वागीश शुक्ल
जनसत्ता 5 अक्तूबर, 2014: जाक देरीदा के देहत्याग को अब दस बरस हो रहे हैं- वे शनिवार 9 अक्तूबर, 2004 को तड़के पेरिस के एक अस्पताल में मरे। प्रिंसटन विश्वविद्यालय 9-11 अक्तूबर को एक संगोष्ठी उन पर आयोजित कर रहा है और उनका सम्मान करने वालों को यह जान कर अच्छा ही लगेगा कि उनकी मृत्यु के बाद के दशक में उन पर केंद्रित एक पूरी शोध-पत्रिका ‘देरीदा टुडे’ नाम से वर्ष में दो बार निकलती है और इसी नाम से एक अर्ध-वार्षिक संगोष्ठी भी नियमत: आयोजित होती है, जिसमें पूरी दुनिया के देरीदा-विद एकत्र होते हैं। यह भी जानने योग्य बात है कि उनके जीवनकाल में छपे पचास से ऊपर ग्रंथों के अलावा उनका अप्रकाशित किंतु सुव्यवस्थित लेखन, जो कोई चौदह हजार पृष्ठों में फैला हुआ है- सुरक्षित है और अनुमानत: कोई पचास पुस्तकों के रूप में अगले बीस बरसों में छप कर आ जाएगा, यानी देरीदा की कोई सौ किताबें हो जाएंगी। महाभारत के सौ उप-पर्वों की याद आना स्वाभाविक है।
देरीदा ने अपने अंतिम दिनों में कहा था कि ‘मेरे बाद कुछ बचेगा नहीं, सिवाय उसके जो (छप जाने के नाते) कॉपीराइट हो चुका है या कहीं पुस्तकालय में सुरक्षित है।’ मृत्यु उनकी सतत चिंता का विषय थी और शायद वे अपना मरणोत्तर जीवन अपने लिखे-बोले के भौतिक प्रलेखन में परिकल्पित करते थे, जिसके नाते वे अपना लिखा एक-एक पुर्जा संभाल कर रखते थे।
डेढ़ सौ संदूकों और पंद्रह बड़ी फाइलों में प्रलिखित जो संग्रह कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के इर्विन परिसर में सुरक्षित है, उसमें देरीदा की छात्रावस्था से लेकर सन 2000 तक का अप्रकाशित प्राय: वह सारा लेखन मौजूद है, जिसका संबंध उनके निजी जीवन से नहीं है। इस अनमोल सामग्री के वहां पहुंचने के कारण देरीदा हैं, जो अपनी यह बौद्धिक संपदा उस विश्वविद्यालय को 1990 के बाद निरंतर दान में पहुंचाते रहे। यहां ‘दान’ पर ध्यान दीजिए और इन तथ्यों को सामने रखिए कि ऐलॅन गिंसबर्ग का ऐसा ही संग्रह 1994 में नौ लाख अस्सी हजार डॉलर में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय ने खरीदा, सुसान सोन्टाग का ऐसा ही संकलन कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के लास एंजिल्स कैंपस ने 2002 में ग्यारह लाख डॉलर देकर खरीदा और आयन मैक एवन का ऐसा ही संग्रह आस्टिन स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय ने 2014 में बीस लाख डॉलर में खरीदा है।
और यह ‘समग्र अप्रकाशित देरीदा-लेखन’ नहीं है; बहुत कुछ और भी है, उसके बाद का और उसके पहले का, पर वह इस संग्रह में नहीं पहुंच सका है। और उसके वहां न पहुंचने का भी कारण देरीदा ही हैं।
शुरुआत यहां से कि इर्विन के एक प्रोफेसर कुजुंजिक पर उनकी एक छात्रा ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था, जिसकी विश्वविद्यालय ने जांच की और पाया कि यह आपसी सहमति से बनी यौन-मैत्री थी, किंतु चूंकि विश्वविद्यालय ने एक नियम यह बना रखा था कि ‘अध्यापक और छात्र आपस में प्रेम नहीं करेंगे’ अत: कुजुंजिक साहब को कुछ दंड दिया गया। उधर अदालत में भी मुकदमा दायर था, जिसका इस समझौते पर हल निकला कि एक लाख डॉलर का हर्जाना दिया जाए, जिसमें से कुजुंजिक बीस हजार डॉलर दें। यह समझौता अगस्त 2004 में हुआ और इसके थोड़ा पहले कुजुंजिक साहब देरीदा के पास मदद के लिए गुहार लगा चुके थे। देरीदा से उनकी कोई ऐसी निकटता तो नहीं बताई जाती कि ग्राह=विश्वविद्यालय, कुजुंजिक=गज, देरीदा=विष्णु के समीकरण बनें, किंतु स्वांग कुछ गजेंद्र मोक्ष का ही मंच पर उतरा, अंतर यह था कि विष्णु का बल क्षीण नहीं था, जबकि देरीदा बीमार थे। तो अपनी मृत्यु के ढाई महीने पहले, 25 जुलाई, 2004 को देरीदा ने इर्विन के चांसलर को एक पत्र भेजा, जिसका सारांश यह था कि अगर कुजुंजिक के खिलाफ चल रही कार्रवाई को विश्वविद्यालय तत्काल नहीं रोकता, तो देरीदा अपना संबंध विश्वविद्यालय से हमेशा के लिए तोड़ लेंगे। चांसलर महोदय को मालूम होगा कि देरीदा मर ही रहे हैं, तो आगे संबंध वैसे भी टूटने हैं, सो उन्होंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
थोड़ा और पहले से चलें। अप्रैल 2003 में देरीदा की पत्नी बहुत बीमार थीं, इतनी कि देरीदा अमेरिका में अपना अध्यापन सत्र बीच में छोड़ कर फ्रांस आए। पत्नी की डॉक्टरी जांच चल रही थी, लगे हाथ देरीदा ने भी अपने ‘पेट में भारीपन’ की शिकायत डॉक्टर के सामने रखी। जांच हुई और पाया गया कि अग्न्याशय (पेन्क्रियाज) में कैंसर है। तत्काल केमोथेरापी का आग्रह किया गया, किंतु देरीदा ने दस दिन और मांगे, जिससे कि वे अपने प्रतिश्रुत कार्यक्रम पूरे कर सकें, इनमें एक इजराइल यात्रा भी थी, जहां उन्हें सम्मानित किया जाना था। कुछ अनिवार्य व्यवधान पड़ते रहने के बावजूद, देरीदा जीतोड़ काम करते रहे और मृत्यु के दो महीने पहले अपने जीवन का अंतिम सार्वजनिक भाषण उन्होंने ब्राजील में दिया था, जिसमें वे तीन घंटे लगातार बोले और फिर यह कहते हुए रुके कि ‘कहने को अभी बहुत कुछ है, किंतु मैं आप लोगों को थकाना नहीं चाहता।’
हममें से कई हैं, जिन्होंने उनके भाषण सुने हैं और 1997 में उनकी भारत-यात्रा के समय के चार-चार घंटे चलने वाले एकल भाषण-सत्रों के दौरान थकावट महसूस करते हुए अपने यहां के पचीसवें मिनट पर कुछ न कहने के लिए शब्दों की तलाश करते हुए बुद्धिजीवियों से उनकी तुलना भी की है- ऐसे हम सबको इस बात में केवल इतना ही आश्चर्यजनक लगेगा कि वे कैंसर की मानसिक और शारीरिक यातना झेलते हुए भी ऐसा कर सकते थे। उनके आखिरी दिनों का एक वाक्य है, जो फ्रांसीसी मूल से दोतरफा अनूदित हो सकता है: 1- मैं मौत की ओर दौड़ रहा हूं। और 2- मैं मौत पर दौड़ रहा हूं। (जैसे कि इंजन पेट्रोल पर दौड़ता है)। वे लगभग आदतन श्लेष में बोलने-लिखने के लिए बदनाम थे, किंतु उन श्लिष्ट प्रयोगों में कितना ठोस सच देदीप्यमान था, इसे इस एक वाक्य से ही समझा जा सकता है। उनका कहा सच उनके शब्दालंकारों से बिलगाया नहीं जा सकता, पर बहुत कम बौद्धिक ऐसे हैं, जिनकी करनी और कथनी में इतना पारदर्शी परस्पर है।
कथनी-करनी के इसी परस्पर की यह शायद आखिरी जांच थी। इसके पहले पाल डि मान और फिर हाइडेगर के पक्ष में बोलने के नाते देरीदा नाजी-समर्थक होने का अपयश कमा चुके थे और इस प्रकार ‘दोस्ती’ और ‘जवाबदेही’ पर अपने प्रचुर लेखन की कसौटी पर कसे जा चुके थे। इस बार उनकी लड़ाई को मौत के बाद भी जारी रहना था। एक मुकदमा ठोंका, जिसमें देरीदा के बचे-खुचे कागजात सौंप देने की मांग के अलावा उस पांच लाख डॉलर की रकम का भी दावा था, जो इर्विन के कथनानुसार देरीदा के संग्रह की कैटलागिंग में तब तक खर्च हुए थे। इस मुकदमे में प्रतिपक्ष के रूप में न केवल देरीदा की विधवा और उनके दोनों पुत्र शामिल किए गए थे, बल्कि देरीदा के एक अन्य पुत्र का भी नाम था, जिन्हें उनकी एक मित्र ने जन्म दिया था। (इन मित्र ने बाद में एक राजनेता से विवाह किया, जो फ्रांस के प्रधानमंत्री भी रहे)। कुछ मास्टरों ने इस पर थोड़ा गुलगपाड़ा मचाया, जिससे शायद विश्वविद्यालय को यह समझ में आया कि उसकी बदनामी हो रही है और मुकदमा वापस ले लिया गया। इसलिए बचा-खुचा देरीदा-लेखन इर्विन को न मिला।
यहां कुछ सवाल खड़े किए जा सकते हैं। 1982 की एक घटना को याद करने से शुरू करते हैं- चेकोस्लोवाकिया के असंतुष्टों के समर्थन में भाषण देने के लिए देरीदा एक बार चोरी से उस देश में घुसे और गिरफ्तार किए गए, मगर उन पर जुर्म जो दर्ज हुआ वह मादक द्रव्य की तस्करी का था। वे फिर मितरां के कहने पर छोड़े गए, लेकिन यह मितरां और हुसाक के बीच के तराजू का कमाल था, जिसमें देरीदा को जबरदस्ती तोलना नासमझी है। पर यह महत्त्वपूर्ण है कि जिस तलाशी में पुलिस ने उनके खिलाफ सबूत जुटाया, उसमें देरीदा का यह मानना था कि उनकी किसी पांडुलिपि को खोजा जा रहा है। वे यह भूल रहे थे कि ताकतों की सीमा होती है, मितरां भी हुसाक को देरीदा की उस चिट्ठी का जवाब देने के लिए विवश नहीं कर पाए थे, जिसमें देरीदा ने चाहा था कि हुसाक उनसे क्षमा मांगें। ऐसी ही नासमझी इर्विन को धमकी देकर उन्होंने की। देरीदा को लगता था कि उनके बोले-लिखे में वजन है और इसकी कद्र की जाएगी।
यह वजन का भरम, यह कद्र की चाहत एक विवशता को भी बताते हैं। कहा जाता है कि छत्रसाल ने भूषण की पालकी में कंधा लगा दिया था, पर इससे दुनिया का चलन नहीं बदलता। फिर कोई लेखक, कोई विचारक, कैसे अपनी बात मनवा सकता है? मुझे नहीं लगता कि उसके पास एक सामान्य नागरिक से अधिक कोई भी ताकत है। दुनिया को बदलने के रास्ते कुछ होंगे, किंतु उनके दरवाजे कलम की दस्तक से नहीं खुलते।
पर एक मसि-जीवी कुछ खिलवाड़ जरूर कर सकता है। मैं कुछ वाक्य लिखता हूं। देरीदा लिखित को मौखिक का पूर्ववर्ती मानते थे। देरीदा ने चाहा था कि उनकी देह को तत्काल न दफनाया जाए, कुछ ठहर कर देख लिया जाए कि क्या देह का पुनरुत्थान (रिसरेक्शन) होता है। देरीदा की सौ किताबें हैं। महाभारत के सौ उप-पर्व हैं। भारतीय मन में देह वह वस्त्र है, जिसे आत्मा पहनती है। गालिब के अनुसार कविसमय है कि फरियादी कागज के कपड़े पहनाता है। मैं इन सभी वाक्यों को मिलाता हूं और कल्पना करता हूं कि देरीदा की आत्मा के कागजी कपड़े संदूकों में से निकल रहे हैं और व्यास के ही शब्दों में उनकी आत्मा फरियाद कर रही है, ‘मैं बांह उठाए चिल्ला रही हूं, किंतु कोई सुनता ही नहीं।’
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