कमल वैष्णव

वैदिक धमार्नुसार सृष्टि में प्रत्येक योनियों के जीव को ईश्वर द्वारा भिन्न भिन्न प्रवृत्ति प्राप्त है। मात्र मनुष्य ही अपनी वृत्तियों का विवेचन करने में सक्षम है। अन्य सभी योनियों के प्राणी अपने जन्म से प्राप्त स्वाभाविक वृत्तियों सहित जीवन यापन करते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में उसके व्यक्तित्व की पहचान उसकी प्रवृत्ति से होती है। जीव के पूर्वजन्मों के कर्म फलस्वरूप प्रवृत्ति प्राप्त होती है और परिवेश अर्थात परवरिश से जीव की आदतें, स्वभाव, गुण दोष आदि विकसित होते हैं। प्रवृत्ति अर्थात संसार को भोगने हेतु जीव का स्वाभाविक गुण होता है जिसे वृत्तियां भी कहते हैं। प्रवृति या वृत्तियां तीन प्रकार की कही गई हैं। सात्विकवृत्ति, राजसी वृत्ति और तामसी वृत्ति।

शमो दमस्तितिक्षेक्षक तप: सत्यं दया स्मृति:तुष्टिस्त्यागोस्पृहा श्रद्धा हिरर्दयादि: स्वनिर्वृति:।।
सत्वगुण की वृत्तियां हैं – शम (मन संयम), दम (इंद्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, संतोष, त्याग, विषयों के प्रति अनिच्छा, श्रद्धा,लज्जा (पाप करने में स्वाभाविक संकोच) आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि यह सात्विक वृत्तियां कही जाती हैं। रजोगुण की वृत्तियां हैं – इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असंतोष), अकड़, देवताओं से धन आदि की याचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्ध आदि के लिए मदजनित उत्साह, अपने यश में प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि सभी राजसी वृत्तियां कहलाती हैं।

तमोगुण के वृत्तियां हैं – क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा,याचना, पाखंड,श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि सभी तामसी वृत्तियां कहलाती हैं। इस प्रकार सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की अधिकांश वृत्तियों का अलग-अलग वर्णन किया गया है। अब उनके मेल से होने वाले वृत्तियों का वर्णन इस प्रकार है जिन्हें मिश्रित वृतियां भी कह सकते हैं।

जैसे ‘मैं हूं और यह मेरा है’ इस प्रकार की बुद्धि में तीनों गुणों का मिश्रण है जिन मन, शब्दादि विषय, इंद्रिय और प्राणों के कारण पूर्वोक्त वृत्तियों का उदय होता है, वह सब के सब सात्विक, राजस और तामस हैं। जब मनुष्य धर्म, अर्थ और काम में सलंगन रहता है। तब उसे सद्गुणों से श्रद्धा, रजोगुण से रति और तमोगुण से धन की प्राप्ति होती है। यह भी गुणों का मिश्रण ही है। जिस समय मनुष्य सकाम कर्म, गृहस्थाश्रम और स्वधर्माचरण में अधिक प्रीति रखता है, उस समय भी उसमें तीनों गुणों का मेल ही समझना चाहिए।

मानसिक शांति और जितेंद्रियता आदि गुणों से सत्वगुणी पुरुष की, कामना आदि से रजोगुणी पुरुष की और क्रोध हिंसा आदि से तमोगुणी पुरुष की पहचान होती है। पुरुष हो अथवा स्त्री जब वह निष्काम होकर अपने नित्य नैमित्तिक कर्मों द्वारा ईश्वर का ध्यान करें तब उसे सत्वगुणी जानना चाहिए। सकाम भाव से अपने कर्मों के द्वारा ईश्वर का भजन पूजन करने वाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रु की मृत्यु आदि के लिए तथा दूसरों की हानि के लिए ईश्वर का भजन पूजा करें उसे तमोगुणी ही समझना चाहिए।

सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों का कारण जीव का चित्त है, इन्हीं गुणों के द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदि में आसक्त होकर बंधन में पड़ जाता है। सत्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शांत हैं। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुण को दबाकर बढ़ता है, उस समय पुरुष सुख, धर्म और ज्ञान आदि का भाजन हो जाता है। रजोगुण भेद बुद्धि का कारण है। उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति। जिस समय तमोगुण और सत्व गुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य दु:ख,कर्म, यश और लक्ष्मी से संपन्न होता है।

तमोगुण का स्वरूप है, अज्ञान। उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता। जब वह बढ़कर सत्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है, तब प्राणी तरह-तरह की आशाएं करता है, शोक मोह में पड़ जाता है, हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा आलस्य के वशीभूत होकर पड़ा रहता है। जब चित्त प्रसन्न हो, इंद्रियां शांत हों, देह निर्भय हो और मन में आसक्ति न हो तब सत्त्वगुण की वृद्धि समझनी चाहिए। सत्वगुण ईश्वर प्राप्ति का साधन है।

जब काम करते-करते जीव की बुद्धि चंचल, ज्ञानेंद्रियां असंतुष्ट, कर्मेंद्रियां विकारयुक्त, मन भ्रांत और शरीर अस्वस्थ हो जाए, तब समझना चाहिए कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है। जब चित्त ज्ञानेंद्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों को ठीक-ठीक समझने में असमर्थ हो जाए और खिन्न होकर लीन होने लगे, मन सुना सा हो जाए तथा अज्ञान और विषाद की वृद्धि हो तब समझना चाहिए कि तमोगुण वृद्धि पर है।

सत्वगुण के बढ़ने पर मनुष्यों में दैविक बल पड़ता है, रजोगुण के बढ़ने से मनुष्यों में आसुरी बल बढ़ता है और तमोगुण के बढ़ने पर मनुष्यों में राक्षसी बल बढ़ जाता है। वृत्तियों में भी सत्वादि गुणों की अधिकता होने पर देवत्व (सभी का हित चाहना, करना) असुरत्व (पाखंड द्वारा अन्यों की हानि करना) और राक्षसत्व (अपने स्वार्थवश धर्म व धर्मियों की हानि करना) प्रधान निवृत्ति, प्रवृत्ति अथवा मोह की प्रधानता हो जाती हैं। सत्त्वगुण से जाग्रत अवस्था, रजोगुण से स्वप्नावस्था और तमोगुण से सुषुप्ति अवस्था होती है। तुरीय इन तीनों में एक सा व्याप्त रहता है।

वही शुद्ध और एक रस आत्मा है। वेदों के अभ्यास में तत्पर ब्राह्मण सत्वगुण के द्वारा उत्तरोत्तर ऊपर के लोकों में जाते हैं। तमोगुण से जीवो को वृक्षादिपर्यंत अधोगति प्राप्त होती है और रजोगुण से मनुष्य शरीर मिलता है। जिसकी मृत्यु सत्त्वगुणों की वृद्धि के समय होती है उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। जिसकी रजोगुण की वृद्धि के समय होती है उसे मनुष्य लोक मिलता है और जो तमोगुण की वृद्धि के समय मृत्यु को प्राप्त होता है उसे नर्क की प्राप्ति होती है परंतु जो पुरुष त्रिगुणातीत जीवन मुक्त हो गए हैं उन्हें ईश्वर की प्राप्ति होती है।