शास्त्री कोसलेन्द्रदास

ऋग्वेद एवं अन्य वेदों के लेखानुसार अग्नि, सूर्य, वरुण एवं अन्य देवताओं का पूजन होता था। पर वह परोक्ष रूप मे होता था और ये देव दिव्य शक्तियां या अभिव्यक्तियां थे। ये प्राकृतिक दृश्य या आकस्मिक वस्तु थे या संपूर्ण विश्व की विभिन्न गतियां थे। ऋग्वेद में कई स्थानों पर देवता भौतिक (शारीरिक) उपाधियों से युक्त किए गए हैं।

देव मूर्ति नहीं है भौतिक वस्तु

भारत रत्न ड पांडुरंग वामन काणे अपनी प्रसिद्ध पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास में लिखते हैं कि हिंदू धर्म में एक विचित्र बात है अधिकार-भेद (बुद्धि, संवेग एवं आध्यात्मिक बल के आधार पर अधिकारों, कर्तव्यों, उत्सवों एवं पूजा में अन्तर)। सभी व्यक्ति एक ही प्रकार के अनुशासन एवं अन्न-पान-विधि या पथ्य-अपथ्य नियम के योग्य नहीं माने जा सकते। मूर्ति-पूजा भी सभी व्यक्तियों के लिए आवश्यक नहीं थी। प्राचीन ग्रंथकारों ने यह कभी नहीं सोचा कि वे मूर्ति की पूजा भौतिक वस्तु की पूजा के रूप में करते हैं। उन्हें यह पूर्ण विश्वास था कि मूर्ति के रूप में वे परमात्मा का ध्यान करते हैं।

ईश्वर के हैं रूप अनेक

नारदपुराण, भागवत महापुराण एवं वृद्धहारीत के मत से भगवान हरि की पूजा जल, अग्नि, हृदय, सूर्य, वेदी, ब्राह्मणों एवं मूर्तियों में होती है। आह्निक प्रकाश में उद्धृत शातातप के एक मत के अनुसार कहा जा सकता है – अप्सु देवा मनुष्याणां दिवि देवा मनीषिणाम। काष्ठलोष्ठेषु मूर्खाणां युक्तस्यात्मनि देवता।। इस श्लोक का तात्पर्य है कि साधारण लोगों के देव जल में हैं, ज्ञानियों के स्वर्ग में, अज्ञानियों एवं अल्प बुद्धि वालों के काष्ठ या मिट्टी (मूर्ति) में तथा योगियों के देव उनके सत्त्व (हृदय) में रहते हैं।

ईश्वर की पूजा अग्नि में आहुतियों से, जल में पुष्प अर्पण करने से, हृदय में ध्यान करने से एवं सूर्य के मंडल में जप करने से होती है। जगद्गुरु रामानुजाचार्य ने ईश्वर के पांच स्वरूप माने हैं- पर, व्यूह, विभव, अर्चावतार और अंतर्यामी। इनमें अर्चावतार का तात्पर्य मंदिर या घरों में विराजमान देव-प्रतिमाएं हैं।

शालिग्राम के पूजन का जल चरणामृत

भागवत महापुराण के अनुसार मूर्तियां आठ प्रकार की होती हैं – प्रस्तर, काष्ठ, लोह, चंदन, चित्र, बालू मिट्टी, बहुमूल्य रत्नों की एवं मानसिक। मत्स्यपुराण ने उपर्युक्त सूची में सीसे एवं कांसे से बनी मूर्तियां भी जोड़ दी हैं। यह पौराणिक मान्यता है कि इनमें बहुमूल्य रत्नोंं से निर्मित सर्वश्रेष्ठ एवं मिट्टी से निर्मित मूर्ति हल्की मानी जाती है।

विष्णुपूजा के लिए प्रस्तर-मूर्तियों में शालिग्राम शिला (गंडकी नदी के उद्गम पर शालिग्राम नामक ग्राम में पाए जाने वाले काले प्रस्तर-खंड) एवं द्वारका के प्रस्तर गोमती चक्र (जिन पर चक्र बने हों) बड़े महत्त्व के माने जाते हैं। पूजा में पांच प्रकार के प्रस्तर (पत्थर) प्रयोग में आते हैं – शिवपूजा में नर्मदा का बाण-लिंग, विष्णु-पूजा में शालिग्राम, दुर्गा-पूजा में धातुमय प्रस्तर, सूर्य-पूजा में स्फटिक प्रस्तर, गणेश-पूजा में लाल प्रस्तर। कश्मीर के महाराज हर्षदेव (1068-1101) के महामात्य चंपक के पुत्र और संगीतमर्मज्ञ कनक के अग्रज कल्हण की राजतरंगिणी ने कश्मीर में नर्मदा से प्राप्त शिव के बाणलिंगों की स्थापना की चर्चा की है।

प्रतिमा की आकृति

घर में पूजने की मूर्तियों के विषय में मत्स्य पुराण ने कहा है कि उनका आकार अंगूठे से लेकर 12 अंगुल से अधिक नहीं होना चाहिए। मंदिर में स्थापित होने वाली मूर्तियों का आकार 16 अंगुल से अधिक नहीं होना चाहिए।मंदिर में मूर्ति के लिए निम्न नियम काम में लाना चाहिए- मंदिर के द्वार की ऊंचाई को आठ भागों में बांटकर पुन: सात भागों को एक-तिहाई एवं दो-तिहाई भागों में बांट देना चाहिए। मूर्ति का आधार सात भागों की एक तिहाई तथा मूर्ति दो-तिहाई होनी चाहिए।

जिन देवों की मूर्तियों की पूजा होती है, उनमें मुख्य हैं भगवान विष्णु, जो बहुत-से नामों एवं अवतारों के साथ पूजे जाते हैं। भगवान शिव, जिनकी पूजा उनके अपने बहुत से स्वरूपों के साथ होती है। जगदंबा दुर्गा, जिनके अनेक शक्ति पीठ स्थापित हैं। गणेश एवं सूर्य। इन देवों की पूजा पंचायतन पूजा कहलाती है, जिसकी प्रसिद्धि का श्रेय जगद्गुरु शंकराचार्य (788-820 ईस्वी) को जाता है।

भक्तों के भगवान

देश भर में ऐसे अनेक मंदिर स्थापित हैं, जिनके चमत्कारिक रूप से स्थापित होने की कथाएं सदियों पुरानी है। मीरा के प्रभु गिरधर नागर और नरसी भक्त से सांवरिया सेठ (चित्तौड़गढ़) के साथ ही पंढरपुर में विराजमान भगवान विट्ठल की कृपा कथाएं प्रसिद्ध हैं, जो आज भी भक्तों को रोमांचित एवं आकर्षित करती हैं। जैन और बौद्धों में भी प्रतिमा पूजन ही उनकी उपासना का बड़ा आधार है।