वाट्स-एप पर आए एक वीडियो फुटेज ने काफी हैरान किया। इसमें कुछ स्त्रियां ढोल-मजीरे की थाप पर गीत गा रही थीं- ‘डीजे वाले बाबू मेरा गाना तू बजा…’, ‘ये दुनिया, दुनिया पीतल दी, बेबी डालम सोने दी’, ‘आज ब्लू है पानी पानी…’। इन गानों को सुनना हास्यास्पद तो था ही, आश्चर्यजनक था कि सिनेमाई संस्कृति ने लोकसंस्कृति को किस हद तक नुकसान पहुंचाया है।
यह संस्कृतियों के टकराव का समय है। किसी भी देश की संस्कृति, उस देश में निवास करने वाले सामान्य जन के रहन-सहन, आचार-विचार, खान-पान, वस्त्र-आभूषण, नृत्य-गीत-संगीत, जन्म, विवाह, मृत्यु आदि संस्कारों से निर्मित होती है। इसलिए अगर किसी देश के मूल्य और संस्कृति के वास्तविक और प्राकृतिक स्वरूप को निरखना-परखना हो तो इसका सबसे अच्छा स्रोत उस देश की संस्कृति और मुख्य रूप से लोकसंस्कृति है।

भारत विविधताओं का देश है। यहां विभिन्न धर्म, जाति, वर्ण और वर्ग के लोग रहते हैं। यह भी तथ्य है कि भारतीय एक नहीं, भिन्न जातियों के वंशजों का मिश्रण हैं। ये आपस में इतनी घुल-मिल गई हैं कि आज यह कहना मुश्किल है कि कौन-सी जाति मूल रूप से कहां उत्पन्न हुई है। कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति आर्यों और अनार्यों के मूल तत्त्वों का सुंदर समन्वय है। हमारा अध्यात्म आर्यों की देन है, तो कलाओं पर अनार्यों की अमिट छाप है।

ये सब भारतीय समाज में इस कदर घुल-मिल गए कि उनका अपना अस्तित्व ही लुप्त हो गया और भारतीय संस्कृति ने अपनी समन्वयशीलता को प्रमाणित करते हुए उन्हें अपने में समाहित कर लिया, विकृत हुए बिना। हिमालय की बफीर्ली पहाड़ियों से लेकर हिंद महासागर तक फैले विस्तृत भारतीय भू-भाग में अनेक संस्कृतियां तमाम विविधताओं के बावजूद एक साथ फल-फूल रही हैं। इतनी भिन्नता होते हुए भी भारत ‘समष्टि में व्यष्टि’ के सिद्धांत का एक ज्वलंत उदाहरण है।

विश्व पटल पर भारत खासकर अपनी पुरातन लोकसंस्कृति के लिए जाना-पहचाना जाता है। हमारे लोकनृत्य, लोकनाट्य, लोकसंगीत, लोककलाएं, लोकपरंपराएं हमारी अनमोल धरोहर हैं। भारतीय लोकनृत्यों में होने वाला जन-जीवन का स्वाभाविक चित्रण किसी को भी विस्मित कर सकता है। असम के बिहू, बिछुआ, राखल; अरुणाचल प्रदेश के मुखौटा और युद्ध नृत्य; मिजोरम के पखुपिला, चेरोकान; हिमाचल प्रदेश के रासलीला, नौटंकी, झूला; बिहार के करमा, जातरा, सरहुल, माघा आदि लोकनृत्यों में उनके लोकजीवन की सजीव झांकी दिखती है। छऊ भारत का प्राचीनतम नृत्य है। इसमें महाभारत, रामायण आदि या स्थानीय लोकसाहित्य पर आधारित कथा-वृत्तांतों पर अभिनय किया जाता है। क्या कोई भी आइटम नंबर या सिनेमाई अभिनय इस लोकनृत्य की भाव-भंगिमाओं का स्पर्श कर सकता है!

हमारी लोककलाएं अपने में एक इतिहास समाहित किए हैं। यही कारण है कि केवल शास्त्रीय नृत्य नहीं, लोकनृत्यों को भी सीखने के लिए विदेशी स्त्री-पुरुष लालायित रहते हैं। पर विडंबना है कि लोकवाद्य यंत्रों पर बजती संगीत स्वर लहरियों की मधुरता आज के रीमिक्स संगीत के बीच लुप्त होने के कगार पर है। ग्रामांचलों में भी सिनेमाई संस्कृति हावी है, अब तो लोकगीतों की धुनों पर भी फिल्मी संगीत का असर दिखाई देने लगा है। स्थिति यह है कि आज सांस्कृतिक महोत्सवों में भी फिल्मी आइटम सांग बजाया जा रहा है। सिनेमाई संस्कृति और संगीत के हावी होने से लोकनृत्य-संगीत पर भी पाश्चात्य प्रभाव दिखाई देने लगा है। इससे लोकरंग का क्षरण हुआ है। शादी-विवाह के अवसरों पर भी ढोल-मजीरों और घुंघरुओं की आवाज लुप्त होती जा रही है। आज डीजे संस्कृति चरम पर है।

हमारे लोकजीवन में शरीर पर गोदना गुदवाने की प्रथा बहुत प्राचीन है। आज भी बहुत से घरों में दादी-नानियों के हाथ-पैरों पर गोदना गुदा दिखता है। इसमें पति के पूरे नाम या नाम के पहले अक्षर के साथ फूल-पत्ती आदि चिह्न भी गुदवाए जाते थे। पहले यह गोदना एक संस्कृति विशेष का प्रतीक था। बनारस के कुछ स्थानों पर आज भी शादी में गोदना गुदवाने की परंपरा का निर्वाह होता है। पर आज गोदने का आधुनिक रूप टैटू के रूप में सामने आया है, जो एक वर्ग-विशेष के लिए ‘स्टेटस सिंबल’ या फैशन का पर्याय बन गया है। फिल्मी सितारों ने भी इसमें खासी भूमिका निभाई है।

इसके साथ ही लोककलाएं उचित संरक्षण के अभाव में अपनी अंतिम सांसें गिन रही है। आज अनेक लोककलाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में हाथ से बनाए डलवा, मौनी, पिटारी आदि, जो मूंज, सेठा और सिरकी को रंग कर, सुंदर कलाकृतियां उकेरते हुए बनाए जाते हैं, अब कम ही दिखते हैं। बांस की सिरकी के बने ‘बेना’ का स्थान अब प्लास्टिक और फोल्डिंग पंखों ने ले लिया है।

प्लास्टिक और फाइबर के चलन ने कुम्हार के बनाए कुल्हड़ को मिट्टी में मिला दिया है। कुम्हार के बनाए स्प्रिंग लगे सिर हिलाते बूढ़े बाबा, तीन दीपक वाली ग्वालिन और ‘गृहस्थी’ वाले चक्की-चूल्हे अब बच्चों के मनोरंजन की चीज नहीं रहे, क्योंकि अब चाभी से संचालित होते विदेशी खिलौने प्रचलन में हैं। आज कितने ऐसे बच्चे होंगे, जिन्होंने डोरियों पर थिरकती कठपुतलियों का नाच देखा होगा। ये सभी लोककलाएं अपने अंतिम दिन गिन रही हैं। आज जब पूरा विश्व एक बाजार बन चुका है, हमारी दुर्लभ लोककलाएं बाजार से नदारद हैं। वैश्वीकरण के कारण आज इनके स्वरूप में काफी बदलाव आया है। हालांकि वैश्वीकरण ने आज यह अवसर प्रदान किया है कि इसके जरिए अपनी अनमोल और विलक्षण धरोहर लोकसंस्कृति और साहित्य को सिमटे हुए, सीमित दायरों से बाहर निकाल कर वैश्विक स्तर पर इसकी पहचान बनाई जा सके, जो स्थानीयता के रंगों से रंगी होने पर भी विश्वव्यापी बन सके।

इतिहास गवाह है कि समय के साथ कितनी संस्कृतियों का अस्तित्व नष्ट-भ्रष्ट हो गया, पर भारतीय संस्कृति अब भी विश्व-पटल पर उसी तेज के साथ चमक रही है। लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि हमारे मूल्य और परंपराओं के साथ ही हमारी संस्कृति में भी विकृतियां आई हैं, उसका मूल स्वरूप परिवर्तित होता जा रहा है। इस उत्तर-आधुनिक काल में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्रों के साथ ही सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी तीव्र गति से परिवर्तन हुए हैं, उन्होंने समाज और संस्कृति की स्थिरता को विचलित किया है, जिसके परिणाम स्वरूप हमारे मूल्यों के साथ परंपराएं भी खंडित हुई हैं। किसी भी देश की उन्नति में उसकी संस्कृति, सभ्यता, मूल्य, परंपराओं और सहेजी गई धरोहरों का बहुत महत्त्व होता है। मगर विडंबना है कि हमारी प्राचीन लोककलाएं आज मात्र राष्ट्रीय पर्वों पर झांकी-प्रदर्शनी या विशेष सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रदर्शित होने तक सीमित रह गई हैं।

सैकड़ों वर्ष पुरानी लोक कलाएं सरकारी संरक्षण और उचित सुविधाओं के अभाव में स्थापित पहचान बनाने को तरस रही हैं। विडंबना है कि यूनेस्को ने जिन लोकनृत्यों को (राजस्थान के कालबेलिया, ओड़िशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल के छऊ नृत्य और केरल के मुडिएट्टू लोकनृत्य) विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित कर वैश्विक स्तर पर उन्हें पहचान दिलाई, वे अपने ही देश में उपेक्षित हैं। उत्तर प्रदेश की नौटंकी, बैसवाड़े का फाग, महाराष्ट्र का तमाशा आदि भारतीय लोकतत्त्व की दुर्लभ विरासत हैं। अकेले केरल में ही पचास से अधिक लोकनृत्य प्रचलित हैं। बस आवश्यकता उनके उचित संरक्षण और संवर्धन की है।

वर्तमान समय विमर्शों और हाशिए के विषयों पर चर्चा-परिचर्या का है, पर इन विविध विमर्शों के इस दौर में भारतीय लोकसंस्कृति और साहित्य के पुर्नपाठ की भी महती आवश्यकता है। प्रयास यह होना चाहिए कि हम लोकसंस्कृति को उसके प्राकृतिक और स्वाभाविक स्वरूप में विकसित करने में सहायक बन सकें। आज इसे सहेज कर रखने और यथासंभव इसके संवर्धन के सतत प्रयास की आवश्यकता है।