पुलक घोष और डॉ सौम्य कांति घोष सम्मानित विद्वान हैं। उन्होंने पिछले दिनों यह दावा करके हलचल मचा दी कि भारत में 2017-18 में संगठित क्षेत्र में 70 लाख नए, वेतनमान आधारित रोजगार सृजित होंगे। उपर्युक्त लेखकों ने स्पष्ट किया कि वेतन आधारित रोजगार से उनका मतलब ऐसे रोजगार से है जिसमें नौकरी करने वाला व्यक्ति कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) या कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआईसी) या राष्ट्रीय पेंशन योजना (एनपीएस) या राजकीय भविष्य निधि (जीपीएफ) के तहत पंजीकृत होता है। इन चार योजनाओं में से किसी में भी पंजीकृत होना इस बात का प्रमाण है कि काम करने वाला व्यक्ति वेतनमान पर नियुक्त कर्मचारी है- चाहे वह निजी क्षेत्र में हो या सरकारी क्षेत्र में या अर्धशासकीय निकाय में। 70 लाख नए रोजगार का दावा ऐसा है जो किसी को भी हैरत में डाल देगा। उसी लेख में लेखकद्वय ने बताया है कि वेतनभोगी कर्मचारियों की कुल तादाद 919 लाख है, मगर चमत्कारिक ढंग से, केवल बारह महीनों में देश में 70 लाख नई नौकरियां पैदा हो जाएंगी- जो कि वेतनमान वाली कुल नौकरियों का 7.5 फीसद होगा!
चौंकाऊ आंकड़ा
वेतनमान वाले रोजगार का सबसे बड़ा हिस्सा ईपीएफओ के तहत पंजीकृत है। लेखकद्वय ने बताया है कि ईपीएफओ अपने अंशधारकों की 11 लाख करोड़ से ज्यादा की निधि को नियंत्रित करता है। इन अंशधारकों की संख्या मोटे अनुमान के मुताबिक 550 लाख है। ये ऐसे उद्योगों में काम करते हैं जहां बीस से ज्यादा कर्मचारी हैं। लेखकद्वय के मुताबिक, अठारह से पच्चीस साल के 45.4 लाख्र नए अंशधारक वर्ष 2016-17 में ईपीएफओ के तहत पंजीकृत हुए और इसमें उनका अंशदान शुरू हो गया। लेखकद्वय ने यह भी पाया कि इसी आयुवर्ग के 36.8 लाख नए अंशधारक अप्रैल से नवंबर 2017 के बीच पंजीकृत हुए, और इसी बिना पर, उन्होंने अनुमान लगाया है कि 2017-18 के पूरे साल में नए अंशधारकों की संख्या 55.2 लाख तक पहुंच जाएगी।
संगठित क्षेत्र के उद्योग/कारोबार- जहां बीस से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं- अगर एक साल में 55 लाख नए, ईपीएफओ के तहत पंजीकृत होने लायक रोजगार पैदा कर सकते हैं, तो हम यह कह सकते हैं कि भारत ने बेरोजगारी नाम के राक्षस का वध कर दिया है!
ऊपर बताए गए रोजगारों में यह जोड़ना होगा-
* संगठित क्षेत्र के उन व्यवसायों में पैदा हुए नए रोजगार, जहां बीस से कम आदमी काम करते हैं;
* असंगठित या गैर-विनियमित क्षेत्र में पैदा हुए नए रोजगार- इसमें सूक्ष्म व छोटे उद्यम आएंगे (इनकी संख्या लाखों में है);
* कृषि क्षेत्र में नए रोजगार;
* नए अस्थायी तथा दिहाड़ी वाले रोजगार, जैसे सामान लादने, बोझा ढोने के काम, हराकारागीरी आदि; और
* अवैध आर्थिक गतिविधियों में पैदा होने वाले रोजगार।
अगर हम लेखकद्वय द्वारा बताए गए वेतनमान वाले रोजगार के आंकड़े को मान लें, तो उसमें उन क्षेत्रों में पैदा हुए रोजगारों को भी जोड़ना होगा जिन क्षेत्रों को मैंने ऊपर सूचीबद्ध किया है। फिर आंकड़ा 2017-18 में 140 लाख पर पहुंच जाएगा। प्रो. घोष और डॉ घोष की रिपोर्ट के अनुसार, हर साल 150 लाख लोग श्रम बाजार में प्रवेश करते हैं, जिनमें से 66 लाख कुशल कामगार हैं। जल्दी ही, समस्या रोजगार-विहीनता की नहीं, बल्कि रोजगार चाहने वालों की कमी की होगी! (तुलनात्मक नजर से देखें, चीन जिसका जीडीपी भारत से पांच गुना अधिक है, हर साल लगभग 150 लाख नए रोजगार पैदा करता है।) लिहाजा, अहम आंकड़ा है ईपीएफओ के तहत पंजीकृत होने वाले रोजगार का- 2016-17 में 45.4 लाख और 2017-18 में 55.2 लाख। अगर ये आंकड़े सही हैं, तो 2017-18 में ‘वेतनमान वाले’ 70 लाख नए रोजगार सृजित होने के दावे को स्वीकार किया जा सकता है।
असहमति
जयराम रमेश और प्रवीण चक्रवर्ती भी सम्मानित विद्वान हैं। दोनों ने संयुक्त रूप से लिखे गए एक लेख में प्रो.घोष व डॉ. घोष की रिपोर्ट पर सवाल उठाए हैं। उनका तर्क है कि किसी भी साल में नए पंजीकरण का मतलब यह नहीं है कि वह नया रोजगार उसी साल सृजित हुआ; इसका मतलब यह भी हो सकता है कि एक अनौपचारिक रोजगार ने औपचारिक शक्ल अख्तियार की और एक गैर-अंशधारक उस साल अंशधारक बना। उनके मुताबिक, नोटबंदी ने नवंबर 2016 के बाद रोजगार के औपचारिकीकरण के लिए बाध्य किया, और जीएसटी ने जुलाई 2017 के बाद व्यवसायों के औपचारिक पंजीकरण के लिए विवश किया, और औपचारिकीकरण हुआ 2017-18 में। (हालांकि औपचारिकीकरण एक उपलब्धि थी, लेकिन नोटबंदी तथा जीएसटी रोजगार छिन जाने और सूक्ष्म व छोटे उद्यमों के बंद हो जाने के सबब भी बने)। जयराम रमेश और प्रवीण चक्रवर्ती ने इस तरफ भी ध्यान खींचा है कि जो भी सीमित आंकड़े सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं वे बताते हैं कि ईपीएफओ के अंशधारकों की संख्या में 2014-15 में 7 फीसद और 2015-16 में 8 फीसद का इजाफा हुआ, लेकिन प्रो घोष व डॉ घोष की रिपोर्ट के मुताबिक, इस संख्या में 2016-17 में 20 फीसद का उछाल आया और दिसंबर 2017 तक इसमें फिर 23 फीसद की बढ़ोतरी हुई।
प्रो. घोष और डॉ घोष ने आलोचना का जवाब दिया है। उनका कहना है कि उन्होंने केवल नौकरी में नए-नए आए लोगों की गणना की है, और ईपीएफओ के उन खाताधारकों को अपने हिसाब में शामिल नहीं किया है जो इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। 70 लाख के अपने आंकड़े में उन्होंने सिर्फ यह गुंजाइश रखी है कि इसमें वे पद भी शामिल हैं जो उन पर काम कर रहे लोगों के सेवानिवृत्त होने के बाद भरे जाते।
दो मांगें
बहस एक दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है। यह साफ है कि प्रो. घोष और डॉ घोष को वे आंकड़े मुहैया कराए गए जो सार्वजनिक पहुंच में नहीं हैं। लिहाजा,
* सरकार को ईपीएफओ के सभी अंशधारकों का आंकड़ा सार्वजनिक जानकारी के दायरे में लाना चाहिए।
* दूसरे, प्रो घोष और डॉ घोष ने जो गणना-विधि इस्तेमाल की है उसी गणना-विधि से उन्हें बताना चाहिए कि ईपीएफओ के तहत कितने नए रोजगार 2014-15 और 2015-16 में पंजीकृत हुए, राजग के ये दो साल नोटबंदी और जीएसटी से पहले के थे। उन्हें इससे भी आगे जाकर, इसी विधि से, यूपीए के दौरान (2004-14) के आंकड़े बताने चाहिए। इस तरह के कालखंडवार आंकड़ों से ही सच्चाई सामने आएगी। वरना 70 लाख नई नौकरियों का दावा शेखी बघारना ही कहा जाएगा, और कालांतर में इसे एक झांसापट्टी माना जाएगा।