आकांक्षा दीक्षित

भारतीय संस्कृति मानती है कि प्रकृति और मनुष्य के मध्य का संबंध शाश्वत है। जल, वायु, आकाश, अग्नि और पृथ्वी ये सभी तत्व वास्तव में जीवधारियों के पालनहार है। पौष पूर्णिमा ऐसा ही एक पर्व है जो आध्यात्मिक और धार्मिक के साथ सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व भी रखता है। पौष पूर्णिमा को पवित्र नदियों में स्नान करना शुभत्वकारी माना जाता है। पौष पूर्णिमा को मोक्षदायिनी पूर्णिमा भी कहा जाता है ।

मां जगदम्बा के सौम्य रूप देवी शाकंभरी की जयंती भी पौष पूर्णिमा के दिन ही होती है। ऐसी मान्यता है कि भक्तों को दुर्भिक्ष से रक्षित करने के लिए माता ने सौ सालों तक तप किया था। पीड़ितों के लिए उनके नेत्रों से गिरे अश्रु शाक आदि में बदल गए इसीलिए देवी को शताक्षी भी कहा जाता है।
देवी शाकंभरी या कर्नाटक में कही जाने वाली वनशंकरी देवी का 51 सिद्ध पीठों में परिगणित सिद्धपीठ सहारनपुर में स्थित है।

नौ देवियां जिनमें नैना देवी, ज्वाला देवी, चित्तपूर्णी आदि सम्मिलित हैं, के दर्शन में अंतिम दर्शन मां शाकंभरी का ही होता है। शाकंभरी, यानी शाक-सब्जियों से भरण-पोषण करने वालीं भगवती के इस स्वरूप की मार्कण्डेय पुराण में पूरी व्याख्या है। अवतारवाद से निकली यह कथा वास्तव में प्रतीकात्मक प्रकृति पूजा ही है। भोजन से ही हमें जीवनदायिनी शक्ति मिलती है, इसलिए देवी दुर्गा का यह स्वरूप शक्ति का ही रूप है।

कृषि प्रधान देश भारत में खेतों में काम करते हुए कई महिलाएं देखी जा सकती हैं। पुरुष खेत तैयार करते हैं, पानी लगाते है, परंतु खेतों में बीज बोने, निराई-गुÞड़ाई करने और खर-पतवार हटाने का कार्य प्राय: महिलाएं ही करती हैं। भारत के हर प्रांत में देखा जा सकता है कि जब तक महिलाओं का हाथ न लगे फसल घर तक नहीं आ सकती है। यह सभी शक्ति स्वरूपा देवी शाकंभरी का ही स्वरूप हैं।

शाकंभरी मां को चाहमान या चौहान वंश राजवंश अपनी कुलदेवी मानते थे, जिसने वर्तमान राजस्थान तथा इसके समीपवर्ती क्षेत्रों पर सातवीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक शासन किया। सम्राट पृथ्वीराज चौहान इसी वंश का प्रसिद्ध शासक था। जैन धर्म मानने वाले लोग पुष्याभिषेक यात्रा की शुरुआत भी इसी दिन करते हैं।

पौष पूर्णिमा को एक अद्भुत पर्व छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में धूमधाम से मनाया जाता है जिसे छेरता पर्व कहा जाता है। स्कंदपुराण में कहा गया है कि अन्न ही ब्रह्म है, सभी प्राणियों प्राण अन्न के रूप में ही प्रतिष्ठित हैं। इसी भावना का साकार रूप छेरता पर्व में देखने को मिलता है। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति उत्सवप्रियता से अनुप्राणित है। छेरता पर्व में बालवृंद छेरता से पूर्व गांव के धान के खेतों में छूटी हुई बालियां एकत्र करने निकल जाते हैं। इन बच्चों को कोई मना भी नहीं करता।

छेरता त्योहार के लिए ग्राम स्तर पर एक सप्ताह पहले ही कोटवार के द्वारा मुनादी करा दी जाती है कि छेरता त्योहार नियत तिथि को मनाया जाएगा। विशेषरूप से इस त्योहार को बच्चों व बुजुर्गों का पर्व माना जाता है। इसके साथ ही पर्व में अन्नपूर्णा का जीवंत स्वरूप महिलाएं भी उत्साहपूर्वक भाग लेती हैं। दिन में खेतों में धान की बालियों को एकत्रित करने के बाद शाम को बच्चों की टोली स्थानीय समूह गीतों को गाते निकल जाती है।

ग्रामीण इन लोकड़ी मांगने वाले लोगों को चावल, धान, पैसा देकर विदा करते हैं। यह कार्यक्रम क्षेत्र के सभी घरों में देर रात तक चलता रहता है । सनातन परंपरा में आध्यात्म की दृष्टि से पौष पूर्णिमा आत्मशोधन का पर्व है । यह प्रकृति से जुड़ा उत्सव है जो हमें जल, फल-फूल, शाक-सब्जियों आदि प्राकृतिक संसाधनों की उपयोगिता और महत्व को समझता है।