शास्त्री कोसलेन्द्रदास

होली मन के विस्तार का पर्व है। यह नाचने-गाने, हंसी-ठिठोली और मौज-मस्ती की त्रिवेणी है। तभी तो होली की रंगीली छटा में मनमुटाव या आपसी वैर-विरोध समाप्त हो जाते हैं। हमारे लंबे-चौड़े साहित्यिक इतिहास में न केवल संस्कृत के रससिद्ध काव्यकारों ने बल्कि देशज भाषाओं के अनेक भक्त-कवियों ने भी राधा कृष्ण के रंगीले होली प्रेम में आसक्त होकर ऐसे मनोहारी चित्र खींचे, जिनको देखकर लगता है कि वे कहीं गोपी-भाव से तो कहीं स्वयं ही राधा बनकर उस रस-रूप के महासागर रंगीले कन्हैया के रंग में सराबोर हो रहे हैं। इन कवियों की वृत्ताकार काव्य यात्रा का केंद्र है-राधा-कृष्ण का होली प्रेम और ब्रज के अनूठे फागुनी रंग।

वैदिक कालीन पर्व है होली

होली वैदिक परंपरा से चले आ रहे 4 त्योहारों में एक है। एक तथ्य बहुत ही अल्पज्ञात है कि होली ऋषि और कृषि से जुड़ा पवित्र उत्सव है, जो कदाचित सृष्टि के आदिकाल से ऋषियों और कृषकों द्वारा मनाया जाता रहा है। आश्रमों में ऋषि और वटुक फाल्गुन में सामवेद के मंत्रों का गान करते थे, वहीं नई फसल के पक आने पर किसान रंग-बिरंगी होली खेलते थे। शास्त्र परंपरा ने होली को अग्नि से मिलाया। खेतों में चमचमा रही जौ-गेहूं की बालियों को सबसे पहले अग्नि देवता को समर्पित किया जाता है। फिर होली की अग्नि-ज्वाला में नवीन धान्य को पकाकर उन पकी हुई बालियों को प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। स्पष्ट है, होली हमारे जीवन को चलाने वाला उत्सव भी है।

होली का राग-अनुराग

होली पर प्रेम की कैसी आंख-मिचौनी है कि चहुं ओर होली का हुडदंग है। होली की उमंग और मादकता ने क्या स्त्री और क्या पुरुष, सभी की लाज हटा दी है। ब्रज में तो एक भी ऐसी नवेली नारी नहीं बची जो होली पर नटखट कन्हैया के प्रेम में न रची हो। अनूठी होली ने पूरे संसार को बावला बनाकर रख दिया है। एक गोपी कृष्ण के सांवरे रंग में ऐसी रंगी कि श्यामसुंदर की सलौनी सूरत को इकटक निहारते हुए कान्हा से याचना करती है, जिसे भक्त रसखान देख रहे हैं-खेलिए फाग निसंक आज, मयंक मुखी कहे भाग हमारौ तेहु गुलाल छुओ कर में, पिचकारिन मैं रंग हिय मंह डारौ। वीर की सौंह हौं देखि हौं कैसे, अबीर तौ आंखि बचाय कै डारौ।।

होली की महक और फागुन की मस्ती

होली के रस में सारे रसिकजन सराबोर हो रहे हैं। डगर-डगर और गली-गली होली की मस्ती में चहक रही है। सुंदर युवतियों की टोलियां अबीर-गुलाल लेकर होली खेलने निकल पड़ी है तो नौजवानों का टोला भी अपनी पूरी तैयारी में हैं। दिव्य अध्यात्म में आज सब शरीर की सुध-बुध खो बैठे हैं। रसिकशिरोमणि श्रीकृष्ण के साथ होली खेलने की आत्मा की साधना अब पूरी होगी। फाग का मनोरथ पूरा होगा। संभवत: यह सोचते हुए ही द्वापर में एक गोपी श्रीकृष्ण को ढूंढने अकेली ही निकल पड़ी पर कन्हैया तो अंर्तयामी जो ठहरे। बस, मन से पुकारा और आ गए। श्रीकृष्ण को पाने के लिए छटपटाती भाग्यशालिनी है वह गोपी, जो प्रेम-रस में सराबोर होकर कृष्ण-कन्हैया के मधुर रंग को प्राप्त कर रही है।

ब्रज की रंगीली गलियों में रस भरी होली हो रही है। रंग-बिरंगे परिधानों में सजे गोप-गोपियों का समूह कन्हैया का अनुराग-रस पीने निकल पड़ा। होली की धमा-चौकड़ी से सारा ब्रज क्षेत्र पुलकित हो उठा। रसिकों से सुनी यह कथा कितना मन मोहती है कि होली पर गोकुल गांव में बेचारी बाहर की कोई नई बहू आई। भला वो क्या जाने कन्हैया की होली के रीति-रिवाजों को! जिधर भी जाए उधर ही होली का ऊधम। सांवरिया कन्हैया तो जगह-जगह ठिठोली करते फिर रहे हैं। संत नागरीदास ने इसी अनूठे फाग के रंग में भीगकर इस कथा का बड़ा सुंदर चित्रण किया-और हूं गांव सखी बहुतैं पर गोकुल गांम कौ पैड़ो ई न्यारौ।।

सरस वृतांत

रसखान, नागरीदास तथा कई कृष्णभक्त कवियों ने होली के बड़े ही सरस वृत्तांत लिखे हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि श्रीकृष्ण हाथ में पिचकारी लेकर हम सभी जीवों को अपने आनंदरस के रंग में रंगने हेतु मोरचा संभाले बैठे है। जब उनकी आनंद की पिचकारी सतरंगी धार छोड़ेगी तो भला क्या मजाल कि कोई बचकर निकल जाए! ऐसी धार पड़ेगी कि एक ही पिचकारी में जन्म-जन्मांतर रंगीले हो जाएंगे।

होली एक दिन या पखवाड़े का उत्सव नहीं हैं। यह पर्व तो प्यार के रंगों और आनंद के गीतों का है, एक-दूसरे में प्रेम-रंग रंगने का है। अब भले ही बदलते परिवेश की काली परछाई हमारी आत्मा से जुड़े परंपरा के इन अनूठे रंगों को बदरंग करने पर तुली है, परंतु यह सनातन रंग तो ऐसा है, जिसे बिना आंखों वाले सूरदास भी पहचानते है-चढ़त न दूजो रंग!