मेरठ के हाशिमपुरा में मई 1987 में अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ लोगों को अगवा करके उनकी गोली मारकर हत्या की गई, फिर उनकी लाशों को नहर में फेंक दिया गया। इस मामले में आरोपी पीएसी कर्मियों को निचली अदालत ने सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था। दिल्ली हाई कोर्ट ने बुधवार (31 अक्टूबर, 2018) को इस फैसले को पलट दिया। 16 पीएसी कर्मियों को 38 मुस्लिमों की हत्या का दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई। तीन दशक बाद आए इस फैसले के बाद पीड़ितों के रिश्तेदारों के दिल में अब भी एक टीस है। पीड़ितों के कई रिश्तेदार तो ऐसे हैं, जो घटना के वक्त इतने भी बड़े नहीं थे कि समझ सकें कि उनके पिता, भाइयों आदि को पीएसी के वैन में डालकर कहां ले जाया गया और बाद में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई।
द इंडियन एक्सप्रेस ने इस वारदात में बचे लोगों मुजीबुर रहमान, बाबुद्दीन, मोहम्मद उस्मान और जुल्फिकार नासिर से बात की। इसके अलावा, उनसे भी, जिनके रिश्तेदार इस खूनी नरसंहार में मार दिए गए। बातचीत में पता चला कि इन लोगों को कोर्ट की दौड़भाग का खर्च उठाने के लिए चंदा जुटाना पड़ा। ये लोग आजीविका के लिए पावरलूम, स्थानीय दुकानों और कंस्ट्रक्शन साइटों पर छोटी मोटी नौकरियां कर रहे हैं। पावरलूम में काम करने वाले बाबुद्दीन ने बताया कि कई बार तो उनके पास इतने भी पैसे नहीं होते थे कि दिल्ली जाकर कोर्ट की सुनवाई में शामिल हों। उनके मुताबिक, माली हालात इतने खराब हैं कि वह ‘भोजन तक के लिए दूसरों पर निर्भर हैं।’
मोहम्मद उस्मान के पैर पर गोली के निशान से पता चलता है कि उनका कोर्ट आना-जाना कितना पीड़ादायक होगा। उस्मान का परिवार कर्ज में दबा है, जिसकी वजह से उन्हें हाशिमपुरा का पुश्तैनी मकान बेचकर जाना पड़ा। उन्होंने बताया, ‘मैंने फलों की एक रेहड़ी लगाई लेकिन धंधा नहीं चला। कुछ वक्त के लिए मजदूर का काम किया लेकिन चोट की वजह से मुझे वह काम भी छोड़ना पड़ा।’ बता दें कि इस वारदात की वजह से कई परिवार ऐसे भी रह गए, जिनके घर में रोटी कमाने वाला भी कोई नहीं बचा। वहीं, इस वारदात के दौरान मरने का अभिनय करके किसी तरह जान बचाने वाले मुजीबुर रहमान ने कहा, ‘मुझे नहर से निकलकर किनारे पर वापस आना और घासों पर इंतजार करना याद है। मैंने केस रजिस्टर कराया लेकिन उस वक्त मुझे लगता था कि इससे कुछ नहीं होगा। मैंने गोली तो झेल ली लेकिन इंसाफ के इंतजार ने हम सबको मार दिया।’
जैबुनिशा बताती हैं कि जब उनके मोहम्मद इकबाल को पीएसीवाले उठा ले गए, उस वक्त उनकी गोद में दो दिन की बेटी थी। उन्होंने कहा, ‘मेरी तीन बेटियों और मैंने न्याय के लिए इतने सालों लड़ाई लड़ी। मेरी बेटियों की स्मृति में बस पिता की हत्या किया जाना है।” वहीं, उनकी बेटी नाजिया ने बताया कि मां और बेटियां रोजीरोटी के लिए घरों में काम करते हैं। मजदूरी करने जिंदगी चला रहे मोहम्मद आसिफ कहते हैं कि वह महज 2 साल के थे, जब उनके पिता की लाश मिली। उनका मानना है कि अगर पीएसी अगर उस दिन उन्हें छोड़ देती तो आज उनके पास पिता होते, एक अच्छी जिंदगी होती।
घटना वाले दिन को याद करते हुए कमरुद्दीन के पिता जमालुद्दीन (81) बताते हैं कि किस तरह वह अपने बेटे को अस्पतालों, जेलों और पुलिस स्टेशनों में तलाशते रहे। उन्होंने कहा, ‘यह बात आज भी तकलीफ देती है कि उसकी हत्या कर दी गई। मोदीनगर पुलिस स्टेशन के एक अफसर ने मुझे मेरे बेटे का शव दिखाया, जो खून में सना हुआ था और उसकी शिनाख्त करना मुश्किल था। मैंने कुछ अन्य शवों की शिनाख्त करने में भी पुलिस अफसर की मदद की।’ जमील अहमद महज 16 साल के थे, जब उनके पिता को पीएसी वाले उठा ले गए। वह अब भी वो चाय की दुकान चलाते हैं, जिसे कभी उनके पिता संभालते थे।
जमील ने कहा, ‘मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं अब भी पिता की चाय की दुकान चलाऊंगा। लेकिन मैं जिंदगी में आगे कैसे बढ़ सकता हूं, जब मैंने अधिकतर वक्त पिता के लिए लड़ने में खर्च कर दिया। जब पीएसी वालों ने घर पर आकर दस्तक दी थी तो मेरे पिता ने मुझसे छिप जाने के लिए कहा था। मैं इसके लिए उनका शुक्रगुजार हूं।’ पीड़ितों और वारदात में बचे लोगो का कहना है कि यूपी सरकार ने हर परिवार को 5 लाख रुपये दिए जोकि ‘पर्याप्त’ नहीं थे। मुआवजे की इस रकम का कुछ परिवारों ने कर्ज चुकाने में इस्तेमाल किया तो वहीं कुछ ने दूसरे जिले में जमीन खरीदने की कोशिश की।
कमरूद्दीन की छोटी बहन शहनाज ने बताया, ‘हमने अधिकतर रकम शुरुआत के ही कुछ महीनों में खर्च कर दी। सरकार ने भी परिवार के सदस्यों के बीच पैसा बांटा। 15 साल के लोगों को भी 25 हजार रुपये दिए गए। होशियारी से इस रकम को खर्च करना बेहद मुश्किल था।’ वहीं, वारदात में बचे नासिर ने कहा, ‘इस नरसंहार की वजह से हमारे मोहल्ले की छवि खराब हो गई और काम धंधा आज भी मंदा है। कुछ खाने पीने की दुकानें इस इलाके में खुलीं लेकिन प्रशासन ने कोई खास ध्यान नहीं दिया। लोग यहां कारोबार शुरू करने से हिचकते हैं।’ कई का कहना है कि वे उस वक्त हैरान रह गए जब सबूतों के अभाव में निचली अदालत ने आरोपियों को बरी कर दिया था। हालांकि, हाई कोर्ट के फैसले के बाद पीड़ित परिवारों की मांग है कि दोषियों को फांसी दी जाए।