‘जनसत्ता’ के नोएडा स्थित दफ्तर के केबिन में मेरे सामने जब वे आकर बैठे तो मैं बहुत सहज नहीं रह सका। कुछ शब्द, कुछ नाम एक प्रतीक हो जाते हैं जिनके साथ सरोकार की साझेदारी जुड़ जाती है। ‘जनमोर्चा’ के संपादक शीतला सिंह जब सामने बैठे हों तो एक ऐसे अखबार से जुड़े खबरनवीस के रूप में आप नॉस्टैलजिक हो जाते हैं जिसका सरोकारों का एक इतिहास रहा है और वर्तमान में जिसके सामने करो या मरो जैसी चुनौती है और बाजार के हड़बोंग में आपके चुक जाने और मर जाने का एलान कर दिया जाता है। लेकिन हमें यह भी पता है कि बाजार के आंकड़ों में यही चुकने और मरने का तमगा हमें जन का मोर्चा लेने वाला भी साबित कर देता है।
नोएडा में दफ्तर की तंग चारदीवारी के बीच शीतला सिंह से मिलने के बाद उन्हें उनकी कर्मभूमि में देखने की ऐसी चाह पैदा हुई कि कुछ दिनों बाद मेरे पांव फैजाबाद में ‘जनमोर्चा’ के दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। छोटी और ऊंची सीढ़ियां आपको खबरनवीसों की ऐसी जुझारू टीम के पास पहुंचाती हैं जो अपने संपादक से मिलने का बेसब्री से इंतजार कर रही है। खबरों पर संपादक से बहस करती, खबरों के सरोकार, क्यों और कैसे लेनी चाहिए पर तर्क-वितर्क करती, ऐसी टीम आम तौर पर अब नोएडा और दिल्ली के कारपोरेट व कैफेटेरिया संस्कृति वाले बड़े अखबारों के दफ्तर में नहीं दिखती। और, ऐसा संपादक भी नहीं दिखता जो अपने लिए बने खास कमरे में बैठने के बजाए अपनी टीम के साथ हॉल में बैठता है, फाइलों, खबरों की कॉपियों, चिट्ठी-पतरी से जूझता हो। एक-एक खबर पर माथापच्ची करता हो। आजादी के बाद जब सहकारिता की मुहिम शुरू हुई थी तो लगभग 350 सहकारी अखबार शुरू हुए थे। आजादी के आंदोलन के साथ ही भारत में पत्रकारिता की शुरुआत हुई थी, इसलिए उस समय तक पत्रकारिता एक मिशनरी सोच के साथ आगे बढ़ रही थी। लेकिन जल्द ही निजी पूंजी और कॉरपोरेट के दबाव में अखबार भी बाजार के उत्पाद बनते गए और सरोकार की बात करने वाले दम तोड़ते गए। उसी सहकारिता की आखिरी लौ ‘जनमोर्चा’ है जिसने बाजार में गुमनाम होने के बजाए लड़ना पसंद किया। तोप शब्द के साथ थोड़ी छूट लेते हुए कहता हूं कि जब बाजार मुकाबिल हो तो ‘जनमोर्चा’ का लखनऊ से नया संस्करण निकालने वाले योद्धा शीतला सिंह ही हो सकते थे।
उत्तर प्रदेश के जुड़वां शहरों अयोध्या-फैजाबाद की पहचान अगर राम मंदिर और बाबरी मस्जिद की जंग के साथ जुड़ी है तो इस संवेदनशील मुद्दे की खबरनवीसी से ‘जनमोर्चा’ और शीतला सिंह का नाम भी जुड़ा हुआ है। जब विभिन्न विचारधाराओं की सरकार और मुख्यधारा का मीडिया अपने-अपने हिसाब से मंदिर-मस्जिद विवाद का कारोबार कर रहा था तो ‘जनमोर्चा’ के छापेखाने से निकली प्रतियां संविधान, कानून और सरकार के इकबाल पर सवाल उठा रही थीं। इस मुद्दे पर शीतला सिंह ने सीधे तौर पर संविधान के पक्ष में मोर्चा खोला और साफगोई से कहा कि हिंदुस्तान जैसे देश में किसी मस्जिद को गिराना संविधान के खिलाफ है। इसके लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, विश्व हिंदू परिषद और प्रधानमंत्री नरसिंह राव को अपने कलम के घेरे में लिया था। इसके साथ ही फैजाबाद-बस्ती क्षेत्र में स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस के एक गुमनामी बाबा के रूप में रहने की खबरें फैलने लगीं और मीडिया का एक बड़ा तबका इसे ‘मनोहर कहानियां’ के तौर पर छापने लगा तो इस पर भी शीतला सिंह ने मोर्चा लिया। अफवाह और मसालेदार तथ्यों के उलट उनकी खोजी रपट यही साबित करती है कि ‘गुमनामी बाबा’ के तौर पर मशहूर शख्स सुभाष चंद्र बोस नहीं थे।
राम मंदिर-बाबरी मस्जिद और ‘गुमनामी बाबा’, जो दो मुद्दे मुख्यधारा की मीडिया के लिए कारोबार का साधन बने इन्हीं दो मुद्दों पर शीतला सिंह का रुख बताता है कि कारोबारी शिगूफे के बरक्स सरोकारी सिद्दत के साथ कैसे काम किया जा सकता है। विद्वान एडवर्ड हरमन व्यावसायिक अखबार (आज के संदर्भ में हर तरह का मीडिया) के उस खतरे की ओर इशारा कर चुके हैं जो कृत्रिम सहमति का बेमेल उत्पाद तैयार करते हैं। जो अपने आक्रामक सुर और शब्दों में पाठकों/दर्शकों को यह चुनने के लिए मजबूर करते हैं कि गुरमेहर कौर राष्टÑदोही है या नहीं, या नोटबंदी का विरोध करने वाला मोदी विरोधी और देशविरोधी है। आज का ‘मास मीडिया’ पाठकों और दर्शकों को एक भीड़ बनाने में कामयाब हो रहा है। ज्यां बौद्रिलार्द मानते हैं कि जब भीड़ आती है तो वह सामाजिक का खात्मा करती है। और सामाजिक के साथ सरोकार का भी खात्मा होता है। और इसी सामाजिक और सरोकार को बचाने के लिए डटे हुए हैं शीतला सिंह।
आज जब किसी वेबसाइट पर एक जवान का वीडियो उसे बिना बताए अपलोड कर दिया जाता है और सदमे में वह जवान खुदकुशी कर लेता है तो इस वक्त हमें न्यूजरूम में शीतला सिंह जैसे संपादक की सख्त जरूरत महसूस होती है।
वैसा संपादक जो पत्रकार को यह विवेक दे कि कोई इंसान तुम्हारे लिए सिर्फ एक ‘खबर’ नहीं हो सकता। यह सही है कि ‘जन’ शब्द से शुरू हुए अखबारों का सत्तर और अस्सी के दशक में जो जलवा था वह अब नहीं है। और इनके कमजोर होने के आर्थिक और सामाजिक कारण स्पष्ट हैं। लेकिन ऐसे समय में अंत तक डटे रहने की हिम्मत शीतला सिंह देते हैं। कुंवर नारायण की कविता के शब्द हैं, ‘शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं कि सब कुछ शुरू से शुरू हो/ लेकिन अंत तक पहुंचते-पहुंचते हिम्मत हार जाते हैं/हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती कि वह सब कैसे समाप्त होता है जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था हमारे चाहने पर…।’ और शीतला सिंह जैसे लोगों के लिए ही कुंवर नारायण के शब्द हैं, ‘कोई फर्क नहीं सब कुछ जीत लेने में और अंत तक हिम्मत न हारने में’। सब कुछ जीतने वाला नहीं, अंत तक डटे रहने वाला ही जन के लिए मोर्चा ले सकता है। और पत्रकारिता का सरोकार तभी बच सकता है जब स्याही, छापाखाना और खबरनवीसों की रोटी का इंतजाम कारपोरेट नहीं सहकारिता के पैसे से हो।