ऐसा पहली बार हो रहा है कि बंगाल में चुनावी बिसात बिछाते हुए राजनीतिक पार्टियां ‘सोशल इंजीनियरिंग’ को प्राथमिकता दे रही हैं। अब तक दो-ध्रुवीय रही बंगाल की राजनीति में जनहित के मुद्दे एवं कैडर-कार्यकर्ता तंत्र को मजबूत रखने पर राजनीतिक पार्टियां ध्यान देती रहीं। पहले के वाममोर्चा और फिर तृणमूल कांग्रेस के शासन के दौर में सियासी जमीन के समीकरण पर जोर रहता रहा है। इस बार भारतीय जनता पार्टी की दखल से नए सियासी मुद्दे खड़े हुए हैं। सियासी मैदान में जाति आधारित समीकरण का गुणा-भाग किया जा रहा है। धार्मिक ध्रुवीकरण पर राजनीतिक दलों की निगाह तो है ही।

बीते चार दशकों में यह बंगाल की राजनीति में आने वाला सबसे अहम बदलाव है। लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली कामयाबी के बाद जातिगत और धार्मिक समीकरण का मुद्दा मजबूती से उभरा है। इससे पहले पश्चिम बंगाल की राजनीति में जाति और पहचान की भूमिका कभी अहम नहीं रही। खासकर ग्रामीण इलाकों के मतदाता अब तक खुद को उसी राजनीतिक दल से जोड़ कर देखते रहे, जिसका समर्थन करते थे। बंगाल में चुनावों में आमतौर पर किसानों-मजदूरों और आमजनों के मुद्दे हावी हुआ करते थे। आठ चरणों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में हर दल की ओर से नए समीकरणों की छौंक परोसी जा रही है।

बंगाल की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी स्थानीय-बाहरी, बंगाली अस्मिता व अपने हिंदू-ब्राह्मण होने की बातें कह रही हैं। भाजपा को वह बाहरी और गुजरात की पार्टी बता रही हैं और खुद को बंगाल की बेटी। दूसरी ओर, भाजपा ने सोनार बांग्ला के साथ जय श्रीराम का नारा देकर हिंदुत्व का पत्ता चला है। जवाब में धर्मनिरपेक्षता का नारा बुलंद करने वाली वामपंथी पार्टियों एवं कांग्रेस ने मुसलिम वोटों के ध्रुवीकरण की उम्मीद में नवगठित इंडियन सेक्युलर फ्रंट से हाथ मिलाया है, जिसकी अगुआई मुसलिम धर्मगुरु अब्बास सिद्दीकी कर रहे हैं। फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास पिछले चुनाव तक पर्दे के पीछे से सियासत करते थे। हालांकि, फुरफुरा शरीफ के मुख्य कर्ताधर्ता तहा सिद्दीकी अब भी ममता बनर्जी के साथ हैं और इसी कारण तृणमूल कांग्रेस उनकी ओर से निश्चिंत है।

सोशल इंजीनियरिंग के लिहाज से बंगाल के चुनाव में चार सवाल उभरे हैं- क्या भाजपा हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर पाएगी? दूसरा, इस ध्रुवीकरण का तृणमूल कांग्रेस के ठोस मतदाताओं पर क्या असर हो रहा है? तीसरे, मतुआ, राजवंशी और आदिवासी, अनुसूचित जाति के वोट किधर जाएंगे? चौथा, मुसलिम वोटरों, खासकर बंगाली मुसलमानों के वोटों का ऊंट किस करवट बैठेगा? दरअसल, ‘सोशल इंजीनियरिंग’ पर आधारित राजनीति की शुरुआत छोटे स्तर पर ममता बनर्जी ने शुरू की, जब 2011 में सत्ता में आने के बाद से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गोरखा, लेपचा, आदिवासी, राजबंशी, मतुआ, बाउड़ी, बागदी के अलावा इमामों-मुअज्जिनों को कभी भत्ता देकर तो कभी उनके लिए विकास बोर्ड गठित कर उनके बीच पैठ बनाने की कवायद की। भाजपा के मैदान में कूदने के बाद यह राजनीति के इस मोर्चे का विस्तार हो गया है।

दरअसल, बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली कामयाबी के बाद जाति और पहचान का मुद्दा मजबूती से उभरा। लोकसभा चुनावों में भाजपा से मिले झटकों के बाद ममता बनर्जी ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के 84 विधायकों के साथ अलग बैठक की थी। उसके बाद हाशिए पर रहने वाले समुदायों की दिक्ततों के निपटारे के लिए सितंबर में एक अलग सेल का गठन किया गया था। फिर ममता ने बीते साल सितंबर में दलित साहित्य अकादमी का गठन कर उसे पांच करोड़ का अनुदान दिया।

भाजपा ने 2016 के विधानसभा चुनावों में अनारक्षित सीटों पर भी बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों के मैदान में उतारा था। तब मजबूत संगठन नहीं होने के बावजूद पश्चिमी और उत्तरी हिस्सों में उसे 15 से 20 फीसद तक वोट मिले थे। मतुआ समुदाय के बीच पैठ से लोकसभा चुनाव में भाजपा को दलित वोटों का 59 फीसद मिला, जबकि ममता को 30 फीसद ही मिला। पश्चिम बंगाल की कुल आबादी में 17 फीसद दलित हैं। बंगाल में 30 फीसद मुसलमान हैं।

पश्चिम बंगाल महिला मतदाताओं की संख्या लगभग 49 फीसद है। उन्हें ममता बनर्जी अपनी योजनाओं का हवाला देकर लुभा रही हैं तो भाजपा के पास केंद्रीय योजनाएं गिनाने को हैं। तृणमूल ने लोकसभा चुनाव में 40 फीसद टिकट महिलाओं को दिया था। इस विधानसभा में भी ममता बनर्जी ने 50 फीसद टिकट महिलाओं को सौंपे हैं।

कुछ तथ्य

2011 में सत्ता में आने के बाद से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गोरखा, लेपचा, आदिवासी, राजबंशी, मतुआ, बाउड़ी, बागदी के अलावा इमामों-मुअज्जिनों को कभी भत्ता देकर तो कभी उनके लिए विकास बोर्ड गठित कर उनके बीच पैठ बनाने की कवायद की। भाजपा के मैदान में कूदने के बाद यह राजनीति के इस मोर्चे का विस्तार हो गया है।

लोकसभा चुनावों में भाजपा से मिले झटकों के बाद ममता बनर्जी ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के 84 विधायकों के साथ एक अलग बैठक की थी। ममता ने बीते साल सितंबर में दलित साहित्य अकादमी का गठन कर उसे पांच करोड़ का अनुदान सौंपा।

भाजपा ने वर्ष 2016 में अनारक्षित सीटों पर भी बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों के मैदान में उतारा था। पश्चिमी और उत्तरी हिस्सों में उसे 15 से 20 फीसद तक वोट मिले थे। मतुआ समुदाय के समर्थन से भाजपा को 2019 में दलित वोटों का 59 फीसद मिला, जबकि ममता को 30 फीसद ही मिला। बंगाल में 30 फीसद मुसलमान हैं। 70 फीसद मतदाताओं ने कभी एकतरफा मतदान नहीं किया।
पश्चिम बंगाल महिला मतदाताओं की संख्या लगभग 49 फीसद है। उन्हें ममता बनर्जी अपनी योजनाओं का हवाला देकर लुभा रही हैं तो भाजपा के पास केंद्रीय योजनाएं गिनाने को हैं। तृणमूल ने 50 फीसद टिकट महिलाओ को सौंपे हैं।

भाजपा ने समुदायों के बीच विभाजन कराने की कोशिश की है, लेकिन तृणमूल इसके खिलाफ लड़ेगी और लोगों को एकजुट रखने के लिए काम करेगी।
– सौगत राय, तृणमूल कांग्रेस के सांसद

तृणमूल सरकार की तुष्टीकरण की सियासत और राज्य के बहुसंख्यक समुदाय के प्रति उनके अन्याय से बंगाल में ध्रुवीकरण हुआ है।
– दिलीप घोष, बंगाल
भाजपा के अध्यक्ष