आदर्श सक्सेना
जनसत्ता 9 नवंबर, 2014: आत्मकथा लेखन की अनेक चुनौतियां हैं। उन्हीं चुनौतियों को ध्यान में रख कर हरदर्शन सहगल ने अपनी आत्मकथा डगर डगर पर मगर के शुरू में ही कह दिया है कि ‘जीवन जैसे दुरूह विषय पर मैं लिखने बैठ तो गया, जो मेरी औकात में नहीं है। इसलिए कुछ भी सिलसिलेवार नहीं लिख पाऊंगा।’ इस प्रकार संयोग, प्रारब्ध और ईश्वर की मर्जी से निर्देशित-नियंत्रित अपने जीवन से संबंधित चुनिंदा यादों, जीवन संघर्षों, आशाओं, उपलब्धियों, हताशाओं आदि से संबंधित जानकारियां और तथ्यपरक सामग्री इस पुस्तक का कथ्य है। उस सामग्री का टुकड़ों-टुकड़ों में, बेतरतीब ढंग से प्रस्तुत किया जाना इसका शिल्प है। साथ ही साहित्यिक सरोकारों का इस कथ्य और शिल्प से जोड़ दिया जाना वह इष्ट है, जिसकी पूर्ति यह आत्मकथा प्रकारांतर से करती है।
तथ्यात्मक सामग्री विस्तार से और सहगल की टिप्पणियों के साथ छह डायरियों- पिताजी की उर्दू डायरी, चचेरे भाई के दस्तावेज, बड़े भाई की बातों से संबंधित संस्मरण, मधुरेश के पत्रों और लेखों के रूप में तैयार माल उन्हें उपलब्ध था, इसलिए तारीखों सहित विवरण वे दे सके कि कब क्या कहां घटित हुआ। तीन वर्ष दो माह की लेखक की उम्र में पिता की सक्खर से बदली, अंबाला से मालगाड़ी में बैठ कर दोपहर में मुरादाबाद पहुंचने, सत्रह वर्ष की उम्र में जेबखर्च की बचत से खरीदी गई साइकिल, बरेली के क्वार्टर में हैंडपंप लगवाने आदि की बात वे लिख सके। इस प्रकार यह आत्मकथा छब्बीस फरवरी, 1935 में कुंदिया जिला मियांवाली में जन्म से लेकर अपने पुश्तैनी गांव करोड़ लालीसन, शेखूपुरा, पेशावर आदि में जीवन बिताने और विभाजन की पीड़ा भोगते हुए अंबाला, बरेली होते हुए बीकानेर आने और वहां 2010 तक के जीवन में घटी घटनाओं का पारिवारिक और सामाजिक संदर्भों की पृष्ठभूमि में तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत करती है।
हालांकि ऐसी घटनाएं आमतौर पर सभी के जीवन में घटती हैं, पर किसी-किसी के जीवन की घटनाएं इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं कि वह उन्हें विशेष संदर्भ देने के लिए विशेष तरीके से नियोजित करता है। इसलिए नेताओं, योद्धाओं, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, समाजसेवियों आदि की आत्मकथाएं अलग प्रकार की हो जाती हैं। हरदर्शन सहगल की आत्मकथा एक साहित्यकार के जीवन को लेखन, लेखकों की प्रकृति और साहित्य की गति (या दुर्गति) के संदर्भ में प्रस्तुत करती है। इस प्रकार साहित्यिक सरोकारों से जुड़ती है।
सहगल ने अपने जीवन की घटनाओं को बेतरतीब, सिलसिलाहीन टुकड़ों में प्रस्तुत करने की जो शैली अपनाई, उससे उन्हें विषय और क्रम की चिंता किए बिना अपने ढंग से बात कहने की छूट मिल गई है। इस शैली की सफलता इस बात में है कि यह पाठक को बिना खीज भरी प्रतिक्रिया के पढ़ते जाने को प्रेरित किए रहती है।
इस किस्सागोई शैली का लाभ उन्हें यह तो मिला ही कि जीवन की घटनाओं को अपनी तरह से कहने की छूट मिल गई, साथ ही सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक विसंगतियों पर भी अपनी तरह से टिप्पणी करने में सहूलियत हुई।
इस किताब की बड़ी विशेषता साहित्यिक सरोकार हैं। सहगल ने लिखा है- ‘मैं अपने जीवन की छोटी से छोटी घटना को साहित्य-लेखन के अंग के रूप में देखता हूं। वही सब प्रत्यक्ष नहीं, तो परोक्ष रूप से मेरे लेखन में कहीं न कहीं मौजूद है।’ आत्मकथा में स्वाभिमानी, संघर्षशील और अपने सिद्धांत पर अड़ जाने वाले जिस हरदर्शन लाल सहगल से परिचय होता है, वैसा ही उनके साहित्यकार के रूप में आत्मकथा के उत्तर भाग में भी प्राप्त होता है, जो उन्हें उन साहित्यकारों से अलग करता है, जिनके जीने और साहित्य-लेखन का ढंग और सिद्धांत अलग-अलग होते हैं। सहगल की साहित्यकार के रूप में ऐसी ही ईमानदारी उस पीड़ा का कारण बनी, जिसका विस्तृत विवरण विशिष्ट नामों और यथार्थ घटनाओं के साथ उन्होंने आत्मकथा के उत्तर भाग में दिया है।
सहगल ने साहित्य जगत में व्याप्त आपाधापी, संपादकों-प्रकाशकों, बड़े लेखकों के अहं, गुटबंदी और बड़े शहरों, बड़े प्रकाशकों के बल पर महान लेखक बन जाने की सच्चाई उजागर की है। इसी संदर्भ में राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर की साहित्यिकता की प्रकृति को भी उन्होंने स्पष्ट किया है। स्थानीय साहित्यकारों के प्रति भी उनका क्षोभ उचित है कि चूंकि वे बीकानेर के नहीं माने जाते, न बीकानेर के किसी समाज-विशेष से संबंधित हैं, उठा-पटक और गुटबाजी भी नहीं जानते और न ही किसी विशेष ‘वाद’ वाली मानसिकता से तालमेल बिठा पाते हैं, इसलिए उन्हें उस साहित्यिक पहचान से वंचित रह जाना पड़ता है, जिसे अनेक अपात्र भी साहित्यिक राजनीति से प्राप्त कर लेते हैं। लेखन, छपन, चर्चन के नुस्खे भी उन्होंने बता दिए हैं।
साहित्य और लेखन से संबंधित ऐसी टिप्पणियां इस आत्मकथा में बिखरी पड़ी हैं, जिन्हें सहज स्वीकार किया जा सकता है, पर जब उनके साथ विशिष्ट नामों और घटनाओं के संदर्भ जोड़ दिए जाते हैं, तब उनके प्रस्तुतिकरण के औचित्य का प्रश्न उत्पन्न हो जाता है। इस संदर्भ में उन्हें सचेत भी किया जाता रहा है- ‘अपनी आपबीती लिखो, दूसरों को लपेटे में क्यों लेते हो।’ पर बात सिर्फ लपेटे में लेने की नहीं है। वे ‘बिना समाज के अपने अस्तित्व की असंभावना’ की दुहाई देकर अपने ढंग की वकालत करने लगते हैं। यही नहीं, अपने अस्तित्व को साहित्य सृजन की विवशता से जोड़ कर स्पष्ट करते हैं कि साहित्य रचना उनके लिए सांस लेने जैसी आवश्यक क्रिया है। पर आत्मकथा में उसकी उपयुक्तता पर उनके मन में भी संशय है, जिसके निवारण के लिए वे स्पष्टीकरण देते हैं- ‘हो सकता है, यह अध्याय जीवनी जैसी विधा में अनावश्यक लगे, पर ये तमाम चीजें मेरी जिंदगी के साहित्यिक सरोकारों से गहरा रिश्ता रखती हैं।’
सहगल का यह स्वीकार इस आत्मकथा की प्रकृति का निर्धारण कर देता है। यह भी प्रमाणित कर देता है कि जिंदगी और साहित्य के सरोकारों का गहरा रिश्ता वह धुरी है, जिसके ईर्द-गिर्द इसके रचनाकार का व्यक्तित्व और उसका परिवेश घूमता है। रचनाकार इस धुरी को स्थिर रख पाया है, यही उसकी कला की सफलता है।
डगर डगर पर मगर: हरदर्शन सहगल; नमन प्रकाशन, 4231 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली; 750 रुपए।
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