नरपतदान चारण

मर्यादा से अभिप्राय होता है मनुष्य के आचरण और व्यवहार की एक स्वीकार्य सीमा। हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य-भाषण और पाप करने वाले दुष्टों के से दूर रहना, ये सात तरह की मर्यादाएं शास्त्रों में बताई गई हैं। जो एक भी मर्यादा का उल्लंघन करता हैं, वह पापी कहलाता हैं और जो धैर्य से इन पापों को छोड़ देता हैं, वह निसंदेह जीवन का स्तंभ और मोक्ष प्राप्ती के योग्य होता हैं। हालांकि इसका क्षेत्र विस्तृत है। मर्यादाएं जुड़ी होती हैं संबंधों से, पद अथवा प्रस्थिति से, सामाजिक व्यवहार से एवं वाणी से।

हमारी संस्कृति और परंपरा में मर्यादा के निर्वाह की बड़ी महिमा है। इसमें जीवन में संतुलन और सामंजस्य कायम रखने के लिए मर्यादा का पालन करना नितांत आवश्यक होता है। मर्यादित जीवन का अर्थ है, मनुष्य अपने हर विचार, व्यवहार और कर्म को सामाजिक नैतिक मूल्यों की सीमा के अंदर रहकर ही करे। तभी उसके जीवन की दशा और दिशा सुधरती है और जीवन में उच्चता प्राप्त कर सकता है।

पारस्परिक संबंधों में कलह क्लेश की स्थिति पैदा होने से रोकने, कार्य को सुचारु रूप से चलाने तथा समाज में तालमेल सामंजस्य, स्नेह और व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी मर्यादा अत्यंत आवश्यक है। हालांकि सभी के लिए मर्यादा का पालन करना सहज नहीं है। मर्यादा भंग होने से ही अनुशासन टूटता है एवं समाज भी बिखर जाता है। ऐसे वक्त पर समझदार व्यक्ति मर्यादा में चलकर दूसरे के लिए प्रेरणास्रोत बन अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, वे ही महान कहलाते हैं। आज समाज में मर्यादा का पतन हो रहा है।

आजकल सोशल मीडिया में अमर्यादित आचरण बड़े स्तर पर देखने को मिलता है। कभी नफरत और असहिष्णुता के रूप में, कभी असभ्य टिप्पणी के रूप में, कभी किसी भद्दी पोस्ट के रूप में, तो कभी किसी अमर्यादित कृत्य के कारण मर्यादा की हत्या होती है। साथ ही युवा पीढ़ी के दोषपूर्ण समाजीकरण के कारण समाज के विभिन्न अंग तुच्छ हितों के लिए अपनी मर्यादाएं तोड़ रहे हैं तथा नई पीढ़ी को क्षणिक आनंद प्रत्येक मर्यादा से ऊपर लगने लगा है। परिणामत: सामाजिक व्यवस्था तथा सांस्कृतिक धरोहर का निरंतर क्षरण हो रहा है।

इस तरह मर्यादा का हनन राजनीति से लेकर आम व्यवहार में होता जा रहा है।यह अमर्यादित व्यवहार समाज के पैशाचिक स्वरूप का उद्घाटन करता है। लेकिन हमें समझना होगा कि हमारी संस्कृति में भी हमें मर्यादा एक तत्व के रूप में और मर्यादित जीवन एक जीवंत उदाहरण के रूप में देखने और सीखने को मिलते हैं। भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है, क्योंकि श्रीराम ने अपने जीवन में श्रेष्ठ आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों को कायम रखते हुए अपने जीवन को समाज व राष्ट्र साधना में न्योछावर किया।

साथ ही समस्त मानवजाति के लिए एक श्रेष्ठ व आदर्श जीवन जीने का उदाहरण पेश किया। मर्यादा व अनुशासन एक सामाजिक प्राणी के लिए नितांत आवश्यक है। मर्यादा का पालन करने का मतलब संकुचित रहना या अपने आपको दबा हुआ महसूस करना नहीं होता है, बल्कि उत्कृष्ट साधना की अभिव्यक्ति आध्यात्मिक मूल्यों की मर्यादा में रहकर ही हो सकती है।

सदाचारी व्यक्ति मर्यादित होगा, वह आध्यात्मिकतावादी होगा। अल्पकालीन स्वार्थपूर्ति के लिए किसी का तुष्टीकरण करना, गैर आध्यात्मिक तत्वों के लिए अपनी गरिमा व आत्म-सम्मान को झुकाना ये सभी उदाहरण मर्यादा के विरुद्ध हैं। इनसे हमें बचने की नितांत आवश्यकता है। इन पर विजय प्राप्त करते हुए हमें संकुचित मानसिकताओं से ऊपर उठकर अपने जीवन में नि:स्वार्थ, निर्भीक व निरंहकार को सिद्ध करना होगा। संकुचित मानसिकता किसी व्यक्ति के चिंतन-मनन की प्रक्रिया पर बेहद विपरीत असर डालती हैं और इसके प्रभाव में उसके भीतर की सकारात्मकता का लोप होने लगता है।

व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह समाज द्वारा निर्धारित मर्यादाओं के अनुरूप ही अपने आचरण को ढाले। यदि वह ऐसा नहीं करता तो इसे समाज के अहित में माना जाता है। यह भी विडंबना ही है कि हम खुद के बजाय औरों से अपेक्षाकृत अधिक संयमित और मर्यादित होने की अपेक्षा रखते हैं। इसलिए हर किसी को यह गांठ बांध लेनी चाहिए कि मर्यादा का पालन किसी एक का नहीं, अपितु हर नागरिक, समूचे समाज और राष्ट्र का है। तभी स्वस्थ सामाजिक, साहित्यक, राष्ट्रीय मर्यादा परिलक्षित हो सकेगी।म