संजीव शुक्ल

यहां यह समझना भी जरूरी है कि भाग्य होता क्या है। साधारण शब्दों में कहा जाए तो कुछ अप्रत्याशित होने को ही भाग्य कहा जाता है। अच्छा हो तो सौभाग्य, बुरा हो तो दुर्भाग्य। बहुत से लोग मानते हैं कि भाग्य नाम की चीज होती ही नहीं। मनुष्य अपने पुरुषार्थ के बल पर ही भाग्य (तकदीर) का निर्माण करता है। कहा जाता है कि उद्योग करने वाले सिंह के समान पुरुष को लक्ष्मी स्वयं प्राप्त होती है।

भाग्य ही सब कुछ देता है ऐसा पुरुषार्थहीन लोग ही बोलते हैं। इसलिए भाग्य की उपेक्षा कर अपनी शक्ति पर भरोसा रखना चाहिए। दूसरी ओर ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं जो मानते हैं कि भाग्य से ही सब कुछ होता है – भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम (अर्थात भाग्य ही हर जगह फल देता है, न कि विद्या और पौरुष)।

दोनों को अलग-अलग देखने के कारण ही यह झगड़ा चल रहा है। वास्तविकता यह है कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस बात को समझाने के लिए वैसे तो सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। एक उदाहरण है- एक निर्जन स्थान पर लगे आम के पेड़ से आमों को तोडनÞे के लिए कुछ बच्चे पत्थर फेंक रहे थे। पेड़ के उस पार झाडियÞों के पीछे एक व्यक्ति जा रहा था।

बच्चों को पता नहीं था कि उधर से कोई गुजर रहा है और न ही राहगीर को पता था कि बच्चे आम तोडनÞे के लिए पत्थर फेंक रहे हैं। ऐसे में एक पत्थर आकर उसके सिर में लगा। अब जिस बच्चे के पत्थर से राहगीर घायल हुआ, उसने पत्थर आम तोडनÞे के लिए फेंका (कर्म) था न कि चोट पहुंचाने के लिए। अर्थात जिस उद्देश्य के लिए कर्म किया गया वह तो पूरा हुआ नहीं उल्टे एक व्यक्ति घायल हो गया। यहां कर्म और भाग्य दोनों को देखा जा सकता है। बच्चे का कर्म राहगीर का दुर्भाग्य बन गया।

दूसरा उदाहरण- कोई भी परीक्षा हो, चाहे व्यावसायिक या कोई और, उसमें कई ऐसे लोग पास हो जाते हैं जिन्होंने कई अनुत्तीर्ण होने वाले परीक्षार्थियों के मुकाबले कम तैयारी (मेहनत) की होती है। अधिक तैयारी वाले रह जाते हैं, कम तैयारी वाले निकल जाते हैं। ऐसा क्यों? इसका सीधा तार्किक जवाब है कि पेपर बनाने वाले ने उन अध्यायों में से सवाल दे दिए जो कम तैयारी करने वाले परीक्षार्थी ने पढ़े थे जबकि अधिक तैयारी वाले परीक्षार्थी से वे अध्याय किसी कारण से छूट गए थे। यहां यह बताना भी जरूरी है कि पेपर वाले की मंशा न तो किसी खास व्यक्ति को पास करने की थी और न ही अनुत्तीर्ण करने की। उसने तो ईमानदारी से अपना कर्म (जिम्मेदारी) किया था। अब यहां कर्म पेपर बनाने वाले का था और भाग्य परीक्षार्थियों का।

उपरोक्त उदाहरणों की रोशनी में यदि श्रीमद्भगवद्गीता के मशहूर श्लोक -कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोअस्त्वकर्मणि (तुम्हें कर्म (कर्तव्य) का अधिकार है, किन्तु कर्म-फल पर तुम्हारा अधिकारी नहीं है। तुम न तो कभी स्वयं को अपने कर्मों के फलों का कारण मानो और न ही कर्म करने या न करने में कभी आसक्त होओ) को देखा जाए तो तस्वीर बहुत कुछ साफ हो जाती है।

इस श्लोक को लेकर लोग अक्सर सवाल उठाते हैं कि यदि कर्म-फल पर मनुष्य का अधिकार नहीं होगा तो वह कर्म करेगा ही क्यों? बिना फल की इच्छा के कोई कर्म क्यों करेगा? शायद इसी सवाल के जवाब में गीता में आगे कहा गया है – न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: (प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना ही पड़ता है। कोई भी शख्स एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता।)

गीता अनुसार जिस फल को पाने के लिए कर्म किया जाता है जरूरी नहीं कि वह मिले ही और मन चाहे रूप में मिले। ऐसा क्यों? इसका कारण है कि मनुष्य के पास अपनी मर्जी से काम करने की स्वतन्त्रता तो है लेकिन काम शुरू करने के पहले उसका आगा-पीछा सोच पाने और सारे पहलुओं को देख-समझ पाने की क्षमता बहुत सीमित है। जैसा कि ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है।

अधिक तैयारी करने वाले परीक्षार्थी की तमाम मेहनत के बावजूद वह इस बात को नहीं देख सकता था कि पेपर बनाने वाला उन अध्यायों में से सवाल दे देगा जो उसने नहीं पढ़े। अर्थात जब आप कोई काम कर रहे होते हैं तो हो सकता है कि उसके विपरीत कहीं कोई और काम चल रहा हो जो आपकी सारी मेहनत पर पानी फेर दे। इन्हीं अनदेखी, अनजानी परिस्थितियों के कारण मिलने वाला फल ही भाग्य होता है। अर्थात यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी का कर्म किसी का भाग्य होता है और इन दोनों को अलग-अलग न देख कर यह मानना चाहिए कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।