हर चीज को देखने के कई तरीके होते हैं। अपराध को ही ले लीजिए। इसे ठेठ मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्या के रूप में देखा जा सकता है और उस पर फिल्म बनाई जा सकती है। साथ ही उसे कॉमेडी के रूप में देखा जा सकता है और बड़े से बड़े अपराधी का मजाक भी उड़ाया जा सकता है। ‘कॉफी विथ डी’ दूसरी तरह की फिल्म है। यहां एक बात और जोड़नी पड़ेगी। प्रकारांतर से यह भी बता दिया जाए कि अप्रत्यक्ष रूप से यहां दाउद इब्राहीम के साथ इस फिल्म में अंग्रेजी के टीवी एंकर अर्णब गोस्वामी को मजाक के निशाने पर रखा गया है। यह दीगर बात है कि इतना होने के बावजूद यह बहुत अच्छी कॉमेडी फिल्म नहीं है। इसमें एक अधपकापन है।
दिखाया यह गया है कि अर्णब घोष (सुनील ग्रोवर) नाम का एक प्राइम टाइम एंकर, जो बेहद बड़बोलेपन और आक्रामकता के साथ अपना कार्यक्रम करता है और स्क्रीन पर अपने अतिथियों को बोलने नहीं देता, रेटिग में अपने चैनल को हमेशा आगे रखता है। लेकिन इसके बावजूद उसका बॉस उससे खुश नहीं होता और एक दिन अर्णब को खाने-पीने के एक शो का प्रभारी बना देता है। अर्णब को सदमा लगता है। उसकी पत्नी पायल (अंजना सुखानी) जो गर्भवती है, को भी ये बात अखरती है। अब जिस एंकर को प्राइम टाइम पर छाने का नशा हो, उसका तो ऐसे में चैन छिन जाएगा ना। सो अर्णब का भी चैन छिन जाता है। पर वो शातिर दिमाग है। इसलिए पत्नी की सलाह पर योजना बनाता है कि उसे किसी तरह माफिया सरगना डी (जो दरअसल दाउद इब्राहीम जैसा है) का इंटरव्यू मिल जाए, तो वो फिर से टीवी की दुनिया में छा जाएगा। और फिर इसके लिए होती है तैयारी। डॉन डी की तरफ से समय भी मिल जाता है और अर्णब अपनी टीम के साथ पाकिस्तान भी चला जाता है। इस टीम में एक फैशन विशेषज्ञ नेहा (दीपानिता शर्मा) भी है। कैसे होता है यह इंटरव्यू और माफिया सरगना उससे क्या क्या बातें करता है, इसी पर सारी फिल्म टिकी है।
कॉफी विथ डी’ वैसे तो टीवी चैनलों की कार्यपद्धति का मजाक उड़ाने और उन पर तंज कसने के मकसद से बनी है लेकिन ऐसे दृश्य बहुत कम हैं जिनसे ये सब होता, इसलिए यह उद्देश्य पूरा नहीं होता। हां, हंसी के कुछ लम्हें हैं, पर वे ठीक से विकसित नहीं हो पाते। जाकिर हुसैन ने माफिया सरगना डी और सुनील ग्रोवर ने टीवी एंकर के रूप में जो काम किया है उनका मजाकिया अंदाज जरूर दर्शकों को लुभाता है, पर एक सीमा के बाद वे भी बोर करते हैं। हालाकि इस क्षेत्र में बाजी मार ले गाए हैं पंकज त्रिपाठी, जो डी के सहयोगी के रूप में कई दृश्यों में खूब जमें हैं। फिल्म जिस सोच के साथ बनी उसमें थोड़ी सी मौलिकता जरूर है मगर किस दृश्य को कितना बड़ा या छोटा रखा जाए, इस पर निर्देशक का या तो ध्यान नहीं गया है या उसकी जरूरत नहीं समझी गई है। वैसे स्क्रीन पर बहुत ज्यादा बड़बोलापन दिखाने वाले टीवी एंकर इसे देखेंगे तो उनको यह एहसास तो होगा ही कि उनके कई अंदाज जोकरों वाले होते हैं। उनको आईना दिखा देना इस फिल्म की एक सीमित सफलता मानी जा सकती है।