सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि असाध्य बीमारी से ग्रस्त मरणासन्न मरीजों के जीवनरक्षक उपकरण हटाकर उन्हें इच्छामृत्यु देने के अनुरोध को कानूनी दर्जा प्रदान करने के सवाल पर वह सरकार के रुख का इंतजार करेगा। न्यायमूर्ति एआर दवे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ से अतिरिक्त महान्यायवादी पीएस पटवालिया ने सक्षम प्राधिकार से निर्देश प्राप्त करने के लिए कुछ समय देने का अनुरोध किया। इस पर पीठ ने उनसे जानना चाहा- क्या सरकार उचित समय के भीतर अपना रुख स्पष्ट करेगी।

पटवालिया ने संविधान पीठ को इस विषय पर विधि आयोग की 241 वीं रिपोर्ट से अवगत कराया। जिसमें कहा गया है कि कुछ सुरक्षा उपायों के साथ इसकी अनुमति दी जानी चाहिए और इस संबंध में एक विधेयक प्रस्तावित है। इस विधेयक का नाम है- मरणासन्न मरीज का चिकित्सीय उपचार (मरीजों और चिकित्सकों का संरक्षण) विधेयक 2006। पटवालिया ने कहा कि उनकी दलीलें भारतीय चिकित्सा परिषद कानून, 2002 के नियम 6.7 पर भी अधारित होंगी। जिसमें कहा गया है कि इच्छामृत्यु की अनुमति देना अनैतिक आचरण माना जाएगा। हालांकि विशिष्ट मामले में मस्तिष्क मृत्यु के बाद भी दिल और फेफड़े को चालू रखने वाले सहायक उपकरणों को हटाने के सवाल पर सिर्फ उपचार करने वाले चिकित्सक नहीं बल्कि चिकित्सकों का दल निर्णय करेगा।

संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति शिव कीर्ति सिंह, न्यायमूर्ति एके गोयल और न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन शामिल हैं। संविधान पीठ ने कहा कि इस रिपोर्ट पर सरकार के निर्णय की वह प्रतीक्षा करेगी। इसके साथ ही अदालत ने इस मामले की सुनवाई एक फरवरी के लिए स्थगित कर दी। संविधान पीठ गैर सरकारी संगठन कामन काज द्वारा 2005 में दायर जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इस याचिका में कहा गया है कि जब चिकित्सकीय विशेषज्ञ की यह राय हो कि असाध्य बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति अब मरणासन्न अवस्था में पहुंच गया है, तो उसे जीवन रक्षक प्रणाली पर रखे जाने से इनकार करने का अधिकार दिया जाना चाहिए क्योंकि ऐसा नहीं करने से उसकी वेदना ही बढ़ेगी।
शीर्ष अदालत ने इस याचिका का केंद्र द्वारा विरोध किए जाने के बावजूद दो साल पहले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी किए थे। सरकार का तर्क था कि यह एक तरह से आत्महत्या है जिसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।