गुरु का दर्जा भगवान के बराबर माना जाता है क्योंकि गुरु, व्यक्ति और सर्वशक्तिमान के बीच एक कड़ी का काम करता है। संस्कृत के शब्द गु का अर्थ है अन्धकार, रु का अर्थ है उस अंधकार को मिटाने वाला। आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन होने के कारण कहीं-कहीं इस पर्व को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।
वेदों के रचयिता वेदव्यास प्रकांड विद्वान थे। इसके कारण उन्हें वेद व्यास भी कहा जाता था। वेद व्यास ने वेदों के सार ब्रह्मसूत्र की रचना भी इसी दिन की थी। वेद व्यास ने वेद ऋचाओं का संकलन कर वेदों को चार भागों में बांटा था। गुरु पूर्णिमा अर्थात गुरु के ज्ञान एवं उनके स्नेह का स्वरूप है। हिंदू परंपरा में गुरु को ईश्वर से भी आगे का स्थान प्राप्त है।
गुरु के सानिध्य में पहुंचकर साधक को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त होती है। इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद पाया जाता है। इस दिन केवल गुरु ही नहीं, अपितु माता-पिता व बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा के दिन साधक अपने जीवन में साधना का नया संकल्प लेता है। गुरु पूर्णिमा का पर्व साधक को अपने जीवन में साधना के प्रति सचेत करने का पर्व है। मंत्रदाता सदगुरु के प्रति जितनी श्रद्धा होगी, जितना आदर होगा, उतना ही अधिक लाभ होता है।
नांइ माने मेरौं मनुआं मै तो गोवर्धन कूं जाऊ मेरी वीर।
सात कोस की दे परिक्रमा मानसी गंगा नहाऊ मेरी वीर।।
मुड़िया पूनों के नामकरण का संबंध चैतन्य महाप्रभु संप्रदाय के आचार्य सनातन गोस्वामी से है। उनका निधन हो जाने पर उनके शिष्यों ने शोक में अपने सिर मुंडवा कर कीर्तन करते हुए मानसी गंगा की परिक्रमा की थी। मुड़े हुए सिरों के कारण शिष्य साधुओं को मुड़िया कहा गया और पूनों (पूर्णिमा) का दिन होने के कारण इस दिन को मुड़िया पूनों कहा जाने लगा। सनातन गोस्वामी और उनके भाई रूप गोस्वामी गौड़ देश प्राचीन बंगाल के शासन हुसैन शाह के दरबार में मंत्री थे।
चैतन्य महाप्रभु के भक्ति-सिद्धांतों से प्रभावित होकर वे मंत्री पद छोड़कर वृंदावन आ गए और यहां उन्होंने चैतन्य महाप्रभु से दीक्षा प्राप्त की और उनके शिष्य बन गए। चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें यह आदेश दिया कि वे कृष्ण के समय के तीर्थस्थलों की खोज करें और उनके प्राचीन स्वरूप को लोगों के सामने लाएं। साथ ही श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार-प्रसार करें। चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुसार दोनों भाई ब्रज के वन-उपवन और कुंज निकुंजों में भ्रमण करके भगवान श्रीकृष्ण की लीला स्थलों की खोज करने लगें। वे घर-घर जाकर रोटी की भिक्षा ग्रहण करते और महामंत्र का कीर्तन कर कृष्ण भक्ति का प्रचार करने लगे।
सनातन गोस्वामी भ्रमण करते हुए जब गोवर्धन आए तो उन्होंने मानसी गंगा के किनारे स्थित चकलेश्वर मंदिर के निकट अपनी कुटिया बना ली और वहीं रहने लगे। वे नित्य प्रति गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा करते थे। वे नित्य प्रति मानसी गंगा में ही स्नान करते थे। अत्यंत वृद्ध और अशक्त हो जाने पर भी उन्होंने जब इस नियम को नहीं तोड़ा तो कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन देकर गिरिराज पर्वत की एक शिला पर अपने चरण अंकित किए और कहा-बाबा आप इसकी परिक्रमा कर लेंगे तो गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा हो जाएगी।
सनातन गोस्वामी के निधन पर उनके अनुयायियों ने सिर मुंडवाकर चकलेश्वर मंदिर से शोभायात्रा के रूप में निकाली थी। वही परम्परा आज भी उनके शिष्यों व अनुयायियों द्वारा प्रत्येक वर्ष जारी है।