पूनम नेगी
नागपंचमी के दिन नागों का पूजन व दर्शन शुभ फलदायी माना जाता है। इस नागपूजा में सर्वे नागा: प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले अर्थात जो नाग, पृथ्वी, आकाश, स्वर्ण, सूर्य की किरणों, सरोवरों, कूप तथा तालाब आदि में निवास करते हैं, वे सब हम पर प्रसन्न हों; यह मंत्र का उच्चारण कर विभिन्न नागों को प्रणाम किया जाता है। इस दिन सर्पहत्या को महापाप माना गया है। अब यदि वैज्ञानिक दृष्टि से बात करें तो नाग व सर्प कृषक मित्र जीव हैं। ये चूहा व अन्य हानिकारक जीवों का भक्षण कर हमारी कृषि संपदा की रक्षा करते हैं। पर्यावरण तथा वन संपदा की रक्षा में भी नागों की महत्वपूर्ण भूमिका जीवशास्त्री मानते हैं। इनके औषधीय उपयोग भी कम नहीं हैं। इनके विष से अनेक जीवनरक्षक दवाएं बनती हैं।
सनातन हिन्दू संस्कृति में नाग व सर्प धरती के प्राचीनतम जीव माने गए हैं। इन्हें लोकदेवता की संज्ञा दी गई है। हमारे भारतीय समाज में सावन महीने के शुक्ल की पंचमी तिथि को नागों के पूजन की परम्परा वैदिक युग से चली आ रही है। नागों की महत्ता का अंदाजा इसी बात से सहजता से लगाया जा सकता है कि उनका निवास स्थान नागलोक के नाम से जाना जाता है। पुराण ग्रन्थों में उपलब्ध नागों से जुड़े तमाम कथानक नागों की महत्ता साबित करते हैं। श्रीमद्भागवत पुराण में यक्ष, किन्नर और गन्धर्वों के वर्णन के साथ नागों का भी उल्लेख किया गया है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नाग जाति की उत्पत्ति इसी दिन हुई थी। श्रीमद्भागवत में दक्ष प्रजापति की पुत्री कयादु और कश्यप ऋषि की संतान रूप में नागों की उत्पत्ति का रोचक वृतांत मिलता है। इन पौराणिक विवरणों में पांच प्रकार के नागों- अनंत (सहत्र मुख वाले शेषनाग), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक व पिंगल के बारे में विस्तार से उल्लेख मिलता है। पुराणों के अनुसार तक्षक नाग के डसने से राजा परीक्षित की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र जनमेजय के नाग यज्ञ का पौराणिक प्रसंग तो नागों की अद्भुत गाथा है। कहा जाता है कि नागवंशी कर्कोटक के छल से रुष्ट होकर नारदजी ने उसे शाप दिया था। तब राजा नल ने उसके प्राणों की रक्षा की थी। हिंदू व बौद्ध साहित्य में पिंगल नाग को कलिंग में छिपे खजाने का संरक्षक माना गया है।
पौराणिक मान्यता है कि हमारी धरती शेषनाग के फन पर टिकी हुई है। भगवान विष्णु समुद्र में शेषनाग की शय्या पर विराजते हैं। भोलेशंकर के तो गले का शृंगार हैं-नाग देवता। देव-दानवों के मध्य हुआ समुद्रमंथन नागराज वासुकि के सहयोग से ही पूरा हो सका था। नागों को अपने जटाजूट तथा गले में धारण करने के कारण ही भगवान शिव को काल का देवता कहा गया है। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों ने जब समुद्र मंथन किया था, तो जगत कल्याण के लिए वासुकि नाग ने मथानी की रस्सी के रूप में स्वयं को समर्पित कर अपना महान दिया था।
इसी तरह द्वापर युग में जब कृष्ण अवतार हुआ तो मूसलाधार बारिश वाली तूफानी रात में शेषनाग ने ही अपने छत्र से शिशु कृष्ण की रक्षाकर वसुदेव जी की गोकुल पहुंचने में मदद की थी। त्रेता युग में शेषनाग जी ने भगवान श्री राम के छोटे भाई के रूप में जन्म लिया था, वहीं द्वापर में वे कृष्ण के बड़े भाई बलराम के रूप में जन्मे थे। राजा परीक्षित एवं जन्मेजय का नाग यज्ञ अपने आप में अद्भुत है। यही नहीं, मोहनजोदाड़ो व हड़प्पा के पुरातात्विक उत्खनन में मिले प्रमाण भी सिंधु सभ्यता में नाग-पूजन की परम्परा की बात कहते प्रतीत होते हैं। कश्मीर के राजकवि कल्हण ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ राजतरंगिणी में कश्मीर को नागभूमि कहा है। तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि नाग पूजन की परम्परा भारतीय सीमाओं से बाहर मिस्र, सीरिया व बेबीलोन में भी प्रचलित थी। मिस्र में तो शेख हरेदी नामक सर्प पूजा तो आज भी बड़ी धूमधाम और श्रद्धा-विश्वास से की जाती है।
ज्ञात हो कि सावन मास के आराध्य देव भगवान शिव माने जाते हैं। वर्षा ऋतु के इस समय में भूगर्भ से निकलकर नाग भूतल पर आ जाते हैं। वे किसी अहित का कारण न बने, इसके लिए भी नाग देवता को प्रसन्न करने के लिए नागपंचमी की पूजा की जाती है। पूरे श्रावण माह विशेष कर नागपंचमी के दिन धरती खोदना निषिद्ध माना गया है। मान्यता है कि नासिक के त्रयंबकेश्वर, औरंगाबाद के घृष्णेश्वर, उज्जैन के महाकालेश्वर आदि ज्योतिर्लिंगों में विधि-विधान से पूजा पाठ करवाने से कालसर्प दोष से मुक्ति मिलती है। बताते चलें कि हिमाचल, उत्तराखंड, नेपाल, असम और अरुणाचल तथा दक्षिण भारत के पर्वतीय अंचलों में नाग पूजा प्रमुखता से होती है।

