हिंदू धर्म में जाति पाति ऊंच-नीच छोटे-बड़े के भेद मिटाकर सामाजिक समरसता और मानव मात्र की मुक्ति के लिए नई राह दिखाई साथ ही हिंदू धर्म में वैचारिक वाद-विवाद को मिटाकर सत्य सनातन धर्म को समन्वय का विराट रूप प्रदान किया और हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति की महान परंपरा और महिमा को जनमानस को समझाया। भगवान श्री चंद्र आचार्य महाराज ने ह्माडम्बर, मिथ्याचार, पाखंडों, अवैदिक मत-मतांतरों तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों का जमकर विरोध किया और मानव मात्र की एकता के सूत्र को समाज में पिरोया।
भगवान श्री चंद्राचार्य का उदघोष था-‘चेतहु नगरी, तारहु गांव, अलख पुरुष का सिमरहु नांव।’ भगवान श्री चंद्राचार्य ने भगवान गौतम बुद्ध की तरह लोकभाषा को हमेशा महत्व दिया और जनमानस को उसकी सरल भाषा में ही उपदेश देकर हिंदू वैदिक परंपराओं को समझाया। भगवान श्री चंद्र चंद्राचार्य ने आदि जगदगुरु शंकराचार्य की भांति ही वेदों का भाष्य किया तथा कबीर जैसे सिद्ध कोटि के जननायक संतों की तरह वाणी साहित्य की रचना भी की थी।
उन्हें शिव का स्वरूप माना जाता है और वे धूने की भस्मी पूरे शरीर में धारण करते थे और लंगोट में रहते थे उदासीन संप्रदाय में धूने की परंपरा को उन्होंने ही शुरू किया। भगवान श्री चंद्राचार्य की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए लोक कल्याण हेतु संस्कृत पाठशाला, चिकित्सालयों, मंदिरों और धर्मशालाओं की स्थापना करने का संकल्प उदासीन संतों ने लिया और इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उदासीन सिद्ध संत निर्वाण प्रियतम दास महाराज ने दक्षिण भारत के हैदराबाद में तपस्थली निर्वाण थड़ा में श्री पंचायती अखाड़ा उदासीन की स्थापना करने का संकल्प लिया और उदासीन संतो को प्रेरणा प्रदान की।
उन्होंने उदासीन संप्रदाय के संतों के साथ मिलकर अपने इस संकल्प को विक्रम संवत 1825 माघ शुक्ल पंचमी को शिव की ससुराल तथा देवी सती के जन्मस्थल कनखल (हरिद्वार) क्षेत्र में गंगा के तट पर राजघाट में श्री पंचायती उदासीन बड़ा अखाड़ा की स्थापना करके पूरा किया। इस तरह तपोमूर्ति देव श्री प्रियतम दास महाराज उदासीन पंचायती अखाड़ा के संस्थापक अध्यक्ष श्रीमहंत बने।
धार्मिक मान्यता है कि निर्वाण देव श्री प्रियतम दास महाराज को नेपाल की तराई के जंगलों में कठोर तपस्या करते समय सिद्ध साधक संत बाबा बनखंडी ने दर्शन दिए थे और उनकी कठोर परीक्षा ली थी और उन्हें अपनी पवित्र धूनी से विभूति का पवित्र गोला प्रदान किया था जो आज भी उदासीन अखाड़ा में विद्यमान है और जिसकी पूजा अखाड़े में बोला साहब के रूप में की जाती है।
श्री चंद्राचार्य की परंपरा को आज कुंभ नगरी हरिद्वार में उदासीन संप्रदाय के श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन निर्वाण और श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन निभा रहे हैं। इन दोनों अखाड़ों की कर्मभूमि हरिद्वार और प्रयागराज प्रमुख रूप से मानी गई है। श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन निर्वाण के श्री महन्त महेश्वर दास महाराज बताते हैं कि उदासीन अखाड़ा की विभिन्न शाखाएं पूरे भारत में भगवान श्री चंद्राचार्य के विचारों के प्रचार-प्रसार में समर्पित भाव से लगी हुई हैं और उदासीन संप्रदाय देशभर में संस्कृत विद्यालयोंं की स्थापना करके संस्कृत के प्रचार प्रसार के कार्य को निष्ठा एवं आस्था के साथ कर रहा है।
श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन के अध्यक्ष महंत श्री भगत राम महाराज कहते हैं कि उदासीन संप्रदाय देश-विदेश में भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार मेंं जुटा है और भगवान श्री चंद्राचार्य विचारों को निष्ठापूर्वक समाज में प्रतिपादित कर रहा है।
भगवान श्री चंद्राचार्य का प्रादुर्भाव जन्मोत्सव भाद्रपद शुक्ल पक्ष की नवमी संवत 1551 को हुआ था। उनका बचपन का नाम चन्द्र देव था। उनका जन्म लाहौर की खड़गपुर तहसील के तलवंडी नामक स्थान में सिख धर्म के प्रवर्तक श्रीगुरु नानकदेव जी की पत्नी सुलक्षणा देवी के घर हुआ था।
उनके जन्म से ही सिर पर जटाएं, शरीर पर भस्म तथा दाहिने कान में कुंडल शोभित था। वे वैदिक कर्मकाण्ड के पूर्ण समर्थक थे। उन्होंने ज्ञान-भक्ति के श्रेष्ठ सिद्धांत को प्रतिपादित किया। उन्होंने करामाती फकीरों, सूफी संतों, अघोरी तांत्रिकों और विधर्मियों को अपनी अलौकिक सिद्धियों और उपदेशों से प्रभावित कर वैदिक धर्म की दीक्षा भी दी थी। उन्होंने वेद-वेदांग और शास्त्रों का गहन अध्ययन किया।
अद्वितीय प्रतिभा के सम्पन्न होने के कारण आपने बहुत ही कम समय में सारी विधाएं आत्मसाध कर ली थीं। माना जाता है कि डेढ़ सौ साल तक इस नश्वर संसार में रहकर उन्होंने सनातन धर्म की ध्वज पताका फहराई और अपने जीवन के अंतिम क्षणों में ब्रह्राकेतु महाराज को उपदेश दिया और रावी में शिला पर बैठकर पार गए।