कोरोना विषाणु की चुनौती मानव जाति के दर्ज इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई। निश्चित रूप से इतिहास में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिलता, जिससे दुनिया के दो सौ सात देश प्रभावित हुए हों, बीस लाख से ज्यादा आबादी प्रभावित हुई हो (और यह तादाद बढ़ रही है) और जिसमें एक लाख पैंतीस हजार एक सौ तिरसठ लोग मारे गए हों (और यह संख्या बढ़ रही है)। आने वाले लंबे वक्त में इस महामारी के नतीजे क्या होंगे, इस बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
ऐसी असाधारण परिस्थिति में हर देश में कोई एक नेता हो सकता है, और जो कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री है या लोकप्रिय नेता के छद्म भेष में तानाशाह। भारत में बाकायदा निर्वाचित एक प्रधानमंत्री हैं, इसीलिए मैंने अपने 25 मार्च के बयान में उन्हें कमांडर कहा था। हम पैदल सैनिक हैं। इसलिए मैं 25 मार्च से लागू की गई पूर्णबंदी और इसे 14 अप्रैल के बाद तीन मई तक बढ़ाने का स्वागत करता हूं। हमें इस पूर्णबंदी के आखिरी दिन तक इसके नियम-कायदों का पालन करना है, जो कि बिना गोली-लाठी के लोकतंत्र को चलाने का एकमात्र रास्ता है।
शब्दावली
मैंने इन दिनों चलन में आ रहे शब्दों और इन शब्दों के बारे में अपनी समझ को लेकर एक शब्दावली तैयार की है।
कोरोनावायरस या कोविड 19 : बीटाकोरोनावायरस का नया रूप जो सार्स-कोरोना विषाणु से आनुवंशिक रूप से लगभग सत्तर फीसद मेल खाता है। इसका सबसे पहले पता चीन में 30 दिसंबर, 2019 को एक मरीज में चला था। यह बहुत ही ज्यादा संक्रामक होता है और पचहत्तर दिन से भी कम में वैश्विक महामारी बन गया। अभी तक इसका कोई इलाज ज्ञात नहीं है और न ही इसका कोई टीका है।
लॉकडाउन (पूर्णबंदी) : कर्फ्यू का ऐसा सबसे बड़ा रूप, जिसमें संपूर्ण शहर या प्रांत या देश को बंद कर दिया जाता है। चीन ने वुहान शहर और हुबेई व अन्य प्रांतों में पूर्णबंदी की कोशिश की और कुल मिला कर स्थिति पर काबू पा लिया। दर्जनों देशों ने अपने यहां अलग-अलग स्तरों पर बंदी लागू की और विभिन्न स्तरों पर सफलता भी पाई।
टेस्टिंग (जांच) : एक लेख का शीर्षक था ‘न जांच हो, न कोई मिलेगा’। बिल्कुल सही। कुछ देशों में जांच के दौरान तेजी से मामले बढ़े (दक्षिण कोरिया, सिंगापुर), कुछ पीछे रह गए और कीमत चुकाई (इटली, स्पेन, फ्रांस), कुछ कांप रहे थे (भारत, ब्रिटेन) और कुछ ने शुरू में इसे बेकार बताया (अमेरिका)। लेकिन अब इस बात पर एक राय है कि बिना व्यापक जांच के पूर्णबंदी बेअसर होगी।
जांच किट : जांच के अलग-अलग तरीके हैं और कुछ जांच तरीके नतीजा आने में बहत्तर घंटे लेते हैं। एंटी-बॉडी जांच तरीके से चार घंटे में ही नतीजा मिल जाता है। आइसीएमआर एक सक्षम प्राधिकार है, जिसने इस जांच तरीके को मंजूरी देने से पहले कई हफ्ते गुजार दिए। इसके अलावा, पूरी दुनिया में जांच किटों की भारी कमी है, खासतौर से त्वरित जांच किटों की। सिर्फ चुनिंदा देश हैं, जो त्वरित जांच किट बनाते हैं, और इनमें से एक चीन भी है। अंतत: भारत ने अपने यहां जांच का काम शुरू किया और 16 अप्रैल तक दो लाख छियासी हजार सात सौ चौदह लोगों की जांच की, यानी प्रति दस लाख व्यक्तियों पर दो सौ बीस लोगों की जांच।
एनफोर्समेंट : पूर्णबंदी की घोषणा करना एक चीज है और इसे लागू करवाना दूसरी। पूर्णबंदी की सिफारिश बहुत पहले कर दी गई थी, कुछ राज्यों ने अपने कुछ हिस्सों में इसे मार्च के तीसरे हफ्ते में लागू कर दिया था, केंद्र सरकार ने अपने इरादे का कोई खुलासा नहीं किया और 24 मार्च को रात आठ बजे प्रधानमंत्री ने आधी रात से देशव्यापी बंदी का एलान कर दिया, मुश्किल से चार घंटे की सूचना पर। इससे लोगों में आतंक मच गया। किसी को यह भरोसा नहीं रह गया था कि अगले दिन और उसके बाद काम या नौकरी रहेगी भी या नहीं, किसी को यह नहीं पता था कि घर पर रहने के लिए उन्हें पैसा दिया जाएगा या नहीं (घर पर रहने के लिए नगदी की जरूरत पड़ती है)। 25 मार्च को वित्तमंत्री ने जब भारी-भरकम ‘राहत पैकेज’ जारी किया, जिसमें लाखों गरीबों, खासतौर से प्रवासी कामगारों को छोड़ दिया गया था, तो बांध टूट गया। घबराहट अराजकता में बदल गई और उसके बाद जो हुआ, वह भारत में हमेशा के लिए एक धब्बा बना रहेगा।
परिणाम
संघवाद : सबसे पहले इसे खिड़की से बाहर निकाल फेंक देना चाहिए था। स्वास्थ्य, साफ-सफाई, जांच, लोगों को अलग-थलग रखना, राहत आदि काम भारत के संविधान की दूसरी सूची (राज्य सूची) में आते हैं। लेकिन खजाने की चाबी केंद्र सरकार के पास है। राज्य सरकारें बिना केंद्र सरकार की मंजूरी के कर्ज नहीं ले सकती हैं। नतीजा यह होता है कि सारी शक्तियां केंद्र के पास आ गई हैं और राज्यों को सिर्फ मांगने की नौबत तक ला दिया गया है। राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने पैसे की मांग के लिए पत्र भेज रखे हैं, जिनका कई हफ्तों से जवाब भी नहीं दिया गया है।
गरीब : आबादी के एक हिस्से को पूर्णबंदी तक के लिए अपने हाल पर छोड़ दिया गया है। ये लोग कैसे जिंदा रहेंगे, इस बात को लेकर केंद्र सरकार की कोई प्राथमिकता नजर नहीं आती। मुख्यमंत्री सकते में हैं। बड़े पैमाने पर भुखमरी है, कुपोषण की भी मार पड़ रही है। सरकार तीस लाख करोड़ रुपए के व्यय बजट में से क्यों नहीं पैंसठ हजार करोड़ रुपए आवंटित कर देती, ताकि आधे परिवारों को नगदी के रूप में मदद पहुंचाई जा सके, यह रहस्य ही बना हुआ है।
अर्थव्यवस्था : पहली तिमाही में यह शून्य तक आ जाएगी। सामने कोई योजना नहीं है। अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए विचारों, योजना और कारगर तरीके से उस पर अमल जरूरी है। कम प्रतिभा वाली सरकार को, अगर वह वाकई गंभीर है, डा. रघुराम राजन, डा. अरविंद पानगड़िया, डा. एस्थर डुफ्लो, डा, अरविंद सुब्रमण्यम, डा. आइजैक थॉमस, डा. हिमांशु, डा. ज्यां द्रेज और डा. साजिद शेनॉय जैसे अर्थशास्त्रियों को शामिल करते हुए कार्यबल बनाना होगा, जो उन कामों के बारे में अपने सुझाव देंगे जिन्हें अभी किया जाना बाकी है।
खबरें: सरकार के बयान खबरें हैं और आलोचनाएं फर्जी खबरें। बुरी खबर यह है कि जांच में संक्रमित निकलने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, ग्राफ ऊपर जाकर हॉकी स्टिक की तरह मिल जा रहा है। अच्छी खबर यह है कि पैदल सेना और कोरोना योद्धा कमांडर की आज्ञा का पालन कर रहे हैं, भले उनकी आपत्तियां क्यों न हों, और दुश्मन के खिलाफ साहस के साथ लड़ रहे हैं।
जय हिंद!