अगर फिल्म में कश्मीर की खूबसूरती पर अलग से ध्यान जा रहा है तो वह अपने आप में इस फिल्म की सौंदर्यात्मक अक्षमता का प्रमाण है।
हिंदी सिनेमा को अभी कश्मीर पर फिल्म बनाने के लिए कुछ और इंतजार की जरूरत है। उसे भाषा सीखने की, राजनीति पक्की करने और सबसे बढ़ कर असंतुलन का साहस हासिल करने की जरूरत है।
फिल्म को अगर गैर-ईमानदार न कहना चाहें, तो नैतिक रूप से दुविधाग्रस्त जरूर कह सकते हैं।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta