प्रदीप सौरभ का नया उपन्यास है और सिर्फ तितली। यह शिक्षा की समस्या पर केंद्रित है। उपन्यास में तितली के बारे में कहा गया है कि वह ऊंची उड़ान तो भर नहीं सकती, लेकिन उसके सपनों में ऊंची उड़ानें आती थीं। उड़ने के लिए कई बार वह तितली से चील बन जाती थी। कहां तितली और कहां चील! ये बातें उपन्यास की नायिका तान्या के बारे में हैं। वह दिल्ली के एक संभ्रांत स्कूल में पढ़ाती है। बिहार के छोटे शहर से आई है। दिल्ली में पढ़ी है। पढ़ कर घर वापस जाती है तो माता-पिता शादी तय कर देते हैं। लेकिन दहेज के लेन-देन पर शादी टूट जाती है। वह बीएड करती है। प्रमाणपत्र न मिलने पर कॉलेज के खिलाफ मोर्चा खोल देती है। अंत में जीत उसी की होती है।
माता-पिता को समझा-बुझा कर दिल्ली के लिए निकल पड़ती है। दिल्ली उसे वह शहर लगता है, जो उसके सपनों में रंग भर कर उसे तितली बना सकता है। यहां कई जगह टक्कर मार कर अंत में उसे एक बड़े स्कूल में नौकरी मिलती है। इस स्कूल में अमीरों के बच्चे पढ़ते हैं। सरकार के नियमों के अनुसार वहां कुछ प्रतिशत गरीब बच्चों को दाखिला भी मिलता है। लेकिन उनके साथ पढ़ने वाले और अध्यापक नीची नजर से देखते हैं।
असल में इस तरह के स्कूलों में नवकुबेरों के बच्चे पढ़ते हैं। उनकी दुनिया अमीरी और गरीबी में बंटी होती है। उनके विकास की पहली और अंतिम शर्त भेदभाव होती है। ऐसा उनके परिवार के लोग सिखाते हैं। ऐसी बातें उन्हें सिखाई जाती हैं, जो उनके निश्छल मन में होती ही नहीं हैं। ये गंदा है, वो गंदा है, यहां से चीजें शुरू होती हैं।
तान्या छोटे बच्चों को बहुत प्यार से पढ़ाती है। स्कूल में न जाने कितने गुट हैं। उनमें से कुछ अध्यापिकाएं प्रिंसिपल सुमेधा कौल, चेयरमैन अमित जैन की करीबी हैं। एकेडेमिक हेड ईशिता पास्ता अध्यापकों के लिए टेरर है। अध्यापक-अध्यापिकाएं इन सबकी बुराई में लगे रहते हैं। इनमें से कई चुगलखोर भी हैं। मगर इन सबमें तान्या को अमृता नाम की अध्यापिका बहुत पसंद आती है। उसका बच्चा मेंटली चैलेंज्ड है। वह अपने बच्चे की तरह ही दूसरे बच्चों की मदद में आगे रहती है। तान्या भी उसकी मदद करती है। स्कूल में एक बच्चे के साथ मिनी जोशी नाम की टीचर को तान्या यौनाचार करते देखती है। जब वह उसे डांटती है तो मिनी जोशी कहती है कि उसके इस कृत्य से अगर बच्चे को अच्छा लगता है तो इसमें बुराई क्या है। वैसे भी अपना स्कूल तो एक्सपीरिएंस र्लनिंग के आधार पर चलता है। तान्या मिनी की शिकायत ईशिता से करती है मगर कुछ नहीं होता। एक दिन जब ईशिता तान्या को सलाह देती है कि अगर उसे सीनियर क्लासेज को पढ़ाना है और आगे बढ़ना है तो अमित जैन से मेल-जोल रखना चाहिए। जब तान्या इस बात पर ध्यान नहीं देती, तो उसकी कच्ची नौकरी छीन ली जाती है। उसकी दोस्त पल्लवी भी इस्तीफा दे देती है।
तान्या के सामने फिर अंधेरा है। नई नौकरी की तलाश। माता-पिता का घर लौटने का दबाव। नौकरी के बदले नौकरी देने वालों की तमाम तरह की मांगें। बहुत मशक्कत के बाद उसे नौकरी मिलती है। यहां की प्रिंसिपल के कहने पर वह ब्रिटिश छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करती है और तीन महीने के लिए इंग्लैंड चली जाती है। बूढ़ी चेलसी के घर में रहती है। दोनों के बीच गहरा रिश्ता पनप जाता है। लौटती है तो अण्णा आंदोलन चल रहा है। वह भी उसमें शामिल हो जाती है। यहीं उसकी मुलाकात दीपांकर मिश्रा से होती है। दीपांकर पेशे से इंजीनियर है। अमेरिका में रहता है। अण्णा आंदोलन में शामिल होने के लिए नौकरी छोड़ कर भारत आता है। तान्या और उसकी मुलाकातें अक्सर होती हैं। दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं। सहजीवन में रहते हैं। दीपांकर उस पर शादी, बच्चे और अमेरिका चलने का दबाव बनाता है। न मानने पर लौट जाता है।
स्कूल के काम से तान्या इंडोनेशिया जाती है। घूमती है। लेकिन लगता है कि उसे किसी और चीज की तलाश है। वह अध्यात्म की तरफ मुड़ती है। लौट कर हरिद्वार और ऋषिकेष जाती है। वहां एक आश्रम की सदस्य बनती है। काम से सबका दिल जीतती है। आश्रम का सबसे बड़ा संत जब उससे यौनाचार करने की कोशिश करता है तो उसे गला दबा कर मार डालती है। फिर पुलिस के आगे समर्पण कर देती है। पुलिस के आगे आश्रम की बाकी लड़कियां भी वहां के काले कारनामों का बयान करती हैं। यहां उपन्यास खत्म हो जाता है।
स्कूलों की चमक-दमक, शिक्षा के क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार, मैनेजमेंट की ज्यादा से ज्यादा पैसा वसूलने और बदले में अध्यापकों को कुछ न देने की पड़ताल उपन्यास में बहुत अच्छे ढंग से की गई है। यही नहीं, अकेलेपन में बच्चे और बूढ़े एक समान हैं जैसे कि रियान और उसके दादाजी।
पत्रकार होने के विशद अनुभवों और जीवन में तमाम किस्म की यात्राओं को सौरभ उपन्यास में इस तरह से पिरोते हैं कि पाठक साथ हो लेता है।
छोटे शहर की लड़की की कामनाओं, इच्छाओं, करिअर, समझौता न करने की दृढ़ता, जीवनसाथी के चुनाव आदि को लेखक ने बहुत मानवीय और तर्कपूर्ण ढंग से देखा है। यही इस उपन्यास की खासियत है।
क्षमा शर्मा
और सिर्फ तितली: प्रदीप सौरभ; वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली; 250 रुपए।
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