Bhagavad Gita: श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण व्यक्ति को ही सही मार्ग में चलने को लेकर कई नीतियां बताई हैं। महाभारत के युद्ध क दौरान अर्जुन को सही गलत का पाठ पढ़ाने के लिए श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश्य दिया था। श्री कृष्ण कहते हैं कि एक मनुष्य कभी न कभी किसी न किसी समस्या से परेशान रहता है या फिर समय के साथ उसके व्यवहार में बदलाव आने लगता है। जब व्यक्ति के ऊपर कोई मुश्किल आती है, तो वह बिना हल निकाले झटपटाने लगता है। कई बार मनुष्य किसी न किसी कारण अहंकार के वश में आ जाता है। ऐसे में ही श्री कृष्ण ने बताया है कि आखिर कर्म करने के बाद अहंकार क्यों नहीं करना चाहिए?

श्लोक-

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।

अर्थ- श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन कर्म मुझको नहीं बांधते हैं, क्योंकि मैं उन कर्मों में अनासक्त और उदासीन के भांति स्थित है।

श्रीमद्भगवत गीता के नौवें अध्याय के इस श्लोक में श्री कृष्ण से हर किसी को समझाने की कोशिश की है कि व्यक्ति को कभी भी कर्म करने के बाद फल की इच्छा नहीं करनी चताहिए। शरीर और मन से जो आप कर्म करते हैं। उसका फल आपको तुंरत मिलता है या फिर किसी न किसी समय मिल जाता है, क्योंकि वह आपके चित्त में इकट्ठा होता रहता है। ऐसे में अगर आप कर्म करने के बाद फल की इच्छा रखते हैं, तो आप खुद को फल के कारण बांध देते हैं। इसके साथ ही कर्म करने के बाद जरा सा भी अहंकार नहीं करना चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति को कभी भी कर्म करने के बाद फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। अगर हम कर्म के फल को लेकर आसक्त हो जाते हैं, तो उससे खुद को ही निराश कर लेते हैं। इसलिए हमेशा कर्म के फल को लेकर उदासीन होना चाहिए। कर्म करने के बाद अहंकार को अपने अंदर बिल्कुल भी उत्पन्न न होने दें। जब आपके कर्म के फल में बंधे नहीं होते हैं, तो आप अहंकार से भी दूर हो जाते हैं। इसके साथ ही सभी कर्म निष्काम हो जाते हैं। फिर हम उन कर्मों में नहीं बंधते।

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