पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान किसानों के मुद्दे पर हल्की सी बहस शुरू हुई, लेकिन सियासी शोरगुल में वह दब गई। सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस और ‘परिवर्तन’ की दावेदार बनी भारतीय जनता पार्टी के प्रचार अभियान में आरोप-प्रत्यारोप खूब दिखा। केंद्र और राज्य की कल्याणकारी योजनाओं की बात चली, लेकिन जमीनी हकीकत से दावे कोसों दूर दिखे। किसान तो दरअसल दावों के बीच फंसे रह गए।

केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत भूमि वाले किसानों को न्यूनतम आय सहायता के रूप में तीन समान किस्तों में एक वर्ष में 6,000 रुपए की राशि सीधे उनके बैंक खातों में जमा की जानी थी। वर्ष 2019-20 में, लगभग साढ़े 14 करोड़ किसानों को इस योजना का लाभ मिला। केंद्र ने लगभग पौने नौ हजार करोड़ रुपए आबंटित किए थे। बंगाल में इस योजना को लागू नहीं किया। राज्य सरकार ने कहा कि उसने दिसंबर 2018 में किसानों के हितों का ध्यान रखते हुए ‘कृषक बंधु’ (किसानों का मित्र) योजना की शुरुआत की है। इसके तहत किसानों को दो किस्तों में प्रति एकड़ (0.4 हेक्टेयर) खेती के लिए सालाना 5,000 रुपए देने की योजना लाई गई। एक एकड़ से कम जमीन वाले किसानों के लिए 1,000 रुपए की स्कीम थी।
जमीन पर हकीकत क्या है, यह आलू और धान की फसल उगाने वाले किसानों की हालत से पता चल रहा है।

अधिकांश किसान खराब बीज मिलने की शिकायत कर रहे हैं। महंगी खाद और उपज का समुचित मूल्य नहीं मिलने की शिकायतें आम हैं। विधानचंद्र राय कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व विभागीय प्रमुख पार्थ दासगुप्त के मुताबिक, इस तरह की शिकायतों के लिए कई देशों में तयशुदा एजंसियां हैं। अलग से कानून हैं, लेकिन हर साल किसानों की पीड़ा सामने आती है और अनदेखी रह जाती है। बीज को लेकर 1966 का कानून बदलने की मांग की जा रही है। खराब बीच से नुकसान की भरपाई का नियमन चाहते हैं। बंगाल में किसानों के स्वयंसेवा समूहों ने कुछ साल पहले बीज ग्राम विकसित करने की योजना शुरू की। धान, दलहन, तिलहन, आलू, सब्जियां- कई तरह के बीज सस्ते दामों पर किसानों को मिलने लगीं। लेकिन राजनीति हावी होती गई और अब 15-16 ऐसी समितियां बची रह गई हैं। ऐसी कृषि समितियों को कृषक हितैषी, बाजारमुखी बनाने के लिए मांग चल रही है, लेकिन राजनीतिक दलों ने से इसे चुनावी एजंडा नहीं बनाया।

विधानचंद्र राय कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व विभागीय प्रमुख पार्थ दासगुप्त के मुताबिक, राज्य और केंद्र- दोनों की मदद साथ मिलती तो किसानों का भला हो जाता। वे उदाहरण देते हैं। पंजाब में मिलने वाली अच्छी गुणवत्ता वाले आलू के 50 किलो बीज की कीमत लगभग पांच हजार रुपए है। खाद की कीमत दो हजार रुपए प्रति बैग है। मजदूरी लागत 200 से 250 रुपए प्रतिदिन है। एक बीघा जमीन (0.13 हेक्टेयर) पर खेती करने के लिए लगभग तीस हजार रुपए खर्च होते हैं। इसमें लगभग 3500 किलोग्राम आलू की पैदावार होती है। सरकार ने इसके लिए छह रुपए किलो का एमएसपी निर्धारित किया है। इसका मतलब है कि किसान केवल 21 हजार रुपए ही कमाते हैं। इस तरह एक बीघे में 9000 रुपए का सीधा नुकसान होता है।

किसानों के लिए बीमा और राजनीतिक दावा

तृणमूल ने जो उपलब्धियां गिनाईं, उनमें किसानों के लिए बीमा योजना भी है। प्रदेश सरकार ने 18 से 60 वर्ष की आयु के बीच कमाऊ परिवार के सदस्य (किसान) की मृत्यु के मामले में दो लाख रुपए के जीवन बीमा कवर की घोषणा कर रखी है। इसके लिए किसानों को कोई प्रीमियम देने की जरूरत नहीं थी। इस योजना से बंगाल में 72 लाख किसानों और बटाईदार परिवारों को जोड़ा गया। दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने बंगाल विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले, जनवरी 2021 में पीएम-किसान योजना को लागू करने की अनुमति दी। इस पर ममता बनर्जी दावा करती रहीं हैं कि उनकी सरकार ने सहायता के लिए केंद्र सरकार के पोर्टल पर पंजीकरण करने वाले किसानों का विवरण मांगा था। उन्होंने दावा किया कि बंगाल के 21.7 लाख किसानों ने योजना का लाभ उठाने के लिए पहले ही पंजीकरण करवा लिया था। अगर पैसा सीधे किसानों को हस्तांतरित होता, तो राज्य सरकार को इसमें कोई समस्या नहीं होती।