तीर्थराज प्रयाग के सभी तीर्थों में अक्षयवट का विशेष महत्व माना गया है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस अक्षयवट वृक्ष का संबंध सृष्टि के आरंभ काल से माना जाता है। कहते हैं कि इस अक्षयवट को माता सीता ने वरदान दिया था कि जब प्रलय काल आएगा और पृथ्वी जलमग्न हो जाएगा। फिर भी इस अक्षयवट का एक पत्ता बचा रहेगा। साथ ही भगवान श्रीकृष्ण बाल रूप लेकर इसी वट वृक्ष पर विराजमान होंगे। आगे जानते हैं इसकी क्या मान्यता है।
अक्षयवट का उल्लेख रामायण में भी किया गया है जिसमें इसका नाम नीलवट के रूप में मिलता है। मान्यता है कि वन जाने के वक्त जब भगवान श्रीराम जब भारद्वाज आश्रम पहुंचे तब कुछ समय बाद वहां से गंगा पर कर अक्षयवटका दर्शन किया। फिर माता सीता ने भी इस वृक्ष की पूजा की और अपने अक्षय सौभाग्य की कामना की। इस प्रकार उस समय अक्षयवट गंगा के पूरब दिशा में था। जबकि इस समय अक्षयवट इलाहाबाद किले के अंदर में है। साथ ही गंगा की अक्षयवट की पूर्व दिशा में प्रवाहित हो रही हैं। पहले अक्षयवत पश्चिम और भरद्वाज आश्रम के पूर्व दिशा में गंगा जी प्रवाहित होती थी।
कहते हैं कि अपने पितरों के मोक्ष की कामना के लिए जो भी श्रद्धालु श्राद्ध करते हैं, उसकी पूर्णाहुति इसी अक्षयवत के नीचे करते हैं। मान्यता है कि अक्षयवट में श्राद्ध के बाद पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। पद्मपुराण में भी अक्षयवट का जिक्र मिलता है। माना जाता है कि जो मनुष्य इस वट वृक्ष की छाया में पहुंच जाता है वह इस संसार के जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। शास्त्रों में इस अक्षयवत की पूजा के बारे में भी बताया गया है। जिसमें सबसे पहले संगम स्नान के विषय में बताया गया है। फिर अन्य देवी-देवताओं के दर्शन किया जाए। इसके बाद अक्षयवट का विधिवत पूजन किया जाए। पूजन के बाद कच्चा सूत उनके चारों ओर लपेटा जाए। कहा जाता है कि ऐसा करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। मान्यता यह भी है कि जिस प्रकार वह अक्षय हैं उसी प्रकार मनुष्य के सुख, सौभाग्य और समृद्धि को भी अक्षय बनाते हैं।


