आकांक्षा दीक्षित
भारत वर्ष की ही नहीं, बल्कि विश्व की प्राचीनतम नगरी काशी के स्थान दशाश्वमेध घाट पर अपार जनसमूह की बड़ी चर्चा थी। काशी की एक गौर वर्ण, विद्वान सन्यासी बालक ज्ञान चर्चा कर रहा था। ऐसा लगता था जैसे साक्षात कर्पूर गौरं शिव ही उपस्थित हो। उनके मुख से वेदों के उद्धरण इस तरह से निकल रहे थे जैसे हिमालय से गंगा निकलती हैं।
इसी समूह में उपस्थित एक सुनंदन नामक युवक चकित सा इस ज्ञान चर्चा का आनंद ले रहा था। चर्चा समाप्त हुई तब सुनंदन उन बाल सन्यासी अर्थात आदि गुरु शंकराचार्य के चरणों में आकर गिर पड़ा। शंकराचार्य ने उसे उठाया तो उसने कहा, मैं सुनंदन हूं महाराज! चोल देश का निवासी हूं , गुरु की खोज में काशी आया था। बहुत लोगों से मिला किंतु आपको सुनकर आपको देखकर ऐसा लगा जैसे मुझे सब मिल गया, पूज्यपाद मुझे अपना लीजिए।
जिस तरह शिष्य को योग्य गुरु की तलाश होती है उसी प्रकार गुरु को भी ऐसे शिष्यों की इच्छा होती है जो उनके ज्ञान और दर्शन की धारा को अपने बाद भी अजस्र रुप में प्रवाहित करते रहे। शंकराचार्य ने उनको अगले दिन आने को कहा और पात्रता सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रश्न पूछे यथा उपनिषद क्या है, ये कितने है। सुनंदन ने बताया कि गुरु के निकट बैठ वेदों के गूढ़ तत्व ग्रहण करना ही उपनिषद का अर्थ है।
ऐसा कहा जाता है कि ये 12 है पर अब तो दो सौ से अधिक बताये जाते है। शंकराचार्य ने हंस कर कहा कि भ्रमित न हो मुख्य उपनिषद 12 ही है शेष अलग-अलग मतों की व्याख्यायें मात्र है। ये है ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, श्वेताश्वतर, नृसिंहपूर्वतापनी, इनमें भी पहले ग्यारह ही प्रमुख है ।
शंकराचार्य ने कहा,प्रिय सनंदन! क्या तुम मुझे उपनिषदों में उल्लिखित कोई सुभाषित बता सकते हो।पूज्यवर! ऐसी अनगिनत सूक्तियां हमारे मार्गदर्शन के लिये लिखी गयी है। उदाहरणार्थ कठोपनिषद में वर्णित है।ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्य करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषाव हे।
तात्पर्य यह कि हे ईश्वर! आप हम गुरु-शिष्य की साथ में रक्षा और पालन करें । हम दोनों साथ-साथ बल प्राप्त करें। हम दोनों जो अध्ययन करे,वो विद्या तेजोमय हो तथा हम द्वेषरहित हो। शंकराचार्य ने सनंदन को विधिवत सन्यास में दीक्षित किया। इसप्रकार वे पद्मपाद के नाम से आद्यगुरु के प्रथम शिष्य बने। जैसे शंकराचार्य अद्भुत थे, उनके शिष्य भी अद्वितीय थे।
कहते है एकबार शंकराचार्य जी ने पद्मपाद को पुकारा, तो वे अलकनंदा नदी के दूसरी ओर थे। गुरु भक्ति के वशीभूत वे नदी में ही भागते चले आए। गुरु भक्ति की पराकाष्ठा कि उनके पैरों के नीचे कमल पुष्प ऊग आये। मां अलकनंदा ने पद्मपाद का नाम सार्थक कर दिया। पद्मपाद ने ब्रह्म सूत्र भाष्य पर अद्वैत वाद पर पंचपादिका टीका लिखी थी।
वे अपनी पुस्तक अपने मामा के पास सुरक्षात्मक दृष्टि से रख गए। गुरु आज्ञा से वे अकेले यात्रा करते हुए कालहस्तीश्वर, शिवकांची, बल्लालेश, पुंडरीकपुर, शिवगंगा, रामेश्वर आदि तीर्थों की यात्रा कर वे अपने गांव लौटे । पद्मपाद के मामा द्वैत वादी थे, उन्होने वह नष्ट कर दी। पद्मपाद को दुख तो हुआ पर वे बोले-‘ग्रन्थ जल गया तो क्या हुआ, मेरी बुद्धि तो सुरक्षित है। मैं ग्रन्थ का पुनर्लेखन करूंगा।’ इस पर उनके मामा ने उन्हें कोई विष जैसी चीज खिला दी कि उनकी स्मृति लोप हो जाए। तब शंकराचार्य ने पद्मपाद की रक्षा की तथा उनको उनका ही ग्रंथ सुनाया, जिससे वे पुन: अपनी पुस्तक लिख सके।
अनुश्रुति के अनुसार जब शंकराचार्य पर मारण अभिचार किया गया तब पद्मपाद ने सन्यास धर्म की अपेक्षा गुरू की प्राण रक्षा को श्रेष्ठ जान उस तंत्र का प्रत्याभिचार कर शंकराचार्य के प्राण बचाये थे। पद्मपाद की भांति हस्तामलक , सुरेश्वराचार्य और त्रोटकाचार्य भी शंकराचार्य के प्रिय शिष्य बने । इन सभी शिष्यों को शंकराचार्य ने वैदिक और सनातन संस्कृति की पुनर्स्थापना करने के अपने गुरुतर कार्य में सहायक पाया ।
इसी क्रम में भारतवर्ष को एक सूत्र में आबद्ध करने और सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक एकता स्थापित करने के लिये आद्य गुरु ने भारतवर्ष के चार कोनों में चार मठ या पीठ स्थापित किये । गुरुकृपा से विद्वान बने त्रोटकाचार्य, उत्तर में ज्योतिर्मठ( बद्रीनाथ )के पहले शंकराचार्य नियुक्त किये गये । इसी क्रम में उड़ीसा के पुरी में पद्मपादाचार्य गोवर्धन मठ के , सुरेश्वराचार्य रामेश्वरम में श्रृंगेरी मठ के और आचार्य हस्तामलक द्वारिका में शारदा मठ के प्रथम शंकराचार्य बनाये गये । जो युक्ति है कि भारतवर्ष में राष्ट्र की अवधारणा नहीं थी उन्हें शंकराचार्य जी के विषय में अवश्य जानना चाहिए।