राज सिंह
नौ अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने हिंदू मंदिरों को तोड़ने के लिए आदेश जारी किया। तब वृंदावन में गोवर्धन के पास श्रीनाथजी के मंदिर को तोड़ने का काम भी शुरू हो गया। इससे पहले कि श्रीनाथजी की मूर्ति को कोई नुकसान पहुंचे, मंदिर के पुजारी दामोदर दास बैरागी ने मूर्ति को मंदिर से बाहर निकाल लिया। दामोदर दास बैरागी वल्लभ संप्रदाय के थे और वल्लभाचार्य के वंशज थे। उन्होंने बैलगाड़ी में श्रीनाथजी की मूर्ति को स्थापित किया और उसके बाद वे बूंदी, कोटा ,किशनगढ़ और जोधपुर तक के राजाओं के पास आग्रह लेकर गए कि श्रीनाथजी का मंदिर बनाकर उसमें मूर्ति स्थापित की जाए। लेकिन औरंगजेब के डर से कोई भी राजा दामोदर दास बैरागी के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर रहा था।
कोटा से 10 किमी दूर श्रीनाथजी की चरण पादुकाएं आज भी रखी हुई हैं, उस स्थान को चरण चौकी के नाम से जानते हैं। तब दामोदर दास बैरागी ने मेवाड़ के राजा राणा राज सिंह के पास संदेश भिजवाया। जब किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमती से विवाह करने का प्रस्ताव औरंगजेब ने भेजा तो चारुमती ने इससे साफ इनकार कर दिया और रातों-रात राणा राजसिंह को संदेश भिजवाया कि चारुमती उनसे शादी करना चाहती है। राणा राजसिंह ने बिना कोई देरी के किशनगढ़ पहुंचकर चारुमती से विवाह कर लिया। इससे औरंगजेब का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया और वह राणा राजसिंह को अपना सबसे बड़ा शत्रु समझने लगा। यह बात 1660 की है।
राणा राज सिंह ने कहा कि मेरे रहते हुए श्रीनाथजी की मूर्ति को कोई छू तक नहीं पाएगा। उस समय श्रीनाथजी की मूर्ति बैलगाड़ी में जोधपुर के पास चौपासनी गांव में थी और चौपासनी गांव में कई महीने तक बैलगाड़ी में ही श्रीनाथजी की मूर्ति की उपासना होती रही। यह चौपासनी गांव अब जोधपुर का हिस्सा बन चुका है और जहां पर यह बैलगाड़ी खड़ी थी वहां पर आज श्रीनाथजी का एक मंदिर बनाया गया है। 5 दिसंबर 1671 को सिहाड़ गांव में श्रीनाथजी की मूर्तियों का स्वागत करने के लिए राणा राजसिंह स्वयं पहुंचे। यह सिहाड़ गांव उदयपुर से 30 मील एवं जोधपुर से लगभग 140 मील पर स्थित है। जिसे आज नाथद्वारा के नाम से जानते हैं। 20 फरवरी 1672 को मंदिर का निर्माण संपूर्ण हुआ और श्रीनाथजी की मूर्ति सिहाड़ गांव के मंदिर में स्थापित कर दी गई। यही सिहाड़ गांव अब नाथद्वारा बन गया ।
(भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी)