पाखंडपूर्ण व्यवहार हमारी प्रगति में बाधक होता है। ऐसे व्यवहार के कारण ही हम कई बार अपनी आदर्शवादी सोच को आगे बढ़ाने की हिम्मत नहीं दिखा पाते तो कई बार हमारा स्वार्थ आड़े आ जाता है। घर-परिवार से लेकर सामाजिक जिंदगी में ऐसी अनेक घटनाएं होती हैं जब हमारा व्यवहार हमारी छवि के अनुरूप नहीं होता। हम अपने बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते रहते हैं लेकिन हमारे व्यवहार से नैतिकता गायब मिलती हैं।

निश्चित रूप से हम साधु-संत नहीं हो सकते और अपने आदर्शवादी विचारों का बिल्कुल उसी रूप में अनुसरण नहीं कर सकते। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम केवल खोखले आदर्शवाद की बेल बढ़ने दें। हमारे आदर्शवादी विचार और पाखंड भरे व्यवहार के बीच फासला जितना कम होगा, हमारी समस्याएं भी उतनी ही कम होंगी। विडम्बना यह है कि ज्यों-ज्यों समाज शिक्षित होता जा रहा है, त्यों-त्यों हमारे आदर्शवादी व्यवहार और पाखंडपूर्ण व्यवहार के बीच फासला बढ़ता जा रहा है। प्रगतिशील विचारों वाले समाज में तो यह फासला कम होना चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है।

हम प्रगतिशील विचारों के माध्यम से बाहर तो परिवर्तन चाहते हैं लेकिन अपने अंदर यह नहीं कर पाते हैं। जब तक हम प्रगतिशील विचारों के माध्यम से अपने अंदर परिवर्तन नहीं करेंगे, तब तक बाहर भी यह नहीं हो सकता। हमारे भाषणों और वक्तव्यों में तो प्रगतिशील विचार मौजूद रहते हैं लेकिन हमारे कर्म में प्रगतिशील विचारों की मौजूदगी नहीं रहती है। इसलिए यह प्रक्रिया खोखला आदर्शवाद बनकर रह जाती है। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश साधु-संतों, राजनेताओं और उपदेश देने वाले विद्वानों का जीवन देखिए। आपको उनके वक्तव्यों और व्यावहारिक जीवन में जबरदस्त विरोधाभास दिखाई देगा।

यह खोखला रवैया हमारे पढ़े-लिखे होने पर भी सवाल खड़े करता है। अनपढ़ और कम पढ़े-लिखे लोगों में खोखला रवैया कम दिखाई देता है। दरअसल ऐसे लोग अपने व्यक्तित्व को लेकर अतिरिक्त सतर्कता नहीं बरतते हैं। इसीलिए वे अपने व्यक्तित्व पर कोई आवरण चढ़ाने की कोशिश भी नहीं करते हैं। पाखंड तभी विकसित होता है जबकि हम अपने दिमाग का अतिरिक्त उपयोग करते हुए उसे चालाकी की तरफ मोड़ देते हैं। ऐसी स्थिति में हमारा व्यक्तित्व अपने मूल स्वरूप में नहीं रह पाता है।

जब हमारा मूल स्वरूप ही समाप्त हो जाता है तो हम कृत्रिम स्वरूप को प्राप्त करने का प्रयास करने लगते हैं। इस स्थिति में हम अपने स्वार्थ के लिए अपने चरित्र और व्यक्तित्व को ही दांव पर लगा देते हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हम अपने पाखंड और खोखले व्यवहार को त्याग नहीं सकते हैं ? निश्चित रूप से हम ऐसे व्यवहार को त्यागकर सहज जीवन जी सकते हैं। लेकिन इसके लिए हमें जरूरत से ज्यादा लाभ प्राप्त करने की होड़ छोड़नी होगी। जरूरी नहीं कि यह लाभ आर्थिक ही हो। हम अपनी जिंदगी में कई अन्य छोटे-छोटे गलत लाभों के लिए भी लालायित रहते हैं। और इन्हें प्राप्त करने के लिए अपने मूल चरित्र को त्याग देते हैं। बहरहाल पाखंडपूर्ण व्यवहार हमारे लिए घातक तो है ही हमारी जिंदगी को सम्पूर्णता प्रदान करने में भी अवरोधक है।

स्वार्थों को देनी होगी तिलांजलि

पाखंडपूर्ण व्यवहार का मूल कारण है स्वार्थ। हम अपनी जिंदगी में अनगिनत स्वार्थ पाले रहते हैं। अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोगों के स्वार्थ छोटे और कम होते हैं लेकिन शिक्षित व्यक्ति के बड़े और ज्यादा होते हैं। शिक्षित व्यक्ति को समझदारी दिखाते हुए अपने स्वार्थों को कम करने का प्रयास करना चाहिए लेकिन व्यावहारिक रूप से यह संभव नहीं हो पाता है। शिक्षित व्यक्ति अपने स्वार्थों को पूर्ण करने के लिए शिक्षा के माध्यम से विकसित हुए अपने दिमाग का उपयोग करता है। इस तरह से अगर देखा जाए तो शिक्षा हमारे स्वार्थ पूर्ण करने का हथियार भी बनती है।

लेकिन यह शिक्षा का दोष नहीं, हमारा है। हमारा दिमाग हर अच्छे माध्यम का गलत इस्तेमाल करने का विकल्प पहले ही ढूंढ़ लेता है। हम अपनी जिंदगी में शिक्षा जैसे अच्छे माध्यम का इस्तेमाल न जाने कितने गलत काम करने के लिए करते हैं। ज्यो-ज्यों हमारे स्वार्थ कम होते चले जाएंगे, त्यों-त्यों हमारा पाखंडपूर्ण व्यवहार भी खत्म होता चला जाएगा। लेकिन निकट भविष्य में यह संभव नहीं लगता। भविष्य में गलाकाट प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तथा हम भौतिकता के और निकट जाएंगे। ऐसे माहौल में हमारा स्वार्थ भी बढ़ता चला जाएगा। जाहिर है भविष्य में हमारा पाखंड और खोखला व्यवहार और भी ज्यादा बढ़ेगा और हमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।