हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार पूजा, हवन या अन्य किसी धार्मिक कार्य के बाद दान-दक्षिणा की जाती है। समय के बदलने से इस दान-दक्षिणा का अर्थ महंगा सामान हो गया है। पौराणिक समय में इस तरह की चीजें चलन में नहीं थी। एक कथा के अनुसार माना जाता है कि एकलव्य ने गुरु दक्षिणा के रुप में गुरु द्रोण को अपना अंगूठा दे दिया था। यहां हम ये जानने का प्रयास करेंगे कि दान-दक्षिणा की प्रथा कहां और कैसे शुरु हुई।
पौराणिक कथाओं के अनुसार माना जाता है कि देवी दक्षिणा का जन्म माता लक्ष्मी के दाहिने कंधे से हुआ था, इसी कारण से उनका नाम दक्षिणा पड़ा। ये माता लक्ष्मी की कलावतार और भगवान विष्णु की शक्ति रुप हैं। दक्षिणा को शुभा, शुद्धिदा, शुद्धिरुपा और सुशीला के नाम से जाना जाता है। ये सभी यज्ञों, पूजा आदि का पुण्य देती हैं। इसी तरह की एक कथा है कि गोलोक में भगवान कृष्ण को सुशीला नाम की एक गोपी बहुत प्रिय थी वो माता लक्ष्मी के सामान थी, इसी के साथ वो राधा की सबसे अच्छी सखी थी।
राधा को पसंद नहीं था कि कोई श्रीकृष्ण की प्रिय हो तो उन्होनें गोलोक से सुशीला को निकाल दिया। सुशीला कठिन तप करने लगी और इसके बाद भगवान विष्णु प्रिय माता लक्ष्मी के शरीर में प्रवेश कर गईं। इसके बाद भगवान की लीला से देवताओं को यज्ञ का फल मिलना बंद हो गया। सभी देवता ब्रह्माजी के पास गए और उन्हें समस्या बताई। ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु ने इस बारे में कहा।
विष्णु ने माता लक्ष्मी से आग्रह किया कि एक अलौकिक देवी मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट करें और उसे दक्षिणा नाम देकर ब्रह्मा जी को सौपें। माना जाता है कि मनुष्य को सत्कर्म करने के बाद दक्षिणा जरुर देनी चाहिए, इससे कर्मों का फल उसी समय मिल जाता है। यदि जानबूझकर दक्षिणा नहीं दी जाए तो सारे अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।


