उत्तराखंड के देहरादून के जौनसार क्षेत्र में प्राचीन गांव कालसी स्थित है। देहरादून से चकराता की ओर जाते हुए कालसी में अमलावा नदी के तट पर मां काली का प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर द्वापर कालीन माना जाता है। जब पांडव लाखामंडल में जा रहे थे तो वे इस स्थान पर रुके और यहां पर स्थित एक गुफा से लाखामंडल के लिए प्रस्थान करने लगे तो उन्हें यहां पर मां काली ने प्रगट हो कर दर्शन दिए और पांडवों ने मां काली की आराधना की।
मां काली ने उन्हें किसी भी संकट से बचने के लिए आशीर्वाद दिया। मां के आशीर्वाद से ही वे कौरवों और शकुनी मामा की लाखामंडल स्थित महल में उनको मारने की साजिश से बचे। जब पांडव महाभारत काल में स्वर्गारोहण के लिए गए तो वे यमुनोत्री मंदिर में दर्शन करने से पूर्व कालसी के काली मंदिर में आए और उन्होंने यहां पर पूजा अर्चना की। उसके बाद स्वर्गारोहण के लिए प्रस्थान किया। यह काली मां की स्वयंभू सिद्ध पीठ है।
काली मंदिर के पास एक गुफा है। कहा जाता है कि पांडव लाखामंडल इसी गुफा से होकर गए थे। कालसी क्षेत्र में एक स्थान पर अश्वमेध यज्ञ के कई यज्ञ कुंड बने हुए हैं। जहां पर प्राचीन काल में कई राजाओं ने अश्वमेध यज्ञ की पूणार्हुति प्रदान की। सिद्ध पीठ प्राचीन काली मंदिर कालसी के पुजारी पंडित केसर सिंह बताते हैं कि द्वापर कालीन इस काली मंदिर में चैत्र और शारदीय नवरात्रि में 9 दिन तक बड़ा मेला लगता है।
कालपी ऋषि की तपोभूमि है कालसी
कालसी सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी के समकालीन हुए ऋषि कालपी की तपोभूमि है। यहां पर उन्होंने वर्षों तपस्या की। मां काली के मंदिर और कालपी ऋषि की तपोभूमि होने के कारण क्षेत्र का नाम कालसी पड़ा। जब गुरु गोविंद सिंह हिमाचल प्रदेश के सिरमौर रियासत के राजा के बुलावे पर उनकी रक्षा के लिए यमुना के तट पर पोंटा आए थे तब उन्होंने यहां पर साधना की और यमुना के विकराल रूप को शांत किया।
कालपी ऋषि ने गुरु गोविंद सिंह के दर्शन की इच्छा जताई तो उन्हें पोंटा में यमुना नदी के तट पर बुलाने के लिए अपने सेवादारों को सोने की पालकी लेकर भेजा। यमुना के तट पर ऋषि कालपी ने गुरु गोविंद सिंह के दर्शन किए और उनके हाथ से यमुना का जल पीया और गुरु महाराज की गोद में ही प्राण त्यागे। उसी स्थान पर गुरु महाराज ने कालपी ऋषि की स्मृति में गुरुद्वारे की स्थापना की जहां आज भी नियमित रूप से गुरु ग्रंथ साहब का प्रकाश होता है।
राजा विराट की राजधानी विराटनगर थी कालसी
जौनसार क्षेत्र में बहने वाली टोंस नदी के संगम पर एक छोटा सा कस्बा कालसी है। माना जाता है कि महाभारत कालीन पांडव काल में कालसी का शासक राजा विराट था और उसकी राजधानी विराटनगर थी। यहां पर अज्ञातवास के समय पांडव रूप बदलकर राजा विराट के यहां ही रहे थे जो आजकल कालसी के नाम से प्रसिद्ध है। इतिहासकार प्रोफेसर देवेंद्र गुप्ता के अनुसार चीनी यात्री ह्रेनसांग ने सातवीं सदी में इस क्षेत्र को सुधनगर नाम से इसकी पहचान की थी, जो देहरादून से 70 किमी दूर है। इसका प्राचीन नाम खलतिका था।
इसके अन्य नाम कालकूट व युगशैल भी मिलते हैं। एक समय में कालसी क्षेत्र गढ़वाल और हिमाचल प्रदेश के सीमांत क्षेत्रों का सबसे बड़ा व्यापार केंद्र था। यहां पर गढ़वाल के उत्तरकाशी टिहरी जौनसार क्षेत्र चकराता तथा हिमाचल प्रदेश के सिरमौर रियासत के क्षेत्र के आसपास के लोग और व्यापारी व्यापार करने आते थे। यह उनकी सबसे बड़ी मंडी थी।
सम्राट अशोक का शिलालेख है कालसी में
कालसी से कुछ दूर पहले यमुना नदी और अमलावा के संगम तट पर सम्राट अशोक के चौदह शिलालेखों में 13वां शिलालेख स्थित है जिसमें सम्राट अशोक के समय में बौद्ध धर्म के सत्य अहिंसा के उद्देश्यों को अंकित किया गया है। ब्रिटिश काल में एक ब्रिटिश व्यक्ति फारेस्ट ने इसकी खोज 1860 ई में की थी। कालसी अभिलेख एक बड़ी चट्टान पर खुदा है। इस शिलालेख में हाथी की आकृति बनी है, जिसके नीचे गजेतम शब्द लिखा है। हाथी को आसमान से नीचे उतरते हुए दिखाया गया है। इस संरचना की ऊंचाई 10 फुट और चौड़ाई 8 फुट है। शिलालेख में सम्राट अशोक के पशुओं को अनावश्यक मारने पर प्रतिबंध, जानवरों और इंसानों के लिए स्वास्थ्य सुविधा, युद्व घोष के स्थान पर धम्म घोष द्वारा विजय का उल्लेख किया गया है।