चेतनादित्य आलोक
सृष्टि में मौजूद ‘ज्ञान’ के चार भेद अथवा क्षेत्र होते हैं-ऋक्, यजु:, साम और अथर्व। यह ऋक् कल्याण का, यजु: पौरुष का, साम क्रीड़ा तथा अथर्व अर्थ का प्रतीक माना जाता है। यह शास्त्र सम्मत है कि संपूर्ण सृष्टि में पाए जाने वाले सभी प्राणियों की समस्त ज्ञान-धारा तथा समष्टि की समस्त चेतना ज्ञान के इन्हीं चारों क्षेत्रों में परिभ्रमण करती हैं। उपर्युक्त चारों प्रकार के ज्ञान को ही शास्त्रों में वेदों के रूप में अभिहित किया गया है।
पूर्वजों ने ‘गायत्री’ को ‘माता’ तथा ‘चारों वेदों’ को ‘पुत्र’ के रूप में स्वीकारा
शास्त्र बताते हैं कि हमारे चारों वेद ब्रह्मा द्वारा सृष्टि के आरंभ में उत्पन्न की गई उस महान ‘चैतन्य शक्ति’ के स्फुरण से प्रकट हुए थे, जिन्हें ऋषि, महर्षि और ज्ञानीजन ‘गायत्री’ के नाम से संबोधित करते हैं। तात्पर्य यह कि ‘गायत्री मंत्र’ ब्रह्मा जी के मुख से नि:सृत हुआ और गायत्री मंत्र से चारों वेदों की उत्पत्ति हुई। यही कारण है कि हमारे पूर्वज शास्त्रकारों ने ‘गायत्री’ को ‘माता’ तथा ‘चारों वेदों’ को ‘पुत्र’ के रूप में स्वीकार किया है।
आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली ‘देवी’ बताया गया
ब्रह्मा के मुख से नि:सृत होने के कारण माता गायत्री का एक नाम ‘ब्रह्माणी’ पड़ा। साथ ही समस्त ज्ञान-विज्ञान की देवी होने के कारण इन्हें ‘ज्ञान-गंगा’ की उपाधि से विभूषित किया गया और ये ब्राह्मणों की आराध्या देवी मानी गईं। इनके अतिरिक्त इनका एक नाम ‘परब्रह्मस्वरूपिणी’ भी है। हिंदू संस्कृति के आधार ग्रंथ वेदों का प्राकट्य माता गायत्री से होने के कारण इन्हें ‘हिंदू संस्कृति की जननी’, समस्त ‘वेदों का सार’ तथा ‘वेदमाता’ भी कहा जाता है, जबकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश की आराध्या देवी होने के कारण यह ‘देवमाता’ के रूप में भी जानी जाती हैं। ज्ञान के चतुर्थ भेद ‘अथर्व’ का प्रतिनिधित्व करने वाले ‘अर्थववेद’ में माता गायत्री की स्तुति करते हुए उन्हें आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली ‘देवी’ बताया गया है।
हमारे शास्त्रों, ऋषि-मुनियों एवं महापुरुषों ने गायत्री मंत्र की बड़ी महिमा गाई है। महर्षि विश्वामित्र का कथन है- ‘गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मंत्र नहीं है। संपूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप आदि गायत्री मंत्र की एक कला के समान भी नहीं हैं।’ महाभारत आदि अनेक ग्रंथों के रचयिता महर्षि वेदव्यास ने गायत्री मंत्र की महिमा बताते हुए कहा है- ‘जिस प्रकार पुष्पों का सार शहद, दूध का सार घी है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री मंत्र है।’ इस प्रकार अत्रि, उद्यालक, शृंगी, पाराशर, चरक, भारद्वाज, शंख एवं याज्ञवल्क्य समेत प्राय: सभी ऋषि-मनीषियों एवं महर्षियों ने गायत्री मंत्र की महिमा का गुणगान किया है।
इनके अतिरिक्त स्वामी रामतीर्थ, स्वामी विवेकानंद, जगद्गुरु शंकराचार्य, महषि रमण, स्वामी शिवानंद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महर्षि अरविंद, मदनमोहन मालवीय एवं महात्मा गांधी समेत आधुनिक काल के अनेक महापुरुषों ने भी गायत्री मंत्र के महत्त्व को स्वीकार किया है। हमारे वेदों, उपनिषदों, शास्त्रों, पुराणों और स्मृतियों समेत सभी धर्मग्रंथों में गायत्री मंत्र की महिमा का इतना विषद् वर्णन मिलता है कि यदि उन्हें संग्रह कर लिया जाए तो एक पृथक ‘गायत्री महापुराण’ रचा जा सकता है।
मां के पांच मुख और दस हाथ हिंदू संस्कृति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है
माता गायत्री के पांच मुख और दस हाथ दर्शाये गए हैं, जो हिंदू संस्कृति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हैं। माता के चार मुख चारों वेदों के प्रतीक माने जाते हैं, जबकि उनका पांचवा मुख सर्वशक्तिमान ‘शक्ति’ का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं माता के दस हाथ भगवान विष्णु के दस अवतारों के प्रतीक हैं। यह शास्त्र सम्मत है कि चारों वेदों का ज्ञान लेने के बाद व्यक्ति को जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वह केवल गायत्री मंत्र को अंगीकार कर लेने से ही मिल जाता है। हालांकि जन साधारण के लिए यह हमेशा से उपलब्ध नहीं था। यह गायत्री मंत्र आरंभ में सिर्फ देवी-देवताओं तक ही सीमित था। लेकिन महर्षि विश्वामित्र की अत्यंत कठोर साधना के उपरांत यह परम कल्याणकारी गायत्री मंत्र सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो पाया।
मंत्र शक्ति
गायत्री मंत्र इस प्रकार है:- ओम भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात।
माता गायत्री का उद्भव सावन पूर्णिमा के दिन होने के कारण प्रत्येक वर्ष ‘सावन पूर्णिमा’ को देश भर में ‘गायत्री जयंती’ का आयोजन उत्सव के रूप में किया जाता है। इसमें स्वच्छता एवं पवित्रता का पूरा ध्यान रखा जाता है। हालांकि कुछ स्थानों पर गंगा दशहरा के दिन, जबकि देश के कुछ भागों में गंगा दशहरा के अगले दिन यानी ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को ‘गायत्री जयंती’ मनाई जाती है। गायत्री जयंती यानी सावन पूर्णिमा को गंगा अथवा किसी पवित्र नदी में स्रान एवं दान करने का विशेष महत्त्व होता है। यदि किसी पवित्र नदी में संभव न हो तो घर में ही जल के पात्र में गंगा जल मिलाकर स्रान करना चाहिए। इस दिन माता गायत्री की विशेष पूजा-अर्चना करने का विधान है, जिसके बाद गायत्री मंत्र का जप करना उत्तम होता है। अंत में माता गायत्री की आरती करनी चाहिए।
