बीते मंगलवार को कांग्रेस ने राज बब्बर को यूपी कांग्रेस की कमान सौंपकर सभी को चौंका दिया। बब्बर 2017 विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी की अगुआई करेंगे। पार्टी में मौजूद सूत्रों का कहना है कि बब्बर को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने के फैसले के पीछे उनका मशहूर चेहरा है। सूत्रों के मुताबिक, इस फैसले में जातिगत गणित या कैडर में से ही किसी को चुनने पर जोर दिया जाना नहीं है। सूत्रों का कहना है कि पार्टी के विभिन्न धड़ों के विरोध और अध्यक्ष पद के संभावित दावेदारों में बब्बर का नाम न होने के बावजूद पार्टी ने यह फैसला इसलिए लिया क्योंकि वे विवादों से दूर रहे हैं। वे किसी एक जाति से जुड़े हुए नहीं माने जाते। वे मुखर हैं और सबसे बड़ी चीज यह है कि वे सत्ताधारी समाजवादी पार्टी से मोर्चा ले सकते हैं, जिससे उन्होंने 2006 में अपने रास्ते अलग कर लिए थे।
सूत्रों के मुताबिक, राज बब्बर की नियुक्ति से पार्टी के दो अन्य मकसद भी पूरे हुए हैं। एक तो यह संदेश गया कि प्रशांत किशोर ‘संगठनात्मक फैसले’ नहीं ले सकते। सूत्रों के मुताबिक, मधुसूदन मिस्त्री को राज्य के प्रभार से मुक्त किए जाने के बाद पार्टी यह संदेश देना चाहती थी। माना जा रहा था कि किशोर मधुसूदन की ‘कार्य प्रणाली’ से खुश नहीं थे, जो इस फैसले की वजह बना। उत्तराखंड से राज्यसभा एमपी बब्बर को पार्टी अध्यक्ष नियुक्त करके कांग्रेस ने प्रियंका गांधी पर बनने वाले दबाव को कुछ कम कर दिया है। प्रियंका पर दबाव इसलिए क्योंकि उन्हें चुनावी कैंपेन का चेहरा बनाया जा सकता है। एक सीनियर लीडर ने बताया, ‘पार्टी इस तथ्य से पूरी तरह वाकिफ है कि बब्बर न तो कैडर वाले शख्स हैं और चुनाव के कुछ महीनों पहले उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने से कोई चमत्कार नहीं होने वाला है।’ हालांकि, पार्टी को उम्मीद है कि वह उनकी ‘लोकप्रियता को राज्य के सुदूर के इलाकों में भी’ भुना सकती है। एक ऐसे राज्य में जहां पार्टी बीते 27 साल से सत्ता से बाहर है। ये कुछ ऐसा है, जो पार्टी पूर्व राज्य प्रमुख निर्मल खत्री से हासिल नहीं कर सकती थी। खत्री ‘पार्टी कैडर वाले व्यक्ति’ थे, लेकिन उनका चेहरा जनता में ज्यादा परिचित नहीं था। वे राजधानी से बाहर ज्यादा निकले भी नहीं थे।
बब्बर सुनार समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह समुदाय ओबीसी श्रेणी में आता है। राज बब्बर आगरा के रहने वाले हैं। यहां से वे दो बार 1999 और 2004 में सपा के टिकट पर सांसद बन चुके हैं। 1996 में वे अटल बिहार वाजपेयी के खिलाफ लखनऊ से चुनाव हार चुके हैं। दस साल बाद 2006 में उन्होंने अमर सिंह से तल्खियों की वजह से सपा से नाता तोड़ लिया। 2008 में कांग्रेस में शामिल होने के एक साल बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हें फिरोजाबाद उप चुनाव में डिंपल यादव के खिलाफ खड़ा किया। इस चुनाव में राहुल ने उस परंपरा को तोड़ा, जिसके तहत नेता उप चुनाव में प्रचार नहीं करते थे। राहुल ने बब्बर के लिए चुनावी रैली को संबोधित किया। बब्बर 85000 वोटों से जीत गए। इस तरह वे तीसरी बार लोकसभा पहुंचे। ये वो जीत थी, जिसे कांग्रेस और बब्बर याद रखना चाहेगी। इसके बाद, बब्ब्र 2014 के आम चुनाव में बीजेपी कैंडिडेट वीके सिंह के खिलाफ उतारे गए। चुनाव में उन्हें करारी शिकस्त मिली।
यूपी कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत ने कहा, ‘बहुत सारे लोग यह जानते हैं कि राज बब्बर एक्टर से राजनेता बने हैं। हालांकि, बहुत सारे लोग नहीं जानते कि वे छात्र राजनीति से उभरे हैं। वे आगरा कॉलेज स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष थे।’ यूपी के लिए पार्टी उस परंपरा को भी तोड़ना चाहती थी, जिसमें राज्य के बाहर के नेताओं को लाकर उस स्क्रीनिंग कमेटी का अध्यक्ष बना दिया जाता था जो प्रत्याशियों का चुनाव करती थी। इस वजह से खत्री को स्क्रीनिंग कमेटी का मुखिया बनाया गया। वे राज्य में पार्टी कैडर की मजबूती और कमजोरियों से वाकिफ थे। पार्टी सूत्र उस फैसले को जायज ठहरा रहे हैं, जिसके तहत एक ही वक्त में चार ‘सीनियर वाइस प्रेसिडेंट’ का ऐलान करने का फैसला किया गया। पार्टी इसे सोची समझी रणनीति के तहत उठाया गया कदम मानती है। इनमें से इमरान मसूद को छोड़कर कोई भी जनता के बीच लोकप्रिय चेहरा नहीं बल्कि कैडर से जुड़े मजबूत नेता हैं। जहां बब्बर से इस बात की उम्मीद की जा रही है कि वे पूरे राज्य का दौरा करेंगे, वहीं सीनियर वाइस प्रेसिडेंट्स से पार्टी चाहती है कि वे राज्य के चार हिस्सों-पश्चिम, केंद्रीय, पूर्वी और बुंदेलखंड में भीड़ के प्रबंधन का काम देखें।