हिंदू धर्म में चंद्रमा को देवता का रुप माना जाता है। ज्योतिष और वेदों के अनुसार चंद्रमा को मन का संचालक माना गया है। जिस प्रकार अग्नि, इंद्र, सूर्य आदि का पूजन किया जाता है, उसी प्रकार से चंद्रमा की स्तुति भी पढ़ी जाती है। मत्स्य और अग्नि पुराण के अनुसार माना जाता है कि जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना के बारे में सोचा तो उन्होनें सबसे पहले मानसिक संकल्प से मानस पुत्रों की रचना की थी। उन्हीं में से एक मानस पुत्र ऋषि अत्रि का विवाह ऋषि कर्दम की कन्या अनुसुइया से हुआ जिससे दुर्वासा, दत्तात्रेय व सोम तीन पुत्र की प्राप्ति हुई। इन तीन पुत्रों में से सोम को ही चंद्र कहा जाता है।

पद्म पुराण के अनुसार चंद्र के जन्म के लिए वृतांत बताया गया है, कहा जाता है कि ब्रह्मा ने अपने मानस पुत्र अत्रि को सृष्टि का विस्तार करने की आज्ञा दी थी। इसी से प्रेरित होकर महर्षि ने अत्रि ने तप प्रारंभ किया। इस दौरान महर्षि अत्रि की आंखों से जल की बूंदे गिरी और एक चमत्कारी स्त्री ने आकर उन बूंदों को पुत्र प्राप्ति की कामना से ग्रहण कर लिया। गर्भ स्थित होने पर भी दिशाएं उस प्रकाशमान गर्भ को धारण नहीं रख सकीं और त्याग दिया। दिशाओं द्वारा त्यागे हुए गर्भ को ब्रह्मा ने पुरुष रुप उत्पन्न कर दिया जो चंद्रमा के नाम से प्रख्यात हुए। सभी देवताओं, ऋषियों व गंधर्वों आदि ने स्तुति की और चंद्रमा के तेज से पृथ्वी पर दिव्य औषधय की उत्पत्ति हुई। चंद्रमा को ब्रह्मा जी ने नक्षत्र, वनस्पतियों, ब्राह्मण व तप का स्वामी नियुक्त किया।

स्कंद पुराण के अनुसार माना जाता है कि जब देवताओं और दैत्यों ने क्षीर सागर समुद्र मंथन किया था तो उस समुद्र मंथन से चौदह रत्न प्राप्त हुए थे। चंद्रमा को उन्हीं चौदह में से एक माना जाता है। चंद्रमा को लोक कल्याण हेतु समुद्र मंथन से प्राप्त कालकूट विष को पी जाने वाले भगवान शिव ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया लेकिन एक ग्रह के रुप में चंद्रमा की ब्रह्मांड में उपस्थिति मंथन से पूर्व से मानी जाती है।