नोटबंदी के फैसले के बाद जब सरकार लोगों से देशभक्ति का प्रमाणपत्र मांग रही थी तभी गोविंदाचार्य ने केंद्र सरकार के वित्त सचिव को इस मुद्दे पर कानूनी नोटिस भेजा और सरकार के इस कड़े फैसले का खमियाजा भुगतने वाले पीड़ितों के लिए मुआवजा भी मांगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक, पूर्व भाजपा नेता, सामाजिक व पर्यावरण कार्यकर्ता और आर्थिक विचारक इन्हें आप जो भी पहचान दें लेकिन हर पहचान के साथ एक खास बात यह है कि इन्होंने उस पहचान से जुड़े मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया। उनका कहना है कि लोकतंत्र का आधार ही संवाद और विश्वास है। राष्ट्रीय स्वाभिमान, संस्कृति और स्वदेशी का बिंब बने गोविंदाचार्य से बातचीत के मुख्य अंश :
सवाल : आज बीच बहस में राष्टÑ है। राष्टÑ बनाम राष्टÑवाद को लेकर आप क्या सोचते हैं?
जवाब : राष्टÑ केवल तीन तत्त्वों का समेकन है – सरहद, समाज और संस्कृति। इसमें कई कारणों से सरहद घटती-बढ़ती रही। लेकिन स्मृति की निरंतरता का बने रहना राष्टÑवाद का मूल तत्त्व है और स्मृति का सीधा संबंध समाज के जीवन लक्ष्य, जीवन मूल्य, जीवन आदर्श, जीवन शैली से है और ये नैसर्गिक रूप से जुड़े हुए हैं। हर समाज की उसके अनुसार अपनी पहचान होती है। राष्टÑ भी उस पहचान के साथ नैसर्गिक रूप से जुड़ा हुआ है। कई बार हम राष्टÑ को पश्चिमी इतिहास से उपजी राष्टÑ राज्य की संकल्पना के साथ जोड़ कर देखने की कोशिश करते हैं। परिणामत: भ्रांति पैदा होती है। राष्टÑ राज्य की अवधारणा का यूरोपीय संदर्भ में उद्भव हुआ और एक-दूसरे की संपु्रभता का आदर करने का मानस बना। लेकिन इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में यूरोप के कई समूह वर्षों तक आपस में लड़ते रहे। थक गए। लेकिन किसी भी समूह का वर्चस्व स्थापित नहीं हुआ और उस कालखंड में यूरोप की एक तिहाई आबादी युद्ध, बीमारी और भुखमरी की शिकार होकर स्वर्ग सिधार गई। यूरोप में फ्रांसीसी क्रांति के बाद राष्टÑवाद की जो तस्वीर उभरी उसकी मूल भावना भू-राजनैतिक इकाई की थी। लेकिन यह भू राजनैतिक इकाई नस्ली भावना के द्वंद्व में बंधी रही और जब नस्ली भावना कम हुई तो यूरोपीय संघ अस्तित्व में आया। लेकिन यह परिपक्व होता उसके पहले ही ब्रेग्जिट ने खेल कर दिया और अब नस्ली राष्टÑवाद फिर जोर मार रहा है।
सवाल : भारत के संदर्भ में राष्ट्रवाद को कैसे देखेंगे?
जवाब : भारत में सांस्कृतिक, आध्यात्मिक आदि चेतनायुक्त राष्ट्र की पहचान के अनुकूल राष्ट्रवाद लंबे समय से जोर मार रहा है, जगह बना रहा है। राष्ट्र राज्य के नजरिए से इसे देखेंगे तो भारत में चार धाराएं हैं – पहला यह कि भारत एक बहुराष्ट्रवाद प्रायद्वीप है। इस धारा का पोषण वामपंथ करता है। दूसरी धारा यह मानती है कि भारत नया राष्ट्र है जिसका जन्म 1947 में हुआ है, जिसके राष्ट्रपिता गांधी जी हैं। तीसरी धारा मानती है कि भारत राष्ट्र बन रहा है अभी बना नहीं है। चौथी धारा का कहना है कि भारत एक प्राचीन राष्ट्र है, पूरा भारत एक राष्ट्र और एक संस्कृति को धारण करता है और उस राष्ट्रवाद स्मृति की निरंतरता हजारों बरसों से है। यह मानता है कि राजनीतिक सीमाएं घटती-बढ़ती रही हैं और हिमालय की शाखाओं-प्रशाखाओं से आवेष्टित समुद्र से घिरे हुए और उसमें उपस्थित द्वीपों समेत भूभाग की राष्ट्रवाद पहचान एक है। स्मृति की इस निरंतरता को भारतीयता और इस पहचान को हिंदुत्व कहते हैं। शायद इसलिए 1858 में सर सैयद अहम खान को यह कहते हिचक नहीं हुई कि मजहब भले इस्लाम है उनकी राष्ट्रीय पहचान हिंदू है। सवाल : आज राष्ट्रभक्ति को कुछ खास बिबों से जोड़ा जा रहा है और इन बिंबों को खारिज करने वाले राष्ट्रदोही करार दिए जा रहे हैं। इस टकराव को आप कैसे देख रहे हैं?
जवाब : मैं मानता हूं कि यह पहचान भू-सांस्कृतिक है।
मूलत: ‘कन्फ्रंटेशन’ (टकराव) नहीं ‘कंपैशन’ (संवेदना) की दृष्टि से सोचें। हमारे देश में जिसे आप प्राकृतिक भारत कहिए समाज के कुछ हिस्से स्मृतिभं्रंश और स्मृतिलोप का शिकार हो गए जो अपने समाज के अस्तित्व की निरंतरता से कट गए हैं, अलग हो गए हैं। इस बात को दर्शाने वाला एक उदाहरण है बामियान में मूर्तियों को तोड़ने का प्रयास। वे तो अपने ही पूर्वजों को तोड़ रहे थे। अपनी ही पहचान की निरंतरता से उनका संबंध कट गया। ऐसा ही बहुत कुछ हुआ है। इतिहास स्मृति की निरंतरता में जाएं तो सहमति, समान इच्छा की आकांक्षा बढ़ेगी। स्मृतिभ्रंश के परिणामस्वरूप भू-राजनैतिक राष्ट्रवाद को प्रश्रय मिलने से स्पर्धा, संघर्ष आदि दिखने लगता है। देखिएगा तो भारतीय क्षेत्र, भाषा, संप्रदाय विविधता के आयाम हैं। जब समान स्मृति, चेतना में सक्रिय रहती है तब यह विविधता और विविधता का अहसास एकता को ताकत देता है। जब स्मृतिभ्रंश होकर राष्टÑ की जीवनशक्ति कमजोर होती है तो यह विभेद का रूप लेती है और विभेद में विभाजन के बीज पड़ते हैं। टकराव का दूसरा मूल कारण भारत में उपजे संप्रदाय और भारत के बाहर उपजे संप्रदाय हैं। इनकी तासीर में फर्क है। यहां की लोकचेतना में और भारत के बाहर उपजे संप्रदाय में भी संस्कृति हावी है। इसलिए हजारों वर्षों से भौगोलिक रूप से साथ रहने से कुछ संस्कृति की साझी विरासत प्राकृतिक भारत को आप्लावित करती थी। मोटे तौर पर 1857 के बाद अलग-अलग पहचान और पहचानों के प्रति आकर्षण रखने वाले समाजों को अलगाव के उपकरण के नाते इस्तेमाल किया गया। इसलिए प्राकृतिक, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद क्षत-विक्षत हुआ। इससे भू-राजनैतिक राष्टÑवाद के थोड़े समय तक हावी रहने के लक्षण दिखते हैं।
सवाल : आपने कहा है कि गंगा और गाय सांप्रदायिक नहीं, सभ्यतामूलक मुद्दा हैं। आखिर जल, जंगल और जमीन से जुड़े भारत जैसे कृषिप्रधान देश में इन बिंबों के संप्रदायीकरण की शुरुआत क्यों हुई?
जवाब : यह असर है डेढ़ से दो सौ वर्षों की गुलामी का। भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति का। समाज को बांट कर रखने की उनकी राजनीतिक आवश्यकता के कारण गोमाता का विषय कुछ हलकों में सांप्रदायिक रंग ले बैठा। यह उनकी बांटो और राज करो की सियासत की चाल का नतीजा है। इस कारण हर विषय अनावश्यक रूप से पहचान का मुद्दा बन गया।
सवाल : नवउदारवादी पूंजीवाद के दौर में आप स्वदेशी मूल्यों को किस तरह देखते हैं?
जवाब : आज भी भारत की अर्थव्यवस्था सामाजिक पूंजी और सांस्कृतिक परंपरा के पहियों पर ही गतिमान है। हमारे देश में अर्थव्यवस्था के तीन तत्त्वों किसानी, कारीगरी और गाय को विलक्षण ढंग से पिरोया गया था। औपनिवेशिक शासन में रॉबर्ट क्लाइव के समय से कारीगरी को खेती से अलग किया गया और खेती को गाय से अलग किया गया। तीनों को अलग-अलग रूप से आहत कर ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में शोषणकारी रूप हावी हुआ। अभी भी अवधारणाओं के स्तर पर भारतीय नजरिए से समाज को और व्यवस्थाओं को देखना जरूरी है। डिकॉलोनाइजेशन आॅफ माइंड (दिमाग की औपनिवैशिक गुलामी से आजादी) जरूरी है।
सवाल : इन दिनों सरकार के फैसलों के खिलाफ खुलने वाली हर जुबान देशद्रोही करार दी जा रही है और यह प्रवृत्ति दिनोंदिन जोर पकड़ रही है। सत्ता पक्ष की ओर से देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने के इस चलन को आप किस तरह से देखते हैं।
जवाब : मैं मानता हूं कि लोकतंत्र का आधार सत्ता नहीं होता, समाज के बीच संवाद और विश्वास होता है। और उसका भी मूल आधार होगा किसी की भी नीयत पर आरोप नहीं लगाना। किसी भी तरह की भिन्न सोच का अर्थ विरोध नहीं है या देशद्रोह भी नहीं है। देशभक्ति की भावना गहरी है और पवित्र भी। उसको राजनैतिक जुमलेबाजी के तहत सस्ता और सतही नहीं बनाना चाहिए।

