मदन गुप्ता सपाटू

पितृ पक्ष, में लोग अपने पूर्वजों को याद करने के साथ उनको धन्यवाद करते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। धर्म शास्त्रियों और विद्वानों के अनुसार, ये दिन केवल पितरों के लिए होते हैं और इस समय आपका ध्यान केवल उनके तर्पण और उनको याद करने में होना चाहिए। वहीं, अगर आप इस दौरान नए कपड़े, घर या कोई और चीज खरीदते हैं या खरीदने के बारे में सोचते हैं, तो आपका ध्यान अपने पितरों पर से हट जाएगा और वे आपसे नाराज हो जाएंगे। मान्यता है कि इस दौरान हमारे पितृ या पूर्वज धरती पर हमसे मिलने आते हैं और हमें अपना आशीर्वाद देते हैं, लेकिन पितृपक्ष को लेकर लोगों में कई तरह की धारणाएं भी हैं… जैसे इन दिनों को अशुभ माना जाता है और इस समय कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिए, कुछ नया नहीं खरीदना चाहिए, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, मांस मछली नहीं खाना चाहिए आदि।

ऐसा माना जाता है कि इन दिनों में किसी भी तरह की नई चीज, जैसे घर, कपड़े, सोना आदि नहीं खरीदने चाहिए। मान्यता है कि श्राद्धों में खरीदी गई सभी वस्तुएं पितरों को समर्पित होती हैं, जिनका उपयोग करना उचित नहीं होता है क्योंकि उनमें आत्माओं का अंश होता है। लोगों का यह भी मानना है कि अगर इस वक्त कोई नई चीज खरीदी जाएगी, तो उससे हमारे पितरों को दु:ख होगा और वो नाराज होंगे। ऐसा इसलिे भी है क्योंकि पितृपक्ष उत्सव का नहीं, बल्कि एक तरह से शोक व्यक्त करने का।
वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं?
अक्सर आधुनिक युग में श्राद्ध का नाम आते ही इसे अंधविश्वास की संज्ञा दे दी जाती हैं। प्रश्न किया जाता है कि क्या श्राद्धों की अवधि में ब्राह्रमणों को खिलाया गया भोजन पित्तरों को मिल जाता है? पृथ्वी लोक में दिया और परलोक में मिल गया? फिर जीते जी हम माता-पिता को नहीं पूछते …मरणोपरांत पूजते हैं! ऐसे कई प्रश्न हैं जिनके उत्तर तर्क से देने कठिन होते हैं फिर भी उनका औचित्य अवश्य होता है। ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दुओं में ही मृतकों को याद करने की प्रथा है, ईसाई समाज में निधन के 40 दिनों बाद एक रस्म की जाती है जिसमें सामूहिक भोज का आयोजन होता है। बौद्ध धर्म में भी ऐसे कई प्रावधान है। तिब्बत में इसे तंत्र-मंत्र से जोड़ा गया है। पश्चिमी समाज में मोमबत्ती प्रज्जवलित करने की प्रथा है।

प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं? कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिंड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कंद पुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है। एक बार राजा करंधम ने महायोगी महाकाल से पूछा, ‘मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिंडदान किया जाता है तो वह जल, पिंड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’

भगवान महाकाल ने बताया कि विश्व नियंता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरूप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गईं स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। 5 तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति- इन 9 तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर 10वें तत्व के रूप में साक्षात भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं इसलिए देवता और पितर गंध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से तृप्त रहते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वे वर देते हैं।
पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व
जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सारतत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।
किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार?
नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितर देव योनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है। यदि गंधर्व बन गए हैं, तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है। यदि पशु योनि में हैं, तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है। नाग योनि में वायु रूप से, यक्ष योनि में पान रूप से, राक्षस योनि में आमिष रूप में, दानव योनि में मांस रूप में, प्रेत योनि में रुधिर रूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता है।

मान्यताएं

29 सितंबर को अष्टमी तिथि के श्राद्ध के अलावा महालक्ष्मी व्रत रखने की भी परंपरा है। इसे संतान की दीघार्यु के लिए माताएं रखती हैं। सप्तमी तिथि मंगलवार 28 तारीख की शाम 6 बज कर 17 मिनट पर समाप्त हो जाएगी और अष्टमी आरंभ हो जाएगी। बुधवार 29 तारीख का पूरा दिन, 8 बज कर 30 मिनट तक अष्टमी रहेगी और श्री महालक्ष्मी व्रत रखा जा सकता है। इसे जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहा जाता है। इस दिन पितृपक्ष होने के बावजूद सोना, वाहन, गृह संबंधी तथा लक्जरी सामान खरीदे जा सकते हैं। श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य वर्जित माने जाते हैं परंतु इस मध्य कई ऐसे मुहूर्त हैं जब आप जम कर खरीदारी कर सकते हैं। नीचे दिए गए विशेष मुहूर्तों में भी आप सामान खरीद सकते हैं।