आकांक्षा दीक्षित

सनातन संस्कृति में प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान हवन के बिना अपूर्ण होता है । यज्ञ अथवा हवन करने के साक्ष्य सैन्धव सभ्यता के अवशेषों विशेषकर कालीबंगा से भी प्राप्त होते हैं। सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि हवन अथवा यज्ञ हिंदू धर्म में शुद्धीकरण का एक कर्मकांड है। हमारी संस्कृति में अग्नि को परम पवित्र माना जाता है। यज्ञ या हवन के माध्यम से देवताओं को हविष्य प्रदान किया जाता है जिससे प्रसन्न होकर देव मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। इस प्रकार हवनकुंड में अग्नि को माध्यम बनाकर ईश्वर की उपासना करने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं। वेदों में उल्लिखित है कि देवताओं को भोजन, अग्नि में दी गई आहुतियों के माध्यम से मिलता है।

हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में फल, शहद, घी, नारियल, अन्न इत्यादि पदार्थों की आहुति प्रमुख होती है। वायु प्रदूषण को कम करने के लिए हमारे प्रज्ञावान ऋषि मुनि नियमित अग्निहोत्र तथा विविध फलदायी यज्ञ किया करते थे। रामायण तथा महाभारत में पुत्रेष्टि, अश्वमेध, राजसूय आदि यज्ञ करवाए जाने का स्पष्ट वर्णन मिलता है। नवरात्र में अष्टमी या नवमी तिथि को हवन करने का विशेष महत्व है।

यज्ञ अथवा हवन में प्रयोग की जाने वाली सामग्री को समिधा कहा जाता है। विशिष्ट गुणों से युक्त समिधा में नवग्रहों की शान्ति के प्रतीक रूप में नौ भिन्न-भिन्न काष्ठीय एवं शाकीय पौधों का समिधा के रूप में प्रयोग किया जाता है। मदार या आम की लकड़ी का प्रयोग सूर्य की शांति के लिए किया जाता है। यह व्याधियों का शमन करती है। पलाश की लकड़ी चंद्रमा की शांति हेतु प्रयुक्त होती है, यह मनोविकार को शांत करने का कार्य करती है।

खैर की लकड़ी मंगल ग्रह की बाधा के उपचार तथा त्वचा संबंधी रोगों के निवारण के लिए प्रयोग की जाती है। लटजीरा, बुध ग्रह की शांति के लिए प्रयोग किया जाता है। यह मानसिक रोग विकृतियों, मुख रोगों के उपचार हेतु प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार पीपल बृहस्पति ग्रह की शांति के लिए और बुद्धि , विद्या में भी वृद्धि के लिए भी प्रयुक्त होता है । गूलर शुक्र ग्रह से संबंधित है। मान्यता है कि इससे मोक्ष मिलता है। यह मधुमेह, कंठ, उदर रोग तथा नेत्र संबंधी विकारों में भी व्यवह्रत होता है। शमी को शनि ग्रह को प्रसन्न करने के लिए प्रयोग किया जाता है या पाप नाशक भी होता है। दूर्वा राहु की शान्ति के लिए प्रयोग की जाती है। यह दीघार्यु प्रदान करती है। केतु की शांति के लिए कुश का प्रयोग किया जाता है।

अग्नि की विशेषता है कि यह किसी भी पदार्थ से उसके गुणों को वायुमंडल में मुक्त कर देता है, जिससे उसके गुणों में कई गुना वृद्धि होती है। शास्त्रों में यज्ञीय पद्धति में ऋतुनुसार समिधा उपयोग करने के लिए भी स्पष्ट नियम उल्लिखित हैं। उदारहणार्थ वसंत ऋतु में शमी, ग्रीष्म में पीपल, वर्षा में ढाक या बिल्व, शरद में आम या पाकर, हेमंत में खेर, शिशिर में गूलर या बड़ की समिधा उपयोग में लानी चाहिए।

अग्नि में मूलत: शुद्धीकरण का गुण होता है। वह अपनी उष्णता से समस्त दोषों व रोगों का नाश करती है। अनादि काल से यज्ञ, हवन की परंपरा चली आ रही है। हवन में प्रयुक्त की जाने वाली सामग्री शुद्ध , स्वच्छ होनी चाहिए। सड़ी-गली, घुन, कीड़े लगी हुई, भीगी हुई या श्मशान में लगे वृक्षों की समिधा वर्जित है। बागों, वनों और नदी के किनारे लगे वृक्षों की समिधा हवन के लिए सर्वश्रेष्ठ कही गई है। राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी शास्त्रों में वर्णित हवन सामग्री से प्रयोग कर पाया कि आम की लकड़ी के साथ हवन सामग्री का प्रयोग किया जाए तो एक घंटे के भीतर ही कक्ष में उपस्थित जीवाणु का स्तर 94 फीसद कम हो जाता है।

यही नहीं उन्होंने पाया कि चौबीस घंटे बाद भी जीवाणुओं का स्तर सामान्य से 96 फीसद कम तथा उस कक्ष की वायु में जीवाणु स्तर एक मास पश्चात भी सामान्य से बहुत कम था। यह रिपोर्ट एथनोफामेर्कोलोजी के शोध पत्र में दिसंबर 2007 में प्रकाशित है।