आज न सिर्फ सूचना-प्रौद्योगिकीय परिवेश तेजी से बदला है, बल्कि हमारा समाज भी उसका अभ्यस्त हो रहा है। देश की बहुसंख्यक युवा पीढ़ी डिजिटल समाज का नागरिक है। सूचना-प्रौद्योगिकी आज ऐच्छिक नहीं, बल्कि अनिवार्य प्रसंग बनने की ओर अग्रसर है। ऐसी स्थिति बन चुकी है कि विभिन्न सूचना-प्रौद्योगिकीय उत्पादों से राजनीतिक दल जन-समर्थन, सरकार प्रशासनिक कार्य-कुशलता और आमजन लोकतांत्रिक हस्तक्षेप की अपेक्षा करने लगे हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार नवंबर, 2014 तक विश्व की इकतालीस प्रतिशत आबादी इंटरनेट से जुड़ चुकी थी, जिसमें अड़तालीस प्रतिशत भागीदारी एशिया से थी। इसकी गति को इस तरह समझा जा सकता है कि शुरुआती दस हजार लोगों तक पहुंचने के लिए रेडियो को तिरालीस, टीवी को अट्ठाईस और कंप्यूटर को ग्यारह वर्ष लगे थे, जबकि इंटरनेट को इतने लोगों तक पहुंचने में महज एक वर्ष चार महीने लगे। आज इंटरनेट की सहभागिता भारतीय अर्थव्यवस्था में इसके ‘सकल घरेलू उत्पाद’ की दृष्टि से स्वास्थ्य और सेना से अधिक है। उम्मीद की जा रही है कि 2020 तक यह भागीदारी चार प्रतिशत तक हो जाएगी और इससे देश में पंद्रह से बीस लाख नए लोग रोजगार से जुड़ जाएंगे।
जब समाज में कोई बदलाव इतनी तेजी से होगा, तो मानवीय संप्रेषण और संपर्क की माध्यम यानी ‘भाषा’ उससे अछूती नहीं रह सकती। हालांकि किसी भी जीवंत भाषा के लिए उसमें आंतरिक बदलावों को ग्रहण करने की क्षमता का होना भाषाई विकास के लिए आवश्यक होता है, लेकिन वर्तमान बदलाव में सूचना-प्रौद्योगिकीय हस्तक्षेप एक अलग परिदृश्य का निर्माण कर रहा है। डेविड क्रिस्टल (2010) ने कहा था कि ‘भाषा में धीरे-धीरे बदलाव स्वाभाविक है, लेकिन इंटरनेट ने इन बदलाओं की प्रक्रिया में तेजी ला दी है।’ जाहिर है, इन बदलावों से लगातार व्यापक हो रहे डिजिटल संप्रेषण में मुक्त संवाद की गति सीमित ही रहती है, जिससे प्रयोक्ता-वर्ग संवाद में अपूर्णता की कसक महसूस कर रहा है।
भाषा को एक ‘व्यवस्था’ कहा गया है। इसमें अगर वक्ता के वक्तव्य को श्रोता उसी रूप में ग्रहण कर लेता है, तो सार्थक संप्रेषण की प्रक्रिया पूर्ण होती है। सामान्य-सी दिखने वाली यह प्रक्रिया वास्तव में बहुत जटिल होती है। इसमें वक्ता और श्रोता के संप्रेषण के मध्य अनेक कारक सक्रिय रहते हैं, जिसमें भाषिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और अब तकनीकी धरातलों पर समान होना अपेक्षित होता है। हालांकि इन सबके समान होने के बाद भी संप्रेषण के क्रम में अनेक जटिलताएं आतीं हैं। प्रसिद्ध संप्रेषण विज्ञानी एलिसन व्रे (2002, 2008) अंगरेजी पाठ के आधार पर किए गए शोध से यह निष्कर्ष निकालती हैं कि पाठ के सत्तर प्रतिशत भाषाई संकेतों के संदर्भ उस पाठ से बाहर होते हैं, जिनके संप्रेषण के क्रम में पाठक को शब्दों और वाक्यों की भाषिक संरचना से परे जाना होता है।
ध्यान रहे कि भाषा अपने मूल में वाचिक संपत्ति होती है, लेखन उसका द्वितीयक और कामचलाऊ तरीका होता है, यानी किसी कथ्य के सर्वोत्तम संप्रेषण के लिए भाषा का वाचिक रूप ही प्रमुख होता है। अब यहां एलिसन व्रे जो दावा कर रही हैं, वह भाषा के कामचलाऊ रूप यानी लिखित रूप पर ही आधारित है। इस दृष्टि से संप्रेषण की इस चुनौती का कई गुना विस्तार उसके डिजिटल संवादों में होता है, क्योंकि इसमें फॉन्ट और की-बोर्ड के प्रयोग की जटिलताओं से लेकर इसके माध्यम की उपलब्धता और तारतम्यता की समस्याओं से सामना होता है।
इन सबके बीच भाषा का एक नया स्वरूप भी उभरा है, जो संप्रेषण की आंतरिक प्रक्रिया को दुरूह बना रहा है। इसकी शुरुआत मोबाइल के प्रचलन के साथ एसएमएस के प्रयोगों से हुई थी, आज इसका विस्तार सोशल नेटवर्किंग साईट पर चैटिंग से लेकर वाट्स-ऐप के संदेशों तक आया है। इस पूरे प्रकरण में शब्दों का संक्षिप्त रूप बड़ी तेजी से विकसित हुआ है। कई बार संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया ध्वनि के आधार पर होती है, तो कई बार टंकण की सुविधा के अनुरूप। इस क्रम में यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि भाषा एक व्यवस्था के रूप में संवाद के दो छोरों पर सक्रिय दो लोगों के मध्य ही कार्यरत होती है। उसमें भी कई बार समान मानसिक अवस्था के अभाव में संप्रेषण अधूरा रह जाता है।
इस प्रकार ‘डिजिटल संवाद’ आधारित एक नए भाषिक रूप का विकास होता है, जो कई बार चैटिंग समाप्त होने के साथ ही समाप्त भी हो जाता है। इसमें चैट कर रहे दोनों व्यक्ति कुछ नए प्रतीकों का इस्तेमाल कर लेते हैं, जो उनके मध्य ही सीमित रह जाता है और कई बार असंप्रेषित रह जाता है। ध्यान रहे कि डिजिटल भाषिक रूप का यह प्रयोग भाषा की उस मूल अवधारणा से प्राय: इतर है, जिसमें भाषा को यादृच्छिक कहा जाता है, क्योंकि यादृच्छिकता शब्दों में परंपरागत अर्थ भरती है, जबकि डिजिटल संवाद की भाषा के शब्दों में अर्थ भरने और स्वीकार करने की एक तात्कालिक व्यवस्था कार्यरत होती है।
इससे अलग डिजिटल अंतर्वस्तु पर अंगरेजी के वर्चस्व के कारण रोमन लिपि से इतर लिपियों की भाषा के शब्दों का रोमनीकरण होता है। जिससे डिजिटल-संवाद में एक अलग तरह का अवरोध उत्पन्न होता है। हालांकि इसके पीछे अनेक समाजशास्त्रीय और अर्थशास्त्रीय कारक भी होते हैं। हालांकि इस संवाद में अगर वीडियो-चैट होता है, तो वह भाषाई अवरोध को एक हद तक दूर रखता है, क्योंकि इसमें वक्ता-श्रोता के आंगिक भाव भी कार्य कर रहे होते हैं।
इधर ट्विटर ने संवाद का एक भिन्न परिदृश्य तैयार किया है, जो आज जनसंचार के एक सुविधाजनक माध्यम के रूप में उभरा है। लेकिन यह अपनी प्रक्रिया में ही सीमित होता है, क्योंकि आज भी यह एक सौ चालीस वर्णों (मूलत: की-स्ट्रोक) के सार्वजनिक संदेश लिखने की व्यवस्था उपलब्ध कराता है, यूनिकोड और लिपिगत विशेषता के कारण रोमनेतर लिपि वाली भाषाओं के लिए यह शब्द-क्षमता और भी कम हो जाती है। गौरतलब है कि मुक्त अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में लोकप्रिय इंटरनेट का संवाद भी गिने हुए नियंत्रित शब्दों के माध्यम से सामने आ पाता है। यद्यपि प्रयोग के स्तर पर ट्विटर का व्यापक उपयोग यह हुआ है कि आज लोकप्रिय नेता-अभिनेता बिना संवाददाता सम्मेलन बुलाए अपने बयान दर्ज करा देते हैं, जिसे उद्धृत करके विभिन्न समाचार एजेंसियां पूरी खबर बना कर जनसामान्य के सामने परोस दे रही हैं।
नील थाम्पसन ने कहा था कि ‘भाषा महज शब्दों का प्रयोग नहीं होती, बल्कि यह उस जटिल सरणि को संबोधित करती है, जो संपर्क और सामाजिक संवाद के आधार पर परस्पर संबंधों को बांधती है।’ अब डिजिटल संवाद के परिदृश्य में यह उचित ही है कि सुदूर संबंधियों से अपेक्षाकृत कम खर्चे में संपर्क बना रहता है, लेकिन यह भी उसका समांतर सच है कि इस संवाद से संबंधों में इंटरनेट-माध्यम की दुरूहता के कारण अनेक गलतफहमियां भी पैदा हुई हैं। इसके साथ ही इंटरनेट आधारित संवाद ने जहां एक वर्ग को स्वर दिया है, एक तबका ऐसा भी है, जिसमें इसने अवसाद और निराशा पैदा किया है और वंचित तबके की पहुंच की सीमा के बाहर होने के कारण उनका स्वर छीन भी रहा है।
डिजिटल संवाद का यह भी सच है कि किसी व्यक्ति के विश्व भर में सैकड़ों मित्र हैं, लेकिन आस-पड़ोस में उसका किसी से न्यूनतम संबंध भी नहीं है। इसलिए यह आवश्यक है कि उनकी सीमाओं को पहचानते हुए डिजिटल संवाद की विविध प्रक्रियाओं को अपनाया जाए। ध्यान रहे कि वर्चुअल समाज और संवाद की अपनी उपयोगिता हो सकती है, लेकिन यह वास्तविक समाज और संवाद का विकल्प नहीं हो सकता।