पूनम नेगी

भगवान परशुराम मूलत: अतीत में एक लंबे समय तक चलने वाले देश के आंतरिक युद्ध के ऐसे महानायक माने जाते हैं, जिन्होंने शास्त्र ज्ञान और पराक्रम दोनों के माध्यम से राष्ट्र व जनविरोधी अन्यायी शक्तियों का विनाश किया था।

सनातन धर्म की मान्यता है कि जब-जब धरती पर अधर्मियों का अत्याचार बढ़ता है तब-तब ईश्वर दुष्टों का विनाश कर सुख शांति व धर्म की स्थापना के लिए अवतारी सत्ताओं को दुनिया में भेजते हैं। परशुराम जी ऐसी ही एक अवतारी विभूति थे। इन्हें श्रीहरि विष्णु का छठा आवेशावतार माना जाता है, जिन्होंने राजमद में चूर आतातायी शासकों के आतंक से धरतीवासियों को मुक्त करने के लिए धरा धाम पर अवतरण लिया था। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान परशुराम का जन्म सतयुग और त्रेता के संधिकाल में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर के प्रदोष काल में माता रेणुका तथा पिता जमदग्नि के ऋषि आश्रम में हुआ था।

अपने विशिष्ट गुणों के कारण चिरंजीवी के वरदान से अलंकृत भगवान परशुराम भारत के पुरा इतिहास के ऐसे अप्रतिम साहसी व अद्भुत नायक हैं, जिनका वर्णन सतयुग के समापन से कलियुग के प्रारंभ तक पौराणिक वृतांतों में मिलता है। उनकी तेजस्विता और ओजस्विता के सामने कोई भी नहीं टिकता, न शास्त्रास्त्र में और न ही अस्त्र-शस्त्र में।

भले ही सीता स्वयंवर में धनुषभंग के दौरान लक्ष्मण से उनके संवाद को कतिपय लोग उनकी पराजय से जोड़ते हों, मगर ऐसा सोचना उनकी अज्ञानता ही कही जाएगी। वस्तुत: उस शिव धनुष के भंग के प्रति उनका आक्रोश अपने गुरु महादेव के प्रति अनन्य निष्ठा के कारण ही उपजा था। तभी तो श्रीराम उन्हें विनम्रतापूर्वक नमन करते हैं। वे अक्षय तृतीया को जन्मे, इसलिए उनकी शस्त्र शक्ति अक्षय थी और शास्त्र-संपदा भी। विश्वकर्मा जी के अभिमंत्रित दिव्य धनुषों की प्रत्यंचा चढ़ाने की सामर्थ्य केवल परशुराम जी में ही थी।

उनका परशु अपरिमित शस्त्र-शक्ति का प्रतीक था जो उनको भगवान शंकर ने शस्त्र विद्या की परीक्षा में सफल होने पर पारितोषिक रूप में प्रदान किया था। जहां ह्यरामह्ण मयार्दा व लोकनिष्ठा का पर्याय माने जाते हैं, वहीं परशुराम अनीति विमोचक शस्त्रधारी। वे शक्ति और ज्ञान के दिव्य पुंज थे। जानना दिलचस्प होगा कि ब्राह्मण कुल में जन्मे परशुरामजी के प्रथम गुरु महर्षि विश्वमित्र मूलत: क्षत्रिय ही थे जिन्होंने ब्राह्मण बालक परशुरामजी को बाल्यकाल में शस्त्र चलाना सिखाया था।

भगवान परशुराम मूलत: अतीत में एक लंबे समय तक चलने वाले देश के आंतरिक युद्ध के ऐसे महानायक माने जाते हैं, जिन्होंने शास्त्र ज्ञान और पराक्रम दोनों के माध्यम से राष्ट्र व जनविरोध अन्यायी शक्तियों का दमन किया था। गौरतलब हो कि दीर्घकालिक आंतरिक युद्धों का संभवत: यह वही दौर था जिसमें कभी क्षत्रिय विश्वमित्र, ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे किन्तु अंतत: विश्वामित्र नतमस्तक हुए।

कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन से युद्ध

भगवान परशुराम की लोकप्रसिद्धि से जुड़ा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रसंग कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन से युद्ध का माना जाता है। कहते हैं कि एक बार कार्तवीर्य अर्जुन ऋषि जमदग्नि के आश्रम में गए तो ऋषिवर ने गोमाता कामधेनु की कृपा से उनका विशेष सत्कार किया। कामधेनु की विशेषताएं देख कार्तवीर्य ललचा गए और गाय देने की मांग कर डाली।

जमदग्नि के इनकार पर कार्तवीर्य ने क्रोध में आकर ऋषि का वध कर उनका समूचा आश्रम तहस नहस कर दिया और कामधेनु को जबरन साथ ले जाने लगे किन्तु कामधेनु उनके हाथ से छूटकर सीधे स्वर्ग चली गई और कार्तवीर्य को रीते हाथ लौटना पड़ा। जब परशुराम को पूरी बात पता चली तो उन्होंने धरती से आतातायी शासकों से मुक्त करने का संकल्प ले लिया। सामान्य तौर पर क्रोध को उचित नहीं माना जाता। मगर भगवान परशुराम का क्रोध अन्याय के खिलाफ था। उन्होंने समयानुकूल आचरण का जो आदर्श स्थापित किया वह युगों-युगों तक मानव मात्र को प्रेरणा देता रहेगा।