कबीर बेधड़क बाजार में आने-जाने वाले आदमी हैं। बीच बाजार में खड़े होने का असम साहस कबीर में है। वे अपने काते-बुने कपड़े भी लेकर बाजार में निकलते रहे हैं। वे अपनी कविता भी लेकर बाजार में निकलते रहे हैं। वे अपनी लुकाठी लेकर भी बाजार में निकलते रहे हैं। कबीर के हाथ में वस्त्र भी था। कविता भी थी। लुकाठी भी थी। बड़ा विस्मय होता है। इस विस्मय जनक विरल आदमी को देख पाने के लिए बराबर मन मचलता रहता है। मन का क्या, मन तो जाने किस-किस के लिए, किन-किन चीजों के लिए मचलता रहता है। मगर कुछ भी कहां हो पाता है। लगता है, हमारे समय में हमारा और हमारे जैसों का मन सिर्फ मचलने के लिए रह गया है। खैर!

कबीर की कविता जीवन के अंतर और बाह्य दोनों छोरों के सच को छूती कविता है। कबीर के वस्त्र उनके न होने के बाद भले सुलभ न रह गए हों, मगर उनकी कविता आज भी हमारे लिए ओढ़ने-पहनने के काम की बनी हुई है। कविता का ओढ़ने-पहने के काम का बने रहना कविता के लिए कैसा है, इसका निर्णय बड़ा मुश्किल है।
कुछ लोगों का तर्क है कि कबीर की कविता में हिंदू धर्म के प्रतीकों, पद्धतियों और आचार-व्यवहार की जितनी गहरी पकड़ मिलती है, उससे उनका हिंदू होना सिद्ध होता है। मजेदार बात है कि कबीर की जाति के बारे में इतिहास में बहस करने का अवकाश है। तर्क रखने की गुंजाइश है। सवाल है कि कबीर की जाति तय कर लेने से उनकी कविता के अर्थ में, उसकी व्यंजना में, उसकी व्याप्ति में कुछ फर्क पड़ने की संभावना दिखाई देती है क्या? अगर ऐसा है, तो ठीक। चलो पहले जाति ही तय कर लें। कविता जो जाति-धर्म की सरहदों को पार करके पैदा होती है, उसको समझने के लिए जाति-निर्धारण की आवश्यकता कितनी बेधक है। जहां तक हिंदू प्रतीकों, विश्वासों और व्यवहारों की जानकारी और कविता में प्रयोग की बात है, इसी तर्क के आधार पर जायसी और रहीम को भी हिंदू होना पड़ेगा। पर कबीर के हिंदू ठहरा दिए जाने से हिंदुओं को कोई अतिरिक्त लाभ मिल सकेगा क्या? कबीर के हिंदू न होने की दशा में हिंदुओं को उनकी वजह से कुछ नुकसान उठाना पड़ता है क्या?

इसके उलट कुछ लोग प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं कि कबीर को मुसलिम धर्म-व्यवहार की सही जानकारी नहीं थी। उनकी कविता में इस्लाम की रीति-नीति का त्रुटिपूर्ण वर्णन अनेक जगहों पर मिलता है। उनके विचार से कबीर मुसलमान नहीं मालूम पड़ते हैं। कितना विलक्षण विपर्यय है। कबीर को लेकर यह विपर्यय कितना बेधक है। कोई कबीर को हिंदू साबित करने पर तुला है। कोई धर्मनिरपेक्ष कहा जाने वाला लेखक कबीर को मुसलमान न मानने पर आमादा है। दोनों की निष्पत्तियां एक ही हैं। कितना आश्चर्यजनक है, विचार के दो ध्रुवों पर स्थित विचारकों का कबीर को लेकर एक जैसा निर्णय। साहित्य के लिए दोनों की सोच कितनी निरर्थक है। पता नहीं क्यों, पता नहीं कैसे हमारे समय में कबीर से अधिक महत्त्व की चीज उनकी जाति हो गई है। क्या अब कविता के बारे में भी राजनीतिक दलों की गर्हित चिंतन धारा के समांतर जातीय आधार पर सोशल इंजीनियरिंग के नुस्खे आजमाने का समय शुरू होने वाला है? अगर ऐसा होने वाला है, तो कितने शर्म की बात है! कितनी ग्लानि की बात है!

दलित विमर्श के एक क्रांतिकारी कवि ने बताया कि उनका पक्का विश्वास है कि कबीर की स्वाभाविक मृत्यु नहीं हुई थी, बल्कि कट््टरपंथियों ने उनकी हत्या कर दी थी। उन्होंने बताया कि उनके विश्वास का आधार यह है कि कबीर की क्रांति चेतना को कट््टरपंथी कभी बर्दाश्त कर ही नहीं सकते। कबीर जैसी कविता लिखने वाले की हत्या अवश्यंभावी है। इस दारुण सच पर इतिहासकारों ने जान-बूझ कर पर्दा डालने के लिए चामत्कारिक घटनाओं की परिकल्पना रच कर उनकी मृत्यु से संबंधित अविश्वसनीय और चामत्कारिक किंवदंतियों को प्रचारित कर दिया है।

मेरा मन कबीर के समय में अपने को और अपने समय में कबीर को देखने को विकल है। मैं देख रहा हूं, हमारे समय में कबीर बीच बाजार में खड़े हैं। उनके हाथ में लुकाठी है। जलती हुई लुकाठी। उनकी लुकाठी में उनकी कविता की आग जल रही है। यह आग उनके आत्मबोध के तेल से प्रज्ज्वलित है। बिना आत्मबोध के पाखंड को जलाने वाली कोई आग जल ही नहीं सकती। मगर हमने तो कबीर की कविता में व्याप्त उनके आत्मबोध को न जाने कब से ठुकरा रखा है। केवल पाखंड विडंबन को पकड़ रखा है। अब उनके पाखंड बिडंबन को भी हम भुनाने की जुगत में लगे हैं। हिंदू सोच रहे हैं, हिंदुओं के पाखंड पर प्रहार करने वाला हिंदू ही हो तो बेहतर है। इसलिए वे कबीर को हिंदू सिद्ध करने पर तुले हैं। मुसलमानों को इस्लाम में व्याप्त पाखंड को उजागर करने वाला मुसलमान किसी हाल में कबूल नहीं है। इसलिए वे कबीर को मुसलमान न मानने के पक्ष में हैं।

इधर कबीर हैं कि हमारे लोकतंत्र के सट््टा बाजार में अपनी कविता की लुकाठी लिए खड़े हैं। कबीर उस बाजार में खड़े हैं, जहां आदमी आदमी नहीं, महज एक वोट है। वोट खरीदने और बेचने की दुकानें सजी हैं। जाति के मूल्य पर, धर्म के मूल्य पर, धर्म निरपेक्षता के मूल्य पर, पिछड़े और दलित के मूल्य पर, विकास के वादे के मूल्य पर, वोट खरीद-फरोख्त का धंधा बाजार में अपने रंग में है। हर दुकानदार कबीर को अपनी दुकान में घसीट लाना चाहता है। सारे दुकानदारों ने कबीर की लुकाठी पर पानी फेंक कर बुझा दिया है। सबने मिल कर उनकी लुकाठी उनसे छीन कर सड़क पर फेंक दी है। बीच सड़क पर कबीर की बुझी हुई लुकाठी पड़ी है। कबीर को अपनी दुकान में अपने उत्पाद के विज्ञापन के लिए खींच लाने को दुकानदारों में धक्का-मुक्की मची हुई है।
सभी अपनी-अपनी दुकान की तरफ खींच रहे हैं कबीर को।

मगर कबीर हैं कि टस से मस नहीं हो रहे हैं। कबीर बीच बाजार में, बीच सड़क में खड़े हैं, सभी दुकानों से समान दूरी पर। कबीर अकेले रहेंगे, मगर किसी दुकानदार के साथ नहीं जाएंगे। वे न हिंदू दुकानदार के साथ होंगे, न मुसलिम दुकानदार के साथ, न किसी अन्य जाति के दुकानदार के साथ। कबीर की कविता दुकानों से बाहर रह कर दुकानदारों को धिक्कारती रहेगी। कबीर हिंदू साबित हों, न हों कोई फर्क नहीं पड़ता। वे हिंदू धर्म के निंदक नहीं है। वे सिर्फ हिंदू अंधता के समर्थक नहीं हैं। कबीर को मुसलमान मानें न मानें, वे इस्लाम के विरोधी नहीं है। वे सिर्फ इस्लामिक कठमुल्लेपन के उपासक नहीं हैं। जहां भी पाखंड है, अंधापन है, छल है, दिखावा है, कबीर की कविता उसका उपहास करती रहेगी।
किसी भी समय में बाजार चाहे जितना कुत्सित रूप धारण कर ले, चाहे जितना हत्यारा रूप अख्तियार कर ले, मगर उसकी स्वार्थी कट््टरता कभी भी कबीर की कविता की हत्या करने की कूबत नहीं पा सकती। कबीर की कविता हमेशा दुकानदारों को बीच बाजार धिक्कारती रहेगी।