अस्मिताओं के उभार को उत्तर-आधुनिकता से जोड़ कर देखा जाता है। आधुनिकता के बृहद आख्यान का प्रत्याख्यान है उत्तर-आधुनिकता। अस्मिताएं बृहद आख्यानों के भीतर उपेक्षित समूह हैं। अनसुनी आवाजें हैं। संज्ञान में न लिए गए अनुभव हैं। राष्ट्र के रूप में भारत एक बृहद आख्यान है। स्त्री, दलित और आदिवासी समुदाय इसके भीतर की वंचित अस्मिताएं हैं। इन अस्मिताओं का प्रकटन बृहद आख्यान में टूटन या दरार की तरह है। अस्मिताओं का स्वर नम्र नहीं होता। वे जोर से बोलती हैं। जोर से बोलना ही आक्रोश है। आक्रोश जब क्रिया रूप में आता है तो आंदोलन कहा जाता है।
बृहद आख्यान को घेरने की क्षमता आंदोलन में ही होती है। आंदोलन अस्मिता को प्रतिष्ठित करते हैं। प्रतिष्ठा क्रमश: प्रतिष्ठान में परिवर्तित होती है। प्रतिष्ठान बृहद आख्यान के प्रतिरूप बन सकते हैं, बहुधा बन जाते हैं। आंदोलन का सातत्य अस्मिता को प्रतिष्ठान बनने से रोकता है। वह अस्मिता के भीतर की दबी आवाजों को बाहर लाता है। उन्हें समर्थन देता है। दलित आंदोलन के अखिल भारतीय प्रसार को समझने के लिए एक बानगी के तौर पर गुजराती दलित साहित्य का अध्ययन इस दृष्टि से किया जा सकता है।
महाराष्ट्र से सटे इस प्रांत का दलित लेखन यह दर्शाता है कि भारतीय दलित आंदोलन निरंतर विकसनशील है और इसलिए वह बहुआयामी, बहुमुखी है। मराठी दलित साहित्य को प्रतिमान मान कर उसकी कसौटियों पर अन्य भाषाओं के दलित लेखन का मान-मूल्य तय करना निरापद नहीं है।
महाराष्ट्र में दलितों की आबादी कुल आबादी का दस प्रतिशत है, जबकि गुजरात में सात प्रतिशत। दोनों प्रांतों में दलित आंदोलन लगभग समांतर चले। दलित पैंथर का निर्माण महाराष्ट्र में 1973 में हुआ तो गुजरात में 1975 में। मोहन परमार के नेतृत्व में गुजरात का दलित पैंथर आंदोलन साहित्यिक अभिव्यक्तियों में ही ज्यादा सक्रिय दिखा। इस साहित्य की राजनीतिक समझ व्यावहारिक राजनीति में परिणत न हुई। गुजरात के दलित आंदोलन में उछाल 1980 के आसपास आरक्षण-विरोधी हिंसक अभियान के दौर में आया। साहित्य में गुजराती दलित रचनाकारों की सक्रियता इसके बाद उल्लेखनीय रूप से बढ़ी।
1997 में गुजराती दलित साहित्य अकादमी की स्थापना हुई। अकादमी की प्रतिबद्धता, अथक और अटूट प्रयासों ने गुजराती दलित साहित्य को जिस ऊंचाई पर पहुंचाया उससे तमाम सरकारी, गैर-सरकारी, दलित और गैर-दलित अकादमियां प्रेरणा ले सकती हैं। साहित्य को संस्थागत तरीके से कैसे आगे बढ़ाया जाए, इस अकादमी की कार्यप्रणाली और विजन एक अनुकरणीय उदाहरण हो सकता है। गुजराती दलित साहित्य अकादमी ने अब तक पचास से अधिक ग्रंथ प्रकाशित किए हैं। गौरतलब है कि अकादमी गुजराती के साथ हिंदी और अंगरेजी में भी पुस्तकें छापती है। इस तरह वहां का दलित लेखन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहुंच बनाता है।
कई अन्य प्रांतों के दलित साहित्य की तुलना में गुजराती दलित साहित्य का स्वर कम आक्रामक है। न्यूनता रोष की मात्रा में नहीं, उस रोष पर तिक्तता के आलेपन में है। कारणों की खोज करें तो पहला कारण यहां के इतिहास में मिल जाएगा। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में यहां के एक दलित नायक मायानंद ने तत्कालीन राजा से अपने प्राणों के बदले अनुबंध किया था। इस अनुबंध की शर्तों के अनुसार दलितों पर लादे गए तमाम अपमानजनक प्रतिबंध हटा लिए गए थे। पड़ोस के राज्यों मसलन, महाराष्ट्र में ये प्रतिबंध- गले में मटका, कमर में झाडू आदि जारी रहे। स्वाभिमान की चेतना का अंकुरण और विकास होने पर प्रतिक्रिया उसी अनुपात में उग्र होनी थी। दूसरा कारण गांधी और गांधीवादी आंदोलनों के असर से जुड़ा है। गांधी का प्रदेश होने के कारण उनका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
यहां के दलित मानवाधिकार संगठनों के लिए गांधीवादियों की भूमिका शत्रुवत नहीं, कई दफा सहयोगी के तौर पर नजर आई। गुजराती दलित रचनाकारों ने गांधी की सीमाओं को पहचाना और उनसे खूब बहस की, मगर उनका रवैया उन्हें सिरे से खारिज करने का कभी नहीं रहा। प्रवीण गढ़वी की एक कविता का आरंभ यों होता है- ‘न राम, न कृष्ण, न बुद्ध/ कोई नहीं आए थे मेरी चंपारण्य की झुग्गी में/ भिनभिनाती मक्खियों,/ जोरों की भूख,/ और चर्मकार कुंड की दुर्गंध के बीच/ मेरे अनलिखे इतिहास का/ गांधी, तुम ही पहला पाठ बने।’
आक्रामकता में कमी का तीसरा कारण अधिकतर दलित रचनाकारों का सरकारी नौकरी में होना माना जा सकता है। महाराष्ट्र में पैंथर की पहली कतार शुद्ध कार्यकर्ताओं की थी। वे ऐसे प्रतिबद्ध एक्टिविस्ट थे जिनका व्यक्तिगत कुछ भी दांव पर नहीं लगा हुआ था। उनका रोष अनुकूलित हुए बिना प्रकट होता था। इसके बरक्स गुजराती के दलित कार्यकर्ताओं और लेखकों को सेवा-शर्तों का ध्यान रखना लाजमी था। महाराष्ट्र सहित कई प्रदेशों में वाम विचारधारा के नरम से लेकर गरम धड़ों की सांगठनिक सक्रियता थी और उनका दलित राजनीति, सामाजिक आंदोलन और साहित्य-सृजन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संवाद और हस्तक्षेप था। गुजरात इसका अपवाद रहा। दलित साहित्य की पूर्वपीठिका के रूप में देखी गई मार्क्सवादी साहित्य धारा यहां नहीं पनपी। गुजरात के दलित स्वर के वैशिष्ट्य की एक वजह यह भी मानी जा सकती है।
गुजराती दलित साहित्य में संपादित कविता संकलनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। दलित रचनाकारों की संगठित आवाज इन संकलनों के जरिए निर्मित हुई। दलित कविता का पहला संग्रह ‘चिनगारी’ (1982) माना जाता है। इसी वर्ष चंदू महेरिया और बालकृष्ण आनंद ने ‘विस्फोट’ शीर्षक से दूसरा संग्रह प्रकाशित कराया। 1987 में राजू सोलंकी ने ‘एकलव्य नो अंगूठो’ और 1992 में नीलेश काथड़ ने ‘मानस’ का संपादन किया। इसके बाद अनेक संग्रह चर्चित रहे। अपने संग्रह ‘क्यां छे सूरज’ में दलपत चौहान ने लिखा कि उनके पुरखों का सूर्य चुरा लिया गया था और उसके बाद से दलित अंधेरे में हैं। कार्ल मार्क्स, जोतिबा फुले और डॉ. आंबेडकर ने न सिर्फ इस चोरी का स्मरण कराया, बल्कि उस सूर्य को वापस लाने के लिए संघर्ष भी किया।
राजू सोलंकी ने ‘मशाल’ की एक कविता में दर्ज किया- ‘हरिजनों को आरक्षण/ डालेगा गुणवत्ता और क्षमता पर/ बुरा असर/ मेरी झोपड़ी के सामने जुटी भीड़/ गालियां देते हुए चिल्लाती है/ सुरक्षित दूरी पर खड़ा एक पीत पत्रकार/ धू-धू करती मेरी झोपड़ी के फोटो खींचता है/ अगले दिन अखबारों की हैडलाइन/ घोषणा करती है-/ आरक्षण ने देश की प्रगति बाधित कर दी है।’
गुजराती दलित रचनाकारों ने आत्मकथा लेखन में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। अलबत्ता, कहानी और उपन्यास विधाओं में इनकी गति बहुत तीव्र रही। कहानियों का पहला संपादित संग्रह ‘चांदनी’ पत्रिका ने 1985 में विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया। 1987 में ‘गुजराती दलित वार्ताओ’ नामक संग्रह छपा। 1995 में अजित ठाकोर ने एक संकलन छपवाया। इसके बाद संपादित और व्यक्तिगत संकलनों का सिलसिला चल निकला।
गुजराती दलित साहित्य की नींव मजबूत है। उसकी उपलब्धियां गौरवपूर्ण हैं। उसका वर्तमान समृद्ध प्रतीत होता है। लेकिन, अपने भविष्य को लेकर उसे ज्यादा सावधान होना पड़ेगा। नई पीढ़ी के बहुत कम रचनाकार उसकी ओर उन्मुख हो रहे हैं। दलित स्त्रियां तो अत्यल्प हैं! अभी यहां के संगठनों की आंदोलनधर्मिता शिथिल है। हिंदूवादी ताकतों से उनकी टकराहट समाप्तप्राय लगती है।