दिल्ली विधानसभा का इस बार अचानक बुलाया गया विशेष सत्र कई मायने में अलग रहा। सदन पांच दिनों तक चली लेकिन पहली बार ऐसा हुआ जिसमें न तो कोई प्रस्ताव लाया गया और न ही पहले से तय प्रतिवेदन (सेवा विभाग) को प्रत्यक्ष तौर पर पटल पर रखा गया। सदन में सिर्फ पार्टी के पक्ष में अपनी बात रखी गई।
तकनीक के आधार पर यह सत्र सातवीं विधानसभा के तीसरे भाग का तीसरा सत्र था जिसे एक दिन का विशेष सत्र कहकर बुलाया गया था। लेकिन एक-एक दिन करके इसे पांच दिनों तक खींचा गया। हालांकि यह अध्यक्ष का विशेषाधिकार है कि वह सत्रों की समय सीमा तय करें लेकिन सदन का उपयोग नीति निर्माण की जगह एक खास उद्देश्य के लिए होता दिखा। विशेष सत्र में कई चीजें पहली बार दर्ज हुई। हालांकि उन पर सवाल खड़े किए गए।

विधानसभा का सत्र पांच दिन चला लेकिन दिल्ली से जुड़ी किसी जनसमस्या पर चर्चा नहीं हुई। कोई प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। एक प्रतिवेदन (सेवा विभाग) जो कार्य सूची में दर्ज था, उसे भी प्रत्यक्ष तौर पर पेश नहीं किया जा सका।
विशेष सत्र के मायने : विधि विशेषज्ञ व दिल्ली विधानसभा के पूर्व सचिव एसके शर्मा बताते हैं कि विशेष सत्र केवल ‘विशेष और आपातस्थिति’ में ही बुलाया जा सकता है। जब प्रदेश या देश के समक्ष कोई बड़ा संकट खड़ा हो जाता है या कोई जनहित-देशहित के मुद्दे पर तुरंत फैसला लेना होता है।
पूर्व में मदनलाल खुरान, साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज की सरकार ने एक भी बार विशेष सत्र नहीं बुलाया। शीला दीक्षित सरकार ने पूरे 15 साल में केवल तीन बार विशेष सत्र बुलाया जब दिल्लीवालों के समक्ष भारी संकट खड़ा हो गया था। सरकार ने सदन में विपक्ष के साथ मिलकर विशेष सत्र के जरिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उपजे संकटों का समाधान किया।
सदन ने इसके जरिए विपक्ष की सहमति से प्रस्ताव पारित कर सुप्रीम कोर्ट से ‘सीएनजी बसों’ की व्यवस्था करने लिए और समय ले लिया। इसी प्रकार दिल्ली से छोटे उद्योगों को हस्तांतरित करने के आदेश पर भी सदन के प्रस्ताव से सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मोहलत दे दी।