अशोक वाजपेयी
जनसत्ता 5 अक्तूबर, 2014: मुक्तिबोध पर इधर व्यापक रूप से विचार-पुनर्विचार होना शुरू हुआ है और दिल्ली, रायपुर के अलावा इलाहाबाद, बनारस, भोपाल, पटना आदि में आयोजन होने की खबर है। इस अवसर पर रायपुर में बरसों से चुपचाप सक्रिय वरिष्ठ आलोचक राजेंद्र मिश्र ने मुक्तिबोध पर अब तक हुए विमर्श के दो संचयन प्रकाशित किए हैं: ‘तिमिर में झरता समय’ (वाणी प्रकाशन) और ‘छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध’ (राजकमल प्रकाशन)।
इन्हें देखने से दो-चार बातें स्पष्ट होती हैं। पहली तो यह कि भले मुक्तिबोध की एक विचारधारा-विशेष में आस्था थी, उनके साहित्य और विचारों पर उनके वैचारिक विरोधियों ने भी खुल कर विचार किया है और उन्हें महत्त्वपूर्ण और मूर्धन्य लेखक माना है। दूसरी यह कि इस व्यापक विमर्श में मुक्तिबोध के कुछ अंतर्विरोधों और विडंबनाओं को स्पष्ट किया गया है: जैसा प्रश्नांकन मुक्तिबोध करते थे, मसलन प्रसाद का, वैसा ही प्रश्नांकन उनका भी किया गया है। तीसरी यह कि भले मुक्तिबोध जिस विचारधारा से प्रतिबद्ध हैं वह शिथिल पड़ गई है, उन्होंने अपनी ईमानदार बेचैनी और आत्मनिर्मम आलोचना से जो सच्चाई खोजी-विन्यस्त की, वह अब भी प्रासंगिक और रोशन बनी हुई है। चौथी यह कि मुक्तिबोध की सारी उपलब्धि हिंदी के बड़े साहित्य केंद्रों से दूर रह कर संभव हुई और वह इसका सत्यापन करती है कि हिंदी बहुकेंद्रिक है।
हो सकता है कि इन संचयनों में कुछ महत्त्वपूर्ण शामिल किए जाने से छूट गया हो, हालांकि संपादक राजेंद्र मिश्र ने चयन उचित उदारता और मेहनत से किया है। पर जो सामग्री एकत्र की गई है वह निश्चय ही मुक्तिबोध को समझने में बहुत मददगार है, इसमें संदेह नहीं। मुझे याद आता है कि भोपाल में 1980 में आयोजित ‘मुक्तिबोध प्रसंग’ में निर्मल वर्मा का निबंध ‘मुक्तिबोध की गद्यकथा’ जो पहले चयन में शामिल किया गया है। उसमें निर्मलजी ने लिखा: ‘‘…एक जगह वह लिखते हैं, ‘साहित्य में प्रकाश ही प्रकाश है। किंतु हमें प्रकाश में सत्यों को ढूंढ़ना है। हम केवल साहित्यिक दुनिया में ही नहीं, वास्तविक जीवन में रहते हैं। इस जगत में रहते हैं। साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा रखना मूर्खता है।’’
निर्मल प्रश्न उठाते हैं: ‘‘यदि किसी लेखक के लिए साहित्य ही सब कुछ था तो वह स्वयं मुक्तिबोध थे- फिर क्या सत्य और साहित्य के बाहर ढूंढ़ा जा सकता है? यह मुक्तिबोध का सबसे गहरा- और शायद कभी न हल होने वाला अंतर्द्वंद्व था कि एक तरफ वह मनुष्य की कल्पनाशक्ति में अदम्य आस्था रखते थे, दूसरी तरफ इसी कल्पनाशक्ति से सृजित कलाकृति की स्वायत्त सत्ता, स्वयं कलात्मक अनुभव के सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते थे। उसे स्वीकार करने का मतलब होता, मनुष्य के स्वतंत्र आत्मसंपूर्ण अनुभव में विश्वास करना, जो किसी भी विश्वदृष्टि को, किसी भी केंद्रीय सत्य को ठुकरा कर अपने निजी संसार के विजन को रचने का साहस कर सकना है। स्वयं मुक्तिबोध अपनी कविता के सर्वोत्तम सृजनात्मक क्षणों में यही करते हैं… कभी-कभी हम यह भी तय नहीं कर पाते कि स्वयं मुक्तिबोध किसके साथ हैं, अक्सर वह अपनी आस्था को छोड़ कर अपनी अंधेरी-पीड़ित शंकाओं के साथ चलने लगते हैं और तब ऐसे क्षणों में मुझे उनका यह वाक्य याद आने लगता है, ‘सच्चा लेखक अपने खुद का दुश्मन होता है’। एक जगह वह अपनी डायरी में लिखते हैं, ‘वह अपनी आत्मशांति को मंगल करके ही लेखक बना रह सकता है… वह अपने खुद का सबसे बड़ा आलोचक होता है’।’’
प्रमोद वर्मा का यह उद्धरण राजेंद्र मिश्र ने उन पर मुक्तिबोध के सहचर के रूप में लिखे लेख में दिया है: ‘‘अज्ञेय और मुक्तिबोध एक-दूसरे के विलोम माने जाते हैं, जबकि वस्तुत: ये दोनों कबीर और तुलसी, निराला और प्रसाद की तरह काव्य की दो समानांतर प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। समानांतरता विशेषत: साहित्य में, परस्पर विरोधी न होकर, एक-दूसरे की पूरक होती है।’’ प्रमोदजी मुक्तिबोध के निकट रहे थे। छत्तीसगढ़ वाले संचयन में मुक्तिबोध की कुछ रचनाएं भी संकलित हैं, उनकी बड़ी कविता ‘अंधेरे में’ को मिला कर।
आत्मज्ञान की उलझनें
भारतीय आधुनिकता को लेकर विवाद उसकी शुरुआत से ही उठते रहे हैं: कह सकते हैं कि इन विवादों की भी एक आधुनिक परंपरा बन गई है। अधिकांश विवादों का सार यह रहा है कि अधिकांशत: पश्चिम-प्रेरित होने के कारण आधुनिकता ने भारत की अपनी ज्ञान और दर्शन की परंपरा को अवमूल्यित और अपदस्थ किया, इस हद तक कि हम स्वयं अपने को पश्चिम की आंखोें से देखने-परखने लगे; हमारा आत्मबोध और आत्मज्ञान दोनों बहुत शिथिल पड़ गए; हमारी जातीय स्मृति धूमिल हो गई; हमारी संस्थाओं और आस्थाओं की भयानक दुर्व्याख्याएं की गर्इं और उनका वर्चस्व स्थापित हो गया; लगभग व्यवस्थित ढंग से हमारे चिंतकों, शिक्षा-व्यवस्था आदि ने हमें अपने आत्मबोध के अर्जन से विरत किया और स्वयं अपने को आत्मज्ञान से वंचित करते रहे। इसके बरक्स इस पर इसरार किया जाता रहा है कि हमारे पास ज्ञान-विज्ञान सब कुछ विपुल मात्रा में था; उसको ठीक से समझ-गुन कर अपनी आज की जरूरतों और बेचैनियों के लिए उसका सदुपयोग हो सकता है। हमारी परंपरा, वर्णाश्रम और जाति-व्यवस्था आदि का पूरा मानवीय औचित्य रहा है, जिसे हम भूल गए हैं: पवित्रता, शुचिता आदि की पारंपरिक अवधारणाएं संदेह से परे हैं और भारतीय समाज के सर्वथा उपयुक्त रही हैं। मानवीय संबंधों की भारतीय जटिलताओं और सूक्ष्मताओं को हमारे यहां संबोधित किया गया था और वे संबोधन आज भी काम के हैं। अगर हम अपने समाज को कई अर्थों में ठीक से समझने में असमर्थ हैं तो इसका कारण इस तृणमूल ज्ञान से बेखबर होना है और जो सदियों से इस समाज को नियमित-रूपायित करता आया है। कहना न होगा कि ऊपर जिन स्थापनाओं का विवरण हैं वे लगभग सभी तरह-तरह से किए गए सामान्यीकरण हैं, जिनमें कुछ न कुछ वांछित-अवांछित सरलीकरण भी निहित हैं।
आत्मबोध के अभाव को हमारे कई आधुनिकों, जिनमें गांधी, रवींद्रनाथ, श्रीअरविंद, राममनोहर लोहिया आदि ने भी परिलक्षित किया है और उनकी बौद्धिक और वैचारिक कोशिश हमें औपनिवेशिक जहनियत से मुक्त करने की रही है। कुल मिला कर अपने अनेक गंभीर मतभेदों के बावजूद इन आधुनिकों ने भारतीय आधुनिकता के अंदर सक्रिय रह कर भी आत्मालोचना का स्पेस बनाया और पोसा। यह स्पेस आजादी के पहले विकसित हुआ था और पिछले पचासेक वर्षों में बढ़ता और सशक्त होता रहा है। यह कहना कठिन है कि पारंपरिक आत्मज्ञान पर अपनी सारी सजग आस्था निछावर करने वाले पक्ष ने ऐसा आत्मालोचक स्पेस बनाया है। अगर आज कोई कहे कि हमारी परंपरा में सब कुछ था और हमें कहीं और से कुछ लेने-समझने की कोई दरकार नहीं थी तो इसे मानना कठिन है। हम आधुनिक बनाए भर नहीं गए हैं, हम आधुनिक, जैसे भी अच्छे-बुरे, बने हैं: इसमें आत्मप्रयत्न की भी भूमिका है। यह मानने का कोई स्पष्ट या अकाट्य आधार नहीं है कि स्वयं परंपरा और उसके कई अभिप्रायों को समझने में हमें इस आधुनिकता से मदद नहीं मिली है। यह भी कि जैसे परंपरा में कई परिवर्तन और परिवर्द्धन, संशोधन और विकृतियां होते रहे हैं वैसे ही आधुनिकता में भी। न तो परंपरा कभी नीरंध्र थी, न आधुनिकता नीरंध्र है। बेहतर तो यह होगा कि हम आधुनिकता को परंपरा के जरूरी विस्तार की तरह देखें। अलबत्ता उसमें घर कर गई रूढ़ियों और नासमझी पर प्रहार होना ही चाहिए।
परंपरा की व्याख्या में सबसे बड़ा मतभेद उसकी बहुलता पर बल देने वाली व्याख्या को लेकर है। धर्म, भाषा, जाति, आचार-व्यवहार, भोजन, वेशभूषा, जलवायु आदि की जो स्पष्ट और सदियों से प्रकट बहुलता है उसे आसानी से किसी एक विश्वदृष्टि में एकीकृत नहीं किया जा सकता। कम से कम किसी बौद्धिक या विचारक ने ऐसा करिश्मा करके दिखाया तो नहीं है। ऐसा मानने वाले यह अक्सर भूल जाते हैं कि ‘एक धर्म-एक भाषा-एक राष्ट्र’ की अवधारणा आधुनिक पश्चिम से ही आई है और उसे भारत पर लादने की कोशिश परंपरा से विरत होना है।
तर्क तो यह भी दिया जा सकता है कि अगर परंपरा में बहुलता की ऐसी व्याप्ति और मान्यता नहीं भी थी तो अब उसकी केंद्रीयता से इनकार नहीं किया जा सकता। आधुनिक भारतीय समाज को व्यापक हिंसा, असहिष्णुता और अराजकता से बहुलता का सहज स्वीकार ही बचा सकता है। अब हम किसी शुद्ध-अक्षत-पवित्र अतीत में वापस नहीं जा सकते: अव्वल शायद ही कभी ऐसा अतीत रहा हो; दूसरे, अब वह हमारे किसी काम का नहीं हो सकता। जातीय स्मृति वर्तमान होकर ही सार्थक हो सकती है, अतीत या व्यतीत का संस्करण बन कर नहीं।
किसी भी ज्ञान को दंभ-दर्प से बचना चाहिए। इस आत्मविश्वास से भी कि उसे सब कुछ मालूम है। आत्मज्ञान को तो और भी। उसे फतवे देने का हक नहीं है: ज्ञानी, आत्मज्ञानी, अज्ञानी, राजनेता, धर्मगुरु आदि किसी को अधिकार नहीं है कि वह फतवे और फैसले दे। हम अपनी आस्था पर टिके रहें, पर दूसरों की आस्थाओं को, बिना तर्क और तथ्य के, खारिज करने का हमें हक नहीं हो सकता। कम से कम साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में तो सच्चाई यही है कि हम सच लिखते या सच लिखने की कोशिश करते हैं, लेकिन उसके सच होने पर संदेह भी करते हैं। आधुनिक आस्था अपने को संदेहातीत नहीं मानती-गिनती। जो अपने पर संदेह करे उसे ही हक है कि कभी-कभार दूसरों पर संदेह करे।
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