पहली बात तो यह कि अगर सीबीआइ वालों ने इस फिल्म को देखा तो वे इस बिना पर सिर धुनते रह जाएंगे कि फिल्मी दुनिया में उनकी कैसी गई बीती छवि है। सीबीआइ पर अकसर सरकार के दबाव में काम करने का आरोप लगता है। लेकिन उसके घनघोर आलोचकों ने भी नहीं सोचा होगा सीबीआइवाले बैंक चोरों को पकड़ने का काम करेंगे। लेकिन हिंदी फिल्मों के लेखक और निर्देशक जो न करा दें। ‘स्पेशल 26’ में सीबीआइ की पूरी मशीनरी गहनों की चोरों के पीछे लगी थी। यानी फिल्मवाले सीबीआइ से (फिल्मों मे) वो काम भी ले सकते हैं जो सरकार को भी कराने में शर्म आए। संक्षेप में यह कि ‘बैंक चोर’ में सीबीआइ की प्रतिष्ठा मटियामेट कर दी गई हैं और विवेक ओबेराय ने अमजद खान नाम के जिस सीबीआइ अधिकारी का किरदार का निभाया है, वह चोरों चकारों को पकड़ने में लगाया गया है।

फिल्म में रितेश देशमुख ने चंपक नाम के ऐसे शख्स का किरदार निभाया है जिसको पारिवारिक वजहों से पैसों की जरूरत है। पैसा कहां से आए? इस सवाल पर गौर करने के बाद उसे लगता है कि बैंक लूटा जाए। चंपक अपने दो दोस्तों गुलाब (भुवन अरोड़ा) और गेंदा (विक्रम थापा) को भी अपने इस अभियान का हिस्सा बनाता है। चंपक मराठी है लेकिन गुलाब और गेंदा दिल्ली के हैं। इस पृष्ठभूमि का भी फिल्म में इस्तेमाल किया गया है। यानी हंसी पैदा करने के लिए। बहरहाल, चोरों की ये तिकड़ी मिलकर मुबंई में ‘बैंक आॅफ इंडियंस’ नाम के एक बैंक को लूटने की योजना बनाती है और उसे अमली जामा पहनाने की राह पर निकल पकड़ती है।

यहां तक तो मामला ठीक था और हंसी का पूरा डोज दर्शकों को मिलता है। लेकिन इसके बाद मामला कुछ संगीन हो जाता है। कहानी में पेंच दर पेंच पैदा होते हैं और दर्शकों का वक्त हंसने में नहीं बल्कि उस माजरे की हकीकत समझने में लग जाता है कि चोरी के पीछे वास्तविक वजहें क्या हैं। फिल्म की कहानी में घुमावदार गलियां शुरू होती है और न ठीक से भूलभूलैया बन पाता है और न हंसी के मसाले तैयार हो पाते। हालांकि चुटकुले शुरू से आखिर तक हैं और कुछ द्विअर्थी संवाद भी। लेकिन सिर्फ उनके बल पर ही तो पूरी फिल्म नहीं बन सकती न।

फिल्मों में जो चोरी या चोरियां दिखाई जाती है वो मोटे तौर या तो एक्शन वाली होती है या फिर मसखरेपन वाली। पहली तरह की ‘धूम’ शृंखला की फिल्में हैं। (वैसे ‘बैंक चोर’ देखते हुए ‘धूम’ की याद भी आती हैं)। ‘बैंक चोर’ दूसरी तरह की है और इसमें चुटकुलेबाजी अधिक है। हालांकि रितेश देशमुख एक अच्छे हास्य कलाकार हैं। पर ‘एक विलेन’ और ‘बैंजो’ जैसी फिल्मों से वे अलग और गंभीर अभिनेता बनने की राह पर चल पड़े हैं। शायद इसलिए अब हास्य पर उनकी पकड़ छूटती जा रही है। उनकी और विवेक ओबेराय की जोड़ी ने कुछ अच्छी हास्य फिल्में दी हैं पर विवेक भी कुछ बरसों से अपनी धुरी से अलग चले गए हैं। सलमान खान से पंगा लेने के बाद उनके पास अच्छी फिल्में, बतौर नायक, कम आईं। इस फिल्म से भी उनको ज्यादा अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
रिया चक्रवर्ती एक टीवी रिपोर्टर बनी हैं लेकिन उनके पास कुछ ज्यादा करने को नहीं है। निर्देशक बंपी की ये दूसरी फिल्म है और इसको अगर पैमाना बनाया जाए एक अच्छी हास्य-फिल्म बनाने के लिए उनको और मेहनत करनी होगी। वैसे सूचना के लिए ये जानना भी दिलचस्प होगा कि इस फिल्म में पहले कपिल शर्मा (टीवी शो वाले) को होना था पर यशराज फिल्म से उनका मामला कुछ गड़बड़ हो गया और उनकी जगह रितेश आ गए।

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