क्षमा शर्मा
‘किस ऑफ लव’ कोचीन से शुरू हुआ और कोलकाता, हैदराबाद, मुंबई, दिल्ली आदि स्थानों पर फैल गया। कोच्चि में एक जोड़े के साथ बदसलूकी के विरोध में यह अभियान शुरू हुआ था। सोशल साइट्स ने इसे बढ़ाने में खासी भूमिका निभाई। फेसबुक पर किसी ने लिखा- हंगामा है क्यों बरपा एक किस ही तो की है। लड़के-लड़कियां जमा होकर एक-दूसरे को चूमने लगे। गले मिलने लगे। कहने लगे कि हमारा यह अभियान उन लोगों के खिलाफ है, जो प्यार करने वालों को रोकते और इसे लव जिहाद का नाम देते हैं। दूसरी तरफ विरोध करने वाले कहने लगे कि इस तरह का व्यवहार हमारी संस्कृति के खिलाफ है। प्यार कोई सार्वजनिक प्रदर्शन की चीज नहीं है। पूछने वाले पूछ रहे हैं कि दो बालिग अगर अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करना चाहें तो आखिर इसमें गलत क्या है। और प्यार का सबसे कोमल प्रदर्शन अश्लील किस परिभाषा से हुआ! दरअसल, दोष हमारी नजर का होता है। वैसे भी अश्लीलता के दायरे में अकसर औरतों को रखा जाता है, वही इसके वार झेलती हैं। पुरुषों के लिए अश्लीलता की परिभाषा वह नहीं है, जो औरतों के लिए है।
1978 में जनता पार्टी के शासनकाल में जब लालकृष्ण आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे, उन दिनों तक फिल्मों में चुंबन दिखाने का चलन नहीं था। इसे दिखाने और दर्शकों को कयास लगाने के लिए प्रतीकों- मसलन, दो फूलों का एक दूसरे से हिलना-मिलना आदि दिखाया जाता था। उन्हीं दिनों आडवाणी से किसी ने फिल्मों में चुंबन के बारे में पूछा था। तब उन्होंने कहा था कि फिल्मों में चुंबन दिखाने में कोई बुराई नहीं है। तब से लगभग हर फिल्म में चुंबन का चलन शुरू हो गया। फिल्मकार इसे अपनी फिल्में बेचने का अचूक नुस्खा भी मानने लगे। आज हिंदू संगठनों से जुड़े लोग अगर इसका विरोध कर रहे हैं तो क्या हम यह मान लें कि ये स्वयं घोषित नैतिकता के ठेकेदार या कहें कि हुल्लड़बाज, आडवाणी से ज्यादा हिंदू हितों के रक्षक हैं! वे उनसे ज्यादा योग्य या उम्रदराज हैं। राम सेना के मुतालिक हो सकता है इन लोगों के आदर्श हों। ये जिसे भी आदर्श मानना चाहें, मान सकते हैं। ये सार्वजनिक तौर पर किसी को नहीं चूमना चाहते तो यह इनका फैसला है, मगर ये किसी और पर अपनी राय कैसे थोप सकते हैं।
इस अभियान में भाग लेने वाले कुछ लोगों ने बहुत अच्छी बात कही। कहा कि यहां रेप चल सकता है, किस नहीं चल सकता। खैर, जो लोग समर्थन में और जो विरोध में हैं उनकी आपस में तकरार होती रहेगी। ऐसा हमेशा होता है कि जब भी कोई घटना होती है, उसका विरोधी भी होता है। सौ प्रतिशत समर्थन कभी किसी बात को नहीं मिलता।
हमारे जीवन में एक चुंबन का क्या महत्त्व है। फ्रायड ने कहा है कि मां अपने बच्चे की पहली प्रेमिका होती है, क्योंकि वही उसका पहला चुंबन लेती है। यहां मां के चुंबन का वही अर्थ नहीं है, जो प्रेमी-प्रेमिका के चुंबन का हो सकता है। मां बड़े हो जाने पर, बहन किसी शुभ अवसर पर अपने भाई के माथे को चूमती है। पुराने ग्रथों में इसे माथा सूंघना कहा जाता था। दो दोस्त आपस में गले मिलते हैं, एक-दूसरे से गाल रगड़ कर प्रेम का प्रदर्शन करते हैं।
लेकिन प्रेमी-प्रेमिका के बीच चुंबन प्यार की उत्कटता और अटूट भावनात्मक लगाव का प्रतीक है। कहते हैं कि प्यार जितना निजी होगा, एकांतिक होगा, वह उतना ही प्रबल होगा। जो प्यार किसी को दिखाने के लिए किया जाए वह प्यार नहीं, प्रतियोगिता कहलाएगा। जब आप दूसरे को दिखाने के लिए किसी को चूमेंगे तो या तो आप जिसे दिखा रहे हैं उसमें ईर्ष्या पैदा करना चाहते हैं या प्रतिद्वंद्विता। दोनों ही बातें स्वस्थ रिश्ते के लिए ठीक नहीं मानी जातीं।
चूंकि प्यार दो लोगों के बीच का मामला है, इसलिए माना जाता है कि उसे सार्वजनिक न होकर दो लोगों के बीच में ही होना चाहिए। मगर कोई इसे सरेआम प्रदर्शित करना चाहे, तो उसकी मर्जी। दो लोगों की मर्जी को रोका भी नहीं जा सकता। ‘किस आॅफ लव’ अभियान में भाग लेने वालों ने यह भी कहा कि यह मोरल पुलिसिंग के खिलाफ एक प्रतिरोध है। हम किसी को गुपचुप चूमना चाहते हैं या सरेआम, यह हमारा मामला है। इसमें किसी तीसरे को कूदने की क्या जरूरत है। लेकिन युवाओं पर पहरेदारी करने के लिए हमेशा कोई संगठन या बूढ़े-बुजुर्ग नैतिकता के नाम पर उन्हें रोकते रहे हैं।नैतिकता की परिभाषाएं भी लोग अपने हिसाब से तय करते हैं। किसी के लिए जींस पहनना, मोबाइल पर बात करना नैतिकता के खिलाफ है, तो किसी के लिए बिकनी पहनना भी ठीक है।
हमारे समाज में इतने तरह के रीति-रिवाज, इतनी संस्कृतियां हैं कि एक ही तरह की संस्कृति की लाठी से सबको नहीं हांका जा सकता। जो भी ऐसा करने की कोशिश करते हैं, उन्हें देर-सवेर मुंह की खानी ही पड़ती है।
एक समय में किसी लड़की का दो चोटी बनाना बड़े-बुजुर्गों को पसंद नहीं आता था। क्योंकि उस समय की सभी मशहूर फिल्मी नायिकाएं दो चोटी बनाए दिखती थीं। घर के लोगों का मानना था कि फिल्मों का मतलब है, बच्चों का बिगड़ना। खासकर लड़कियों का बिगड़ना। हां धार्मिक फिल्में देखने की उन्हें छूट होती थी। चाहे इन फिल्मों में कितने ही कम कपड़े, प्रेम, प्रसंग, लटके-झटके और सेक्सी डांस नंबर ही क्यों न हों। धर्म के नाम पर घर के सब लोग इन्हें देख कर भी भक्ति भावना से हाथ जोड़ते दिखते थे।
समय के साथ नैतिकता की परिभाषा भी चलन और फैशन से तय होती है। आज दो चोटियां आउट आॅफ फैशन हैं। कोई लड़की अगर ऐसा कर भी ले तो किसी को उसके बिगड़ने और हाथ से निकल जाने का खतरा महसूस नहीं होता।
वैसे भी ‘किस आॅफ लव’ में नैतिकता के ठेकेदारों को सुनाते हुए कहा गया था- आइए गले मिलिए, हाथ मिलाइए और किस करिए। उन्होंने हमसे कैफे, पब, पार्क, गलियां और हमारे मोहल्ले छीन लिए हैं। और किस के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी गई है। फिर हम कहां जाएं। इस अभियान के विरोधियों का कहना था कि वे प्यार के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन इसे बंद कमरे में करना चाहिए।
वैसे भी अगर प्यार की परिभाषा देखें तो यह पांच चीजों से मिल कर बनती है- शब्द, स्पर्श, रूप, रंग, गंध। किसी का स्पर्श आपको बेसुध कर देता है। मात्र चुंबन से प्रेम की परम अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। चूमना उसका एक हिस्सा हो सकता है। भारत में चुंबन का सरेआम प्रदर्शन न होता हो, मगर यही वह देश है, जहां कामसूत्र जैसा ग्रंथ लिखा गया और शारीरिक संबंधों की विभिन्न मुद्राओं को खजुराहो में उकेर कर, उसे मंदिर का नाम दिया गया। क्या इस अभियान के विरोधी बताएंगे कि वे खजुराहो के मंदिरों का विरोध क्यों नहीं करते।
विदेशों में चुंबन या किस को अभिवादन का एक तरीका माना जाता है। वहां इसे सेक्स से जोड़ कर नहीं देखा जाता। हमारे यहां एक तरफ लोग अध्यात्म की दुहाई देते हैं और दूसरी तरफ हर चीज में अश्लीलता और सेक्स देखते हैं। यह हमारे दोहरेपन का प्रतीक है।
कुछ साल पहले जब पार्कों में बैठे जोड़ों को तंग किया जाता था, तो सरकार ने कहा था कि उनकी हिफाजत के लिए पुलिस बल तैनात किए जाएंगे। मगर आज इसका उलटा हो रहा है। नैतिकता सिखाने वाले स्वयंभू ठेकेदारों ने तय कर लिया है कि वे युवाओं को अपनी मर्जी से हांक कर रहेंगे। मगर न ऐसा कभी हो पाया है और न होगा।
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