लंदन में पहली मैराथन दौड़ और पीरियड का पहला दिन। जीवन का इतना अहम मौका और स्त्री जीवन की बुनियादी बात। लंदन मैराथन में धाविका किरण गांधी पीरियड के पहले दिन बिना सेनेटरी पैड के दौड़ पड़ीं और ये बातें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों की बहुत कम लड़कियां जानती हैं। आर बाल्की की फिल्म ‘पैडमैन’ को प्रतिबंधित करने के खिलाफ पाकिस्तानी न्यूज एंकर का गुस्सा यूं निकलता है कि पाकिस्तान में हाफिज सईद चल सकता है लेकिन पैडमैन नहीं। इन विकासशील देशों में मासिक धर्म अभी भी महिला के लिए गोपनीयता और शर्म का ही मसला रखा गया है। इसके पहले भारत में सेनेटरी पैड को जीएसटी के दायरे में लाकर उसे महंगा करने के खिलाफ भी गुस्सा फूटा था। सड़कों पर प्रदर्शन हुए थे और लड़कियों ने नेताओं को सेनेटरी पैड उपहार में भेजने शुरू किए थे। मासिक धर्म की स्वच्छता के सामाजिक अभियान का फायदा बालीवुड ने भी उठाया और तमिलनाडु के अरुणाचलम मुरुगनाथम पर आधारित फिल्म को प्रचारित करने के लिए अक्षय कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंचे और फिल्म के प्रमोशन में सेनेटरी नैपकिन बांटे गए और अक्षय कुमार के जाने के बाद वे प्रमोशनल पैड जमीन पर कचरे के तहत बिखरे पड़े थे।

पीरियड पर बहस पैड के साथ सेल्फी तक जा पहुंची है तो मान लें कि अब महिलाओं के अच्छे दिन आ गए हैं। रश्मि एक पत्रकार हैं, लेकिन महीने में दो दिन वह दफ्तर नहीं जाती हैं। वजह है पीरियड। रश्मि कहती हैं कि मुझे उन दिनों उतनी परेशानी नहीं होती कि दफ्तर न जा सकूं। लेकिन मेरी समस्या दूसरी है। मेरे दफ्तर में महिलाओं के लिए अलग शौचालय नहीं है। जिस इमारत में दफ्तर है वहां एक कॉमन शौचालय है जो बहुत गंदा रहता है। वैसे शौचालय में आम दिनों में भी इनफेक्शन का ही डर लगा रहता है तो फिर पीरियड के दिनों में तो और भी खतरा होता है। अपने काम को लेकर सजग रश्मि कहती हैं कि मैं सेनेटरी पैड का खर्च आराम से उठा सकती हूं, दर्द भी ज्यादा परेशान नहीं करता लेकिन मेरी समस्या है शौचालय की। मैं काम के सिलसिले में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों में जाती रहती हूं। बड़े शहरों में फिर भी कार्यस्थलों में शौचालयों की सुविधा अच्छी है। लेकिन छोटे शहरों और कस्बों में बहुत मुश्किल होती है। शौचालय के नाम पर केवल ओट बना देना ही काफी नहीं होता है।

धाविका किरण गांधी

कांति कहती हैं कि फिलहाल यह बहस कपड़े और सेनेटरी नैपकिन तक सिमट गई है। विज्ञापनों में भी कहा जाता है कि इस पैड को लो और दाग का टेंशन नहीं रहेगा। तो दाग का टेंशन हो भी क्यों? वे कहती हैं कि मुझे खास गायनी दिक्कतों के कारण डॉक्टर ने पैड लेने से मना कर रखा है। मैं कपड़ा इस्तेमाल करती हूं और इस वजह से कपड़ों पर दाग लगने का डर बना रहता है। तो वह दाग मेरी शर्मिंदगी का कारण क्यों बने। इस दाग को कपड़ों में लगे धूल-मिट्टी, चाय-कॉफी या हल्दी के दागों जैसा ही क्यों नहीं लिया जा सकता है। कारपोरेट क्षेत्र में काम करनेवाली आकांक्षा कहती हैं कि अभी तक टीवी में सेनेटरी पैड के विज्ञापन में लाल रंग का इस्तेमाल नहीं किया जा सका है। पीरियड का खून शर्मिंदगी का धब्बा बन जाता है।

दिल्ली के एक बड़े स्कूल में पढ़ने वाली आलविका कहती हैं कि हम उच्चमध्यवर्गीय परिवार से आते हैं। छुट्टियों में हांगकांग और मलेशिया घूमने जाते हैं। हम तीन बहनें और मां पीरियड के दायरे में आते हैं। संपन्नता के बीच भी मेरी मां को चार महिलाओं का सेनेटरी नैपकिन का खर्च चुभता है। मुझे ज्यादा ब्लीडिंग होती है, मैं चाहती हूं कि जब भी वाशरूम जाऊं नैपकिन बदल दूं। लेकिन मां का कहना है कि दो से तीन नैपकिन में ही काम चला लो। आलविका कहती है कि मेरी बहनें तो मां का कहना मानती हैं लेकिन मैं शुरू के दो दिनों में हर पांच घंटे में नैपकिन बदलती हूं जिसे मेरी मां फिजूलखर्ची मानती हैं।

वहीं पैड बनाम कपड़े में पर्यावरण को लेकर भी बहस शुरू हो चुकी है। उषा अग्निहोत्री कहती हैं कि आज भी पैड को लेकर मितव्ययता और मध्यवर्गीय मानसिकता आड़े आती है। इससे निकलने की कोशिश में हैं। लेकिन बेटी पर्यावरण वाले लेख पढ़कर कहती है कि मां ये नैपकिन धरती पर बोझ तो नहीं हो जाएंगे, मुंबई के नालों के जाम होने का अहम कारण से सेनेटरी पैड भी थे। मुंबई में आई बाढ़ के बाद विभिन्न अध्ययनों के बाद यह बात सामने आई थी। वह कहती है कि मां, नॉर्मल फ्लो के दिन सूती कपड़ा ही इस्तेमाल करूंगी। उषा अग्निहोत्री का कहना है कि हमारी बच्चियां मांग कर रही हैं कि इस बहस को बड़े दायरे में लाया जाए। सिर्फ सेनेटरी नैपकिन से बहुत आगे तक ले जाना होगा पीरियड की इस बहस को।