भारतीय समाज को समझने के लिए हम वर्ण आधारित जातिसमुच्चय और आदिम समुदायों से निर्मित जनगण की अवधारणा का सहारा ले सकते हैं। जातिगत भारत मुख्य धारा का समाज रहा है, जिस पर बहुत अध्ययन और शोध सामग्री उपलब्ध है। पर आदिवासी भारत के बारे में जो भी अध्ययन सामने आए हैं उनमें अधिकतर की पृष्ठभूमि में या तो आदिवासी को ‘जंगली-बर्बर’ चित्रित करने का दृष्टिकोण रहा है या ‘रोमांटिक’ किस्म का, जिसके तहत यह कहा जाता रहा है कि ‘आदिवासी समृद्ध प्रकृति की गोद में मस्ती से नाचता-गाता रहता है।’ इस समाज को गहराई से समझने का प्रयास कम ही हुआ है। पहले दृष्टिकोण को हम ठेठ भारतीय मिथकों में वर्णित ‘राक्षस-असुर-दैत्य-दानव वगैरह की दी गई संज्ञाओं से लेकर उपनिवेशवादी ‘आपराधिक जनजातीय अधिनियम-1871’ से वर्तमान में भी किसी अन्य रूप में देख सकते हैं। दूसरा दृष्टिकोण ‘गणतंत्र दिवस की झांकियों’ का-सा है।
सवर्ण नेतृत्व का लंबा इतिहास रहा है, जिसे इतिहास ने पर्याप्त पहचान दी है। दलित नेतृत्व का श्रेय बाबा साहेब आंबेडकर की वैचारिक चेतना को दिया जा सकता है, जिसमें संविधान द्वारा प्रदत्त राजनीतिक आरक्षण ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के लोकतांत्रिक नेतृत्व के उभार में खुद का बलबूता या फिर एक हद तक तुष्टीकरण की नीति को कारण माना जा सकता है। पर सवाल है कि अब तक आदिवासी लोकतांत्रिक नेतृत्व अन्य वर्गों की तरह अपेक्षित उभार क्यों नहीं ले सका?
विकसित और समृद्ध लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है कि भारत जैसे विविधता वाले देश में कमोबेश सभी सामाजिक श्रेणियों की भागीदारी राष्ट्र-निर्माण और मानव संसाधन के उपयोग की दृष्टि से संभव हो सके। ऐसा नहीं कि आदिवासी समुदायों का इतिहास में कोई राजनीतिक नेतृत्व नहीं रहा। इन समुदायों के भी बड़े-बड़े राजवंश रहे हैं, जिन्हें हम पूर्वोत्तर सहित भारत के सभी आदिवासी अंचलों में देख सकते हैं। इसके बाद उपनिवेश काल में सामंतों और फिरंगियों के खिलाफ जितनी लड़ाइयां आदिवासियों ने लड़ीं, उतनी किसी अन्य वर्ग ने नहीं।
पूर्वोत्तर के खासी, नगा, मिजो संघर्षों से लेकर संताल परगना के सिद्दो-कानो, आज के झारखंड के बिरसा मुंडा, मध्यप्रांत के टंट्या भील, राजस्थान के गोविंद गुरु, गुजरात के जोरिया भगत, महाराष्ट्र के ख्याजा नायक, अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में तेलंगाना का संघर्ष, केरल की किसान क्रांति और अंडमान में हुई अबेर्दीन की लड़ाई तक देखा जा सकता है। यह एक ऐसी राजनीतिक चेतना थी, जिसका महत्त्वपूर्ण अवदान देश की आजादी में रहा। और भी देखें तो आदिवासी गणराज्यों का अपना अलग गौरवशाली अतीत रहा है, जहां हम वर्तमान प्रजातंत्र की जड़ों को ढूंढ़ सकते हैं। पर जब हम आधुनिक लोकतंत्र में आदिवासी राजनीतिक नेतृत्व के मुद्दे पर आते हैं, तो बड़ी निराशा होती है।
दलितों की तरह भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए भी राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था रखी गई है, जिसमें संविधान निर्मात्री सभा में आदिवासी सदस्य जयपालसिंह मुंडा का मूल्यवान योगदान रहा। इसके बावजूद राष्ट्रीय फलक पर किसी आदिवासी राजनीतिक नायक का उभर कर सामने नहीं आना चौंकाता है। यों कई आदिवासी राजनेताओं के नाम गिनाए जा सकते हैं, लेकिन उनमें से कोई भी राष्ट्रीय स्तर का नहीं बन सका। पीए संगमा चाहे केंद्र में काबीना मंत्री और बाद में लोकसभा के अध्यक्ष तक बन गए, मगर अंतत: वे पूर्वोत्तर तक ही सिमट कर रह गए। यही हाल शिबू सोरेन का हुआ, जिन्होंने झारखंड राज्य के लिए संघर्ष किया, पर वे राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासियों का नेतृत्व नहीं कर सके। राजनीतिक-नेतृत्व और सत्ता के विरुद्ध संघर्ष का लंबा इतिहास होने के बावजूद यह दशा क्यों है?
इसका एक बड़ा कारण है भौगोलिक दृष्टि से आदिवासी समुदायों का बिखराव, जिसने उन्हें एकजुट होने में बाधा पहुंचाई। दूसरा बड़ा कारण है मुख्य भारतीय समाज से अलगाव। अन्य कारणों में पिछड़ापन हो सकता है, जिसकी वजह से ये आदिम समुदाय शिक्षा और अन्य भौतिक सुविधाओं से वंचित रहे, जिसके चलते उनका मुख्यधारा से अपेक्षित जुड़ाव संभव नहीं हो सका।
भौगोलिक अलगाव ने इस समाज को ‘अपने हाल में संतोषी’ की-सी मानसिकता बना दी, जिसके चलते निजी संपत्ति की अवधारणा का विकास न हो पाना, पेट भरने के आगे और कुछ नहीं सोच पाना, अकूत प्राकृतिक संपदा का उपयोग-उपभोग भौतिक संपन्नता के उद्देश्य से न कर सकना, संघर्ष की परंपरा के बाद भी बहुमुखी शोषण को सहते जाना, टुकड़ा-टुकड़ा अपनी आंचलिक स्वायत्तता के मोहवश बाहरी दुनिया से संपर्क न रखना, अपने में खुलापन के बाद भी ‘बंद समाज’ की तरह जीते चले जाना, गैर-आदिवासी लोगों की राजनीतिक रणनीति को सीखने में धीमी गति से चलना आदि की दशा बना दी।
किसी भी देश-समाज में उभरने वाली लोकतांत्रिक राजनीति के लिए आवश्यक है कि राजनीतिक वैचारिकी का निर्माण हो। जब हम दलितों से आदिवासियों के राजनीतिक नेतृत्व की तुलना करते हैं, तो स्पष्ट दिखाई देता है कि दलितों में मसीहा के रूप में बाबा साहेब आंबेडकर मौजूद हैं, जो संपूर्ण राष्ट्र के दलित समाज के वैचारिक महानायक हैं, जिनसे दलित समाज निरंतर प्रेरणा लेता रहता है। आदिवासीजन के साथ स्थिति भिन्न है। यहां कोई प्रेरणादायक विभूति नहीं है। जो भी ऐतिहासिक या लोकतांत्रिक नायक उभरे, उनमें से कोई अपने अंचल की सीमाओं को पार नहीं कर सका।
आदिवासी समाज की विरासत में सामूहिकता एक शक्तिशाली तत्त्व रहा है। जिन गणतंत्रात्मक प्रणालियों का ऐतिहासिक संदर्भ हम लेते हैं, वहां मुखिया होते हुए भी सामूहिक निर्णय की बहुत बड़ी जगह रहती थी। आधुनिक लोकतंत्रात्मक व्यवस्थाओं में एकल व्यक्तित्व पर केंद्रित राजनीतिक नेतृत्व की अवधारणा लोगों की मानसिकता में गहरी जड़ जमाए हुए प्रतीत होती है। इसका थोड़ा और विश्लेषण किया जाए, तो आजादी के दौर में ‘लाल-बाल-पाल’ के बाद महात्मा गांधी के रूप में ‘एकछत्रीय नायकत्व’ की छवि उभरती है। फिर आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की।
आगे चल कर ‘कांग्रेसी सिंडीकेट प्रणाली’ के अल्पकालीन दौर में इंदिरा गांधी का ‘करिश्माई नेतृत्व’ उस प्रणाली को ध्वस्त कर विफल बना देता है। यानी फिर वही एकछत्र नायकत्व। इसके आगे जब हम आज की सत्ता-राजनीति को देखते हैं, तो वही दृश्य हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है। जब परंपरागत आदिवासी सामूहिक राजनीतिक नेतृत्व से वर्तमान प्रजातांत्रिक नेतृत्व तक यात्रा करते हैं तो एक बड़ा कारण यह हो सकता है, जिसने आदिवासी लोकतांत्रिक नेतृत्व को उभरने देने में व्यवधान पहुंचाया।
आंबेडकर ने कहा था कि ‘सत्ता वह मास्टर चाबी है, जिससे किसी भी ताले को खोला और बंद किया जा सकता है।’ दलित राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र में आवश्यक हस्तक्षेप किया है। मगर आदिवासी की राजनीतिक लड़ाई कोई दूसरा लड़ने का दावा कर रहा है, चाहे वह एनजीओ हो, धर्मांतरणकारी या नक्सलवाद के नाम पर हिंसक तत्त्व।
इन सारी गतिविधियों का नेतृत्व गैर-आदिवासी करता है, इसीलिए आदिवासी के भले का तरीका भी गलत है और इरादा भी गलत। प्रजातंत्र में राजनीतिक दखलंदाजी से ही अपने पक्ष में निर्णय कराए जा सकते हैं। यही वजह है कि संविधान में प्रभावी प्रावधान और सरकारी बजटों में पर्याप्त धनराशि होने के बाद भी आदिवासी समाज विकास की धारा से अब तक नहीं जुड़ पाया है।
स्वस्थ और समृद्ध लोकतंत्र समाज के सभी घटकों के प्रतिनिधित्व की अपेक्षा करता है। भारतीय जनतंत्र दुनिया के सफलतम लोकतंत्रों में गिना जाता है। इसे और अधिक मजबूत होना है। आदिवासी ही नहीं, बल्कि सभी वर्गों के जागरूक लोगों और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से अपेक्षा की जाती है कि राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी लोकतांत्रिक नेतृत्व को विकसित किया जाए।