हाल ही में आए सुधा अरोड़ा के कविता संग्रह कम से कम एक दरवाजा के कवर पर छपा है- ‘सातवें दशक की चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा की कविताएं’। इसे पढ़ते ही लगा कि गलती से सातवें दशक ‘की’ छप गया है, उसे सातवें दशक ‘से’ होना चाहिए था। सुधा अरोड़ा सातवें दशक से न केवल स्त्रियों के दुख को उधेड़ती कहानियां, स्तंभ और पटकथा आदि लिखती रही हैं, बल्कि वे स्त्रियों के मुद्दों पर सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं। उनका लेखन उनके काम से निरंतर समृद्ध हुआ है।

कम से कम एक दरवाजा सुधा अरोड़ा की कविताओं का पहला संकलन है। कविता लेखन के इस अलग अनुभव को उन्होंने शब्द दिया है- (जैसे) ‘हमेशा मृदंग बजाने वाला एकाएक सितार के तारों को साधने के लिए उंगलियों को तैयार करे..।’ अपने प्राक्कथन में उन्होंने कविता के संदर्भ में आमतौर पर प्रचलित एक बहुत महत्त्वपूर्ण समझ को रेखांकित किया है- ‘कविता में अपने लिए बहुत सारा निजी स्पेस होता है। कहानी की तरह निजता निषेध और आलेखों की तरह समाजशास्त्रीयता यहां गैर-जरूरी है।’ पर मेरा मानना है कि कविता लिखते समय भी इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जब तक कविता ‘आत्म’ की सीमाओं से निकल कर ‘पर’ के दायरे को भी उद्भासित नहीं कर लेती, वह साहित्य की श्रेणी में नहीं आती। कोई भी साहित्य परकाया प्रवेश के बिना संभव नहीं- नित नवीन अनुभवों को पाने और उन्हें बृहत्तर समाज में संप्रेषित करने के लिए। साहित्य आमतौर पर आत्म से पर और पर से आत्म तक का आवागमन है।

इस तरह भले ही सुधा अरोड़ा, कहानी और लेख की तुलना में कविता को निजी स्पेस की अभिव्यक्ति मानें, पर इस संकलन की कविताएं उनके खुद के निजी जीवन से परे बृहत्तर जीवन की रचनाएं हैं- चाहे वह ‘निर्भया’ पर लिखी कविता हो या नयना साहनी या प्रमोद त्रिवेदी पर या पर्यावरण पर ही। ये कविताएं स्त्रियों को व्यक्ति के रूप में देखने का आग्रह करने वाली कविताएं हैं। इसीलिए इनमें वे भाव भी शामिल हैं, जिनमें स्त्रियां अपने लिए परंपरा और समाज द्वारा, पितृसत्ता द्वारा नियत कर दिए गए जीवन से हट कर अपने लिए जीवन जीती हैं। ‘भरवां भिंडी और करेले’ इसी तरह की कविता है, पर सुधा बहुत ईमानदारी से सफल औरत की पीड़ा को भी संग ही व्यक्त कर देती हैं- ‘दिन में टीवी चैनलों को इंटरव्यू देती अकेली औरत…आंख बचा कर सूखते भिंडी और करेलों को हसरत से ताकती है’!

‘कम से कम एक दरवाजा’ की अधिकतर कविताएं स्त्री-केंद्रित हैं। इनका मुखर स्वर अकेली औरत की वेदना का स्वर है, चाहे वह युवा स्त्री के जीवन की जटिलताओं को लेकर हो या फिर मां की प्रतीक्षारत मूर्ति के रूप में, वह पति-प्रेमी द्वारा मार दी गई औरत हो या छोड़ दी गई स्त्री या फिर विधवा ही। दरअसल, वेदना अकेलेपन में फूटने वाला राग है। अगर साथ हो तो वेदना भी बंट जाती है, या दुख में सहारा बन जाती है। ‘दुख का सिरा’ कविता में बुआ अपने दुख को दूसरे के कष्ट से जोड़ कर जीवन जीने का सिरा खोज लेती है- ‘दूसरों के दुख ही बनते रहे उनके लिए पतवार/…/ आंसुओं के सिवा कोई भी नहीं था बुआ का हमसफर…।’ सुधा अरोड़ा की स्त्रियां कविता में भी अपने दुख के सिरे को नहीं छोड़ पातीं। बुआ का रोना क्या सिर्फ बुआ का रोना है, क्या वह उस बूढ़ी होती औरत के न दिखने वाले आंसुओं की कथा नहीं है जिसके जीवन की धूप तो कब की जा चुकी है, पर फिर भी जो पुरानी यादों को दुबारा जीती रहती है- दूसरों पर भार बनती हुई।

जिस कविता से संकलन का शीर्षक लिया गया है, उसकी कुछ पंक्तियों पर जरा गौर करें- ‘बेटियों को जब सारी दिशाएं बंद नजर आएं/ कम से कम एक दरवाजा खुला रहे उनके लिए’।
यह कविता यों तो अपने प्रेमियों के संग भाग गई लड़कियों पर है, जो लौटना चाहती हैं, मगर उनके लिए जात, धर्म, वर्ग या इज्जत के नाम पर मां-बाप अपने घर के दरवाजे सदा-सदा के लिए बंद कर देते हैं। पर जरा गौर करें तो यह कविता सभी बेटियों के लिए है, जो विवाह हो जाने के बाद किसी भी कारण दोबारा वापस लौटना चाहती हैं, जीवन को एक बार फिर शुरू करना चाहती हैं। आज भी क्या हमारा समाज तलाक को आसानी से स्वीकार कर लेता है। तलाक के बाद पुरुष तो पुनर्विवाह कर लेता है, पर औरत को अक्सर ही लांछनों का सामना करना पड़ता है। प्रेम-विवाह हो तो भी लड़की को मनबढ़ और बेहाथ हो गई कहेंगे और अगर किसी का तलाक होने और विवाह कामयाब न होने की हालत हो तो भी औरत जिम्मेदार! यहां तक कि वैधव्य के लिए भी उसकी बदनसीबी ही जिम्मेदार होती है! इसी संकलन में एक कविता है- ‘राखी बांध कर लौटती हुई बहन’- यह कविता दरअसल ‘कम से कम एक दरवाजा’ का ही विकास है। एक विधवा बहन के लिए घर का दरवाजा इसलिए बंद है कि कहीं वह संपत्ति में हक न मांग बैठे। विधवा बहन अपने मायके का दरवाजा खुला रखने और जब-तब त्योहार आदि में आ पाने के लिए पिता की संपत्ति पर अपने हक को छोड़ देती है। किसी भी औरत के लिए मायका होना और उसका दरवाजा खुला रखना बहुत मायने रखता है, वरना तो उसकी हालत गली के भिखमंगे या कुत्ते से बढ़ कर नहीं है।

स्त्रियों के बीच काम करने वाली सुधा अरोड़ा यह जानती हैं कि शब्द देश का कानून नहीं बदल सकते, पर वे यह भी जानती हैं कि शब्दों में ही वह ताकत भी है कि वह लोगों के दिमागों को बदल सके। इसीलिए वे अब आंसुओं से नहीं, आंख के लहू से अपनी बात कहने की हिमायती हैं। एक लड़की का पैदा होना दरअसल अपनी पिछली पीढ़ी से आगे की सोच को लेकर पैदा होना है। कुछ अनगढ़, कहीं-कहीं शब्द स्फीत युक्त ये कविताएं औरतों के बारे में बहुत कुछ बता जाती हैं।

सुधा अरोड़ा मां के प्रति बहुत कृतज्ञ हैं। यह मां की दी हुई कलम ही है, जिसे उन्होंने पीठ पर औजार की तरह डाल लिया है, हथियार बना लिया है- ‘ऐसी सहचरी को हाथ में थमाने के लिए मां का थोड़ा-सा शुक्रिया अदा करना चाहती हूं..’ और वे यह भी कह देना चाहती हैं कि ‘इसीलिए होती हैं मांएं धरती से बड़ी/ कि उपस्थित रहें और बोलती रहें बेलफ़्ज सहस्राब्दियों से अनपढ़े आख्यान की तरह..’

सुधा अरोड़ा की कविताएं सहस्राब्दियों से अनपढ़े स्त्री-आख्यान की कविताएं हैं।

सुमन केशरी

कम से कम एक दरवाजा: सुधा अरोड़ा; बोधि प्रकाशन, एफ-77, सेक्टर-9, रोड नं-11, करतारपुरा, बाईस गोदाम, जयपुर; 60 रुपए।

 

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