आचार्य के अनुसार मधुर भाषण करने वाला व्यक्ति समूचे संसार को अपना बना सकता है। अनेक कुपुत्र होने के बजाय एक सुपुत्र होना कहीं अच्छा है। चाणक्य ने बाल मनोविज्ञान पर भी प्रकाश डाला है। श्लोक में ‘पुत्र’ शब्द का प्रयोग संतान के अर्थ में किया गया है। बेटियों के संदर्भ में भी यही नियम लागू होता है।

एकेनाऽपि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना।
वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं तथा।।

चाणक्य ने अपने तृतीय अध्याय के चौदहवें श्लोक में लिखा है कि जिस प्रकार सुगंधित फूलों से लदा हुआ एक ही वृक्ष सारे जंगल को सुगंध से भर देता है, उसी प्रकार सुपुत्र से सारे वंश की शोभा बढ़ती है, प्रशंसा होती है।

बहुत से लोगों के बहुत से पत्र अथवा संतानें होती हैं. परंत उनकी अधिकता के कारण परिवार का सम्मान नहीं बढ़ता। कुल का सम्मान बढ़ाने के लिए एक सद्गुणी पुत्र ही काफी होता है। धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक भी ऐसा नहीं निकला जिसे सम्मान से स्मरण किया जाता हो। ऐसे सौ पुत्रों से क्या लाभ? सगर के तो साठ हजार पुत्र थे।

एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना।
दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं तथा।।

चाणक्य ने अपने तृतीय अध्याय के पंद्रहवें श्लोक में लिखा है कि जिस प्रकार एक ही सूखे वृक्ष में आग लगने से सारा जंगल जलकर राख हो जाता है, उसी प्रकार एक मूर्ख और कुपुत्र सारे कुल को नष्ट कर देता है।

जैसे जंगल का एक सूखा पेड़ आग पकड़ ले तो सारा वन जल उठता है, उसी प्रकार कुल में एक कुपुत्र पैदा हो जाए तो वह सारे कुल को नष्ट कर देता है। कुल की प्रतिष्ठा, आदर-सम्मान आदि सब धूल में मिल जाते हैं। दुर्योधन का उदाहरण सभी जानते हैं, जिसकेकारण कौरवों का नाश हुआ। लंकापति रावण भी इसी श्रेणी में आता है।

एकेनाऽपि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन साधुना।
आह्लादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी।।

चाणक्य ने अपने तृतीय अध्याय के सोलहवें श्लोक में लिखा है कि एक ही पुत्र यदि विद्वान और अच्छे स्वभाव वाला हो तो उससे परिवार को उसी प्रकार खुशी होती है, जिस प्रकार एक चंद्रमा के उत्पन्न होने पर काली रात चांदनी से खिल उठती है।

यह आवश्यक नहीं है कि परिवार में यदि बहुत-सी संतानें हैं, तो वह परिवार सुखी ही हो। अनेक संतानों के होने पर भी यदि उनमें से कोई विद्वान और सदाचारी नहीं तो परिवार के सुखी होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए चाणक्य कहते हैं कि बहुत से मूर्ख पुत्रों और संतान की अपेक्षा एक ही विद्वान और सदाचारी पुत्र से परिवार को उसी प्रकार प्रसन्नता मिलती है, जैसे चांद के निकलने पर उसके प्रकाश से काली रात जगमगा उठती है।

किं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः।
वरमेकः कुलाऽऽलम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम्।।

चाणक्य ने अपने तृतीय अध्याय के सत्रहवें श्लोक में लिखा है कि दुख देने वाले, हृदय को जलाने वाले बहुत से पुत्रों के उत्पन्न होने से क्या लाभ? कुल को सहारा देने वाला एक ही पुत्र श्रेष्ठ होता है, उसके आश्रय में पूरा कुल सुख भोगता है।

ऐसे बहुत से पुत्रों से कोई लाभ नहीं, जिनके कार्यों से परिवार को शोक का सामना करना पड़े, हृदय को दुख पहुंचे। ऐसे बहुत से पुत्रों की अपेक्षा परिवार को सहारा देने वाला एक ही पुत्र अधिक उपयोगी होता है, जिसके कारण परिवार को सुख प्राप्त होता है।