पूनम नेगी

यही उत्सवधर्मिता हमारे समाज में सुसंस्कारिता व समरसता का बीजारोपण कर हमें विशिष्टता प्रदान करती है। हिंदू धर्म का ऐसा ही एक व्रत है- अहोई अष्टमी। जैसे करवा चौथ का व्रत पति की दीर्घायु के लिए किया जाता है, ठीक उसी तरह कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन रखा जाने वाला यह व्रत बच्चों की खुशहाली के लिए किया जाता है।

ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने वाली माताओं को उत्तम संतान सुख का वरदान मिलता है। विवाहित महिलाएं यह व्रत संतानों के सुखमय जीवन के लिए रखती हैं। ‘अहोई माता’ के रूप में जगजननी मां पार्वती के व्रत व पूजन की परम्परा सनातनी हिंदू धर्मावलम्बी परिवारों में पौराणिक काल से चली आ रही है।

‘अहोई’ अर्थात अशुभ या अनहोनी को शुभ में बदलने वाली शक्ति। करवा चौथ के ठीक चार दिन बाद पड़ने वाली अष्टमी तिथि को हिंदू परिवारों की माताएं दिनभर निर्जल उपवास रखने के बाद और सायंकाल में तारे दिखाई देने के बाद अहोई माता का विधिपूर्वक पूजन करती हैं। यह व्रत उत्तर भारत में विशेष रूप से लोकप्रिय है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की अहोई अष्टमी ‘आठें’ या ‘आठों’ के नाम से भी जानी जाती है। यह व्रत दीपावली से ठीक एक सप्ताह पूर्व आता है। प्राचीन काल में सात दिवसीय प्रकाश पर्व का शुभारम्भ इसी तिथि से होता था जो कालांतर में पांच दिवसीय हो गया। इस बार यह व्रत 17 अक्तूबर को रखा जाएगा।

व्रत से जुड़े रोचक पौराणिक कथानक के अनुसार एक गांव में एक साहूकार पत्नी व सात पुत्रों के साथ रहता था। एक बार कार्तिक माह में उसकी पत्नी मिट्टी खोदने जंगल में गई। वहां उसकी कुदाल से भूलवश एक पशु शावक (स्याऊ के बच्चे) की मौत हो गई। उस घटना के बाद उस औरत के सातों पुत्र एक के बाद एक मृत्यु को प्राप्त हो गए।

सात पुत्रों की अकाल मौत से दुखी उस महिला ने जब अपना दर्द गांव के ब्राह्मण पुरोहित को बताया तो उन्होंने उस दुखियारी मां को आदिशक्ति मां पार्वती की व्रत-पूजा करने की सलाह दी। तब उस महिला ने पुरोहित के कहे अनुसार कार्तिक माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि के दिन पूर्ण विधि विधान से निर्जला उपवास कर पूर्ण भाव भक्ति से माता का व्रत-पूजन किया और माता के आशीर्वाद से चमत्कारिक रूप से उसकी सभी मृत संतानें फिर जीवित हो गई। तभी से संतान की मंगलकामना के लिए माताओं द्वारा इस व्रत पूजन की परंपरा शुरू हो गई।

व्रत की पूजन परंपरा

कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी यानी अहोई अष्टमी के दिन माताएं सूर्योदय से पूर्व उठकर सर्वप्रथम फल खाती हैं वैसे ही जैसे करवा चौथ पर ‘सरगी’ खाने की परंपरा है। तत्पश्चात सूर्योदय के पूर्व नित्य क्रियाओं से निवृत हो नहाने-धोने के उपरांत सूर्योदय के साथ अहोई माता का पूजन कर व्रत का संकल्प लिया जाता है। अहोई माता से दिन भर संतान की दीर्घायु व निर्विघ्न सुखी जीवन की प्रार्थना के उपरांत संध्या के समय सूर्यास्त होने के बाद जब तारे निकलने लगते हैं तो अहोई माता की पूजा प्रारंभ होती है।

पूजन के लिए सबसे पहले जमीन को स्वच्छ कर पूजा के लिए अष्टकोण का चौक पूरा जाता है। फिर उस चौक में अहोई माता के साथ ‘स्याऊ’ व उसके बच्चे की आकृति का अंकन किया जाता है। तदोपरांत जल से भरा कलश व प्रज्वलित दीप स्थापित कर गेहूं इत्यादि अनाज से भरी थाली माता के सामने अर्पित कर विधिपूर्वक अहोई माता का पूजन कर भक्तिभाव से व्रत की कथा कही जाती है।

भगवान श्रीकृष्ण ने दिया था वरदान

मथुरा के राधाकुंड को लेकर लोगों की अटूट आस्था है कि अहोई अष्टमी की मध्यरात्रि 12 बजे को इस कुंड पर लगने वाले अहोई अष्टमी मेले में जो दंपति विशेष स्नान पर्व पर हाथ पकड़कर कुंड में डुबकी लगाते हैं, उन्हें संतान की प्राप्ति का सुख अवश्य मिलता है। यह विशेष स्नान नि:संतान दंपति के जीवन में खुशियां भर देता है। इसी कारण इस अवसर पर यहां देश, विदेश के कोने-कोने से बड़ी संख्या में पति-पत्नी संतान प्राप्ति की इच्छा लेकर आते हैं और इस स्नान पर्व में शामिल हो मुंहमांगी मुराद पाते हैं।

इस बाबत पौराणिक किंवदंती यह है कि भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर काल में राधाकुंड और श्याम कुंड का निर्माण किया था तथा ब्रजवासियों के कहने पर भगवान ने उन्हें वचन दिया था जो भी सच्चे मन से राधाकुंड में स्नान करेगा उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण होंगी। तभी से कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को राधाकुंड में स्नान का विशेष पर्व मनाया जाता है। यहां दंपति स्नान करते हैं और राधाजी की पूजा कर वंशवृद्धि का वरदान प्राप्त करते हैं।